हम लोगों में से जो लोग शरियत के विरोध में तर्क देते हैं उनसे प्रायः एक प्रश्न किया जाता है कि आखिर इस्लामी विधि को लेकर समस्या क्यों है जब कि आधुनिक पश्चिमी समाज ने काफी पहले हलाका या यहूदी विधि को आत्मसात किया था। वास्तव में वर्ष 2005 में ओंटारियो में विवाद समाधान को लेकर हुई बहस में उनके लिये यह प्रमुख मुद्दा था जिन्होंने तर्क दिया था कि शरियत को स्वीकार किया जाना चाहिये।
इसका उत्तर सरल है: एक मूलभूत अंतर दोनों को अलग करता है। इस्लाम एक मिशनरी मजहब है जबकि यहूदी नहीं। इस्लामवादी चाहते हैं कि इस्लामी विधि सभी पर लागू हो जबकि यहूदी अपनी विधि को अपने तक ही सीमित रखते हैं।
ब्रिटेन के दो तात्कालिक उदाहरण इस्लामी विधि के अंतर्निहित स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं।
पहला मामला मैनचेस्टर से 40 मील उत्तर में माल्टबे का कोल टाउन है जहाँ कि क्वींस केयर सेन्टर एक वृद्धावस्था आवास है जो कि वृद्ध लोगों की दिन भर देखरेख करता है। डेली टेलीग्राफ के अनुसार वर्तमान में इसके 37 स्टाफ या 40 निवासियों में एक भी मुस्लिम नहीं है। यद्यपि इस आवास का प्रबंधन इस बात पर जोर देता है कि इसके निवासी सभी " मजहब और सांस्कृतिक मान्यता" का सम्मान करें, इस केयर सेन्टर का स्वामी 1994 से ज़ुल्फिकार अली खान है और इस वर्ष उसने अपनी ओर से ही यह निर्णय लिया कि इस आवास का माँस हलाल कसाई के यहाँ से खरीदा जायेगा।
उसके गुपचुप निर्णय का अर्थ यह हुआ कि केयर सेंटर से पेंशनधारी अपनी इच्छा से बहुत सी वस्तुयें नहीं खा सकेंगे। इस निर्णय की मार से काफी आक्रोश उत्पन्न हुआ । एक निवासी के रिश्तेदार ने इसे, " अशोभनीय बताया। जो वृद्ध लोग इस आवास में हैं वे अपने अंतिम दिनों में अधिक बेहतर जीवन चाहते हैं परन्तु यह चौंकाने वाला है कि उन्हें इस व्यक्ति की इच्छा के चलते अपने पसंद के भोजन से वंचित रहना पड रहा है" । स्टाफ के एक सदस्य ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा, " यह अत्यंत गलत है कि कोई इस