इस माह इजरायल के रक्षा मंत्री एहुद बराक ने घोषणा की कि इजरायल को फिलीस्तीनी क्षेत्र से वापस हो जाना चाहिये। " विश्व इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं है और हम वर्ष 2010 में इस अपेक्षा को कि इजरायल दूसरे लोगों पर दशकों तक शासन करता रहेगा परिवर्तित नहीं करेंगे" । उन्होंने कहा, " यह ऐसी चीज है जो विश्व में अन्य कहीं भी अस्तित्वमान नहीं है"
क्या वह सही हैं? क्या कभी शान्ति सम्भव है? और यदि ऐसा है तो अंतिम समझौता किस प्रकार का होना चाहिये? ये वे प्रश्न हैं जिन्हें कि नेशनल पोस्ट के लेखकों से हमने अपनी श्रृंखला " आपकी शांति योजना क्या है? के अंतर्गत पूछा।
मेरी शांति योजना अत्यंत सामान्य है : इजरायल अपने शत्रुओं को पराजित करे।
विजय से ऐसी परिस्थितियाँ बन ही जाती हैं कि जो शांति के लिये उपयुक्त होती हैं। ऐतिहासिक आँकडे इस बात को प्रमाणित करते हैं कि युद्ध तब समाप्त होते हैं जब एक पक्ष पराजय स्वीकार करता है और दूसरा पक्षा विजयी होता है। इसके आधार पर यह अंतर्द्ष्टि बनती है कि जब तक दोनों पक्ष अपनी मह्त्वाकाँक्षा को प्राप्त करना चाहते हैं तब तक संघर्ष जारी रहता है या फिर इसके रुक रुक कर चलने की सम्भावना बनी रहती है।
विजय का लक्ष्य आवश्यक नहीं कि बहुत अच्छा हो। प्राचीन चीनी रणनीतिकार सुन जू ने सलाह दी कि युद्ध में, " आपका लक्ष्य विजय प्राप्त करना होना चाहिये" । सत्रहवीं शताब्दी के आस्ट्रियन रेमांडो मोंटेकुकोली ने कहा, " युद्ध का उद्देश्य विजय होता है" । उन्नीसवीं शाताब्दी के प्रशा के कार्ल वोन क्लाजविज ने इसमें जोडा कि, " युद्ध हिंसा की एक कला है ताकि शत्रु को अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिये विवश किया जा सके"। विंस्टन चर्चिल ने ब्रिटिश लोगों से कहा था, " आप मुझसे पूछते हैं कि मेरा उद्देश्य क्या है?मैं एक शब्द में उत्तर दे सकता हूँ विजय ... विजय किसी भी कीमत पर विजय सभी आतंक के बाद भी विजय कितना भी लम्बा और कठिन मार्ग क्यों न हो" । ड्विट डी आइजनहावर को लगा, " युद्ध में विजय का कोई विकल्प नहीं है" । पिछले युगों की ये अंतर्द्ष्टि अब भी है शस्त्र कितने भी परिवर्तित हो जायें लेकिन मानवीय स्वभाव तो वही रहता है।
विजय का अर्थ है कि शत्रु पर अपनी इच्छा को थोपना , उसे इस बात के लिये विवश करना कि वह युद्ध के अपने उद्देश्यों को त्याग दे। प्रथम विश्व युद्ध में जर्मन को आत्मसमर्पण के लिये बाध्य किया गया लेकिन यूरोप को नियन्त्रण में लेने का लक्ष्य विद्यमान रहा और कुछ वर्षों के उपरांत ऐसा प्रतीत हुआ कि हिटलर इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। कागज के टुकडों पर हस्ताक्षरित संधियों का मह्त्व तभी तक है जब तक कि दूसरा पक्ष इसे स्वीकार करने के लिये विवश हो। 1973 में वियतनाम युद्ध कूटनीति के आधार पर समाप्त हो गया लेकिन दोनों ही पक्षों ने अपने युद्ध के उद्देश्यों को जारी रखा जब तक कि अंततः उत्तर ने 1975 में विजय प्राप्त नहीं कर ली।
इच्छा शक्ति सबसे मह्त्वपूर्ण तत्व है: विमानों को मार गिराना, टैंक ध्वस्त करा देना , अस्त्रों को कुंद कर देना , सैनिकों को भागने के लिये विवश करना और जमीन को घेर लेना अपने आप में निर्णायक नहीं हैं जबतक कि इसके साथ शत्रु मनोवैज्ञानिक रूप से ध्वस्त न हो। 1953 में उत्तरी कोरिया की क्षति, 1991 में सद्दाम हुसैन के पराजय और 2003 में इराक में सुन्नी की क्षति निराशा में परिवर्तित नहीं हुई। इसके विपरीत 1962 में अल्जीरिया में फ्रांसीसी पराजित हुए चाहे उन्होंने अपने शत्रुओं को हर क्षेत्र में पीछे छोड दिया, ऐसा ही 1975 में वियतनाम युद्ध में अमेरिका के साथ हुआ और अफगानिस्तान में सोवियत ने यही किया। शीत युद्ध बिना किसी मानवीय क्षति के समाप्त हो गया। इन सभी मामलों में हारने वाले अपने शस्त्र सेना और सक्रिय अर्थव्यवस्था को बनाये रखने में सफल रहे। लेकिन उनमें इच्छा नहीं थी।
इसी प्रकार अरब इजरायल संघर्ष मे यह तभी समाप्त होगा जब एक पक्ष हार मान लेगा। अभी तक अनेक चरणों के युद्ध के बाद भी दोनों ही पक्ष अपने उद्देश्यों पर कायम हैं। इजरायल अपने शत्रुओं से अपनी स्वीकार्यता के लिये लड रहा है जबकि उसके शत्रु इजरायल को नष्ट करने के लिये लड रहे हैं। दोनों के लक्ष्य एक दूसरे के विपरीत हैं और बदलने वाले भी नहीं हैं। इजरायल की स्वीकार्यता या नष्ट होना ही शांति की स्थिति है। सभी विश्लेषकों को समझना चाहिये कि शांति कि यही स्थिति हो सकती है। सभ्य लोग इजरायल की विजय चाहते हैं क्योंकि इसका उद्देश्य रक्षात्मक है तथा एक अस्तित्वमान और फल फूल रहे देश को बचाना है। इसके शत्रुओं का ध्वस्त करने का उद्देश्य पूरी तरह बर्बर है।
प्रायः 60 वर्षों से अरब के लोग जो इजरायल को मान्यता नहीं देते वे अपने ईरानी औ वामपंथी मित्र्रों के साथ इजरायल को अनेक रणनीतियों के द्वारा नष्ट करने का प्रयास करते हैं उनका प्रयास होता है कि वे बौद्धिक आधार पर इसकी विधिक मान्यता को कमतर करें, भूजनाँकिकी आधार पर यहाँ बढोत्तरी करें, आर्थिक आधार पर इसे अलग थलग कर दें, कूटनीतिक आधार पर इसकी रक्षात्मकता को रोकें, इससे परम्परागत आधार पर लडें, आतंक के आधार इसका मनोबल तोडें और जसंहारक हथियारों के आधार पर इसे नष्ट करने की धमकी दें। जब एक ओर इजरायल के शत्रुओं ने अपने लक्ष्य को पूरी ऊर्जा और इच्छा के साथ प्राप्त करने का प्रयास किया है और उन्हें कुछ सफलता भी मिली है।
यह बिडम्बना है कि अनेक बार इजरायल ने अपने ऊपर होने वाले इन आक्रमणों के उत्तर में इस प्रकार प्रतिक्रिया दी मानों उनकी दृष्टि से विजय प्राप्त करने का लक्ष्य लुप्त हो गया है। दक्षिणपंथियों ने विजय की योजना निकाली तो केंद्र्स्थ विचार ने अपनी ओर से ही शांति के लिये एकतरफा निर्णय लेकर और तुष्टीकरण के मार्ग को चुना तो वहीं वामपंथ तो पूरी तरह अपराधबोध और आत्महीनता की स्थिति में चला गया। अत्यंत कम इजरायली ऐसे हैं जो कि विजय की अतृप्त आकाँक्षा को समझ पा रहे हैं और इस यहूदी राज्य के लगातार बने रहने की स्वीकार्यता के मह्त्व को।
इजरायल के लिये यह सौभाग्य की बात है कि उनके लिये इसका अर्थ केवल फिलीस्तीनियों की पराजय है न कि समस्त अरब या मुस्लिम जनसंख्या की जो कि अंत में फिलीस्तीनियों को इजरायल को स्वीकार करने की दिशा में ले जायेगी। सौभाग्य की बात है कि फिलीस्तीनियों ने अपनी शास्वतता के सम्बंध में अच्छा मानस लोगों के मध्य बना रखा है लेकिन उन्हें पराजित किया जा सकता है। यदि जर्मन और जापानी लोगों को 1945 में पराजय के लिये विवश किया जा सकता है और अमेरिका को 1975 में तो फिलीस्तीनी लोग पराजित क्यों नहीं हो सकते।
निश्चित रूप से इजरायल को विजय प्राप्त करने में अनेक बाधाओं का सामना करना पडेगा। देश अनेक अंतरराष्ट्रीय अपेक्षाओं ( संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद ) और अपने प्रमुख सहयोगी अमेरिका की नीतियों से घिरा है । लेकिन फिर भी यदि जेरूसलम को विजयी होना है तो इसके लिये अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों की नीतियों में कुछ परिवर्तन होना होगा। इन सरकारों को इजरायल के आग्रह करना चाहिये कि वे फिलीस्तीनियों को यह समझाकर विजय प्राप्त करें कि फिलीस्तीनी पराजित हो चुके हैं।
इसका अर्थ है ( 1993-2000) ओस्लो समझौते से इजरायल की कमजोरी को लेकर जो दृष्टिकोण बना है उसे समाप्त करना होगाऔर फिर लेबनान और गाजा से दोहरी वापसी ( 2000 -05) को भी बदलना होगा। वर्ष 2001से 2001 के मध्य एरियल शेरोन के प्रधानमंत्रीकाल के पहले तीन वर्षों में जेरूसलम सही सतह पर आता दिखा था और उनके कठोर रुख से इजरायल के युद्ध प्रयासों में सही प्रगति हुई थी। जब वर्ष 2004 में यह स्पष्ट हुआ कि शेरोन गाजा से एकतरफा वापसी की योजना बना रहे हैं तब फिलीस्तीनी उत्साह लौट आया और इजरायल की विजय रुक गयी। एहुद ओलमर्ट के प्रधानमन्त्री रहते हुए जो भी क्षति हुई उसकी थोडी ही भरपाई पिछले एक वर्ष में बेन्जामिन नेतन्याहू के प्रधानमन्त्री काल में हो सकी है।
बिडम्बना देखिये कि इजरायल की विजय से इजरायल से अधिक लाभ फिलीस्तीन को होगा। इजरायल को निश्चय ही एक युद्ध की स्थिति से मुक्ति मिलेगी लेकिन उनका देश एक चलायमान आधुनिक समाज है। इसके विपरीत फिलीस्तीन एक बार अपने पडोसी देश में वापसी कर उसे नष्ट करने का स्वप्न छोड देगा तो इससे उन्हें अपनी पिछडी राजनीति , अर्थव्यवस्था , समाज और संस्कृति को विकसित करने का अवसर प्राप्त होगा।
इसलिये मेरी शांति की योजना युद्ध को समाप्त भी करती है और दोनों ही सम्बंधित पक्षों के लिये अभूतपूर्व लाभ के अवसर लेकर आती है।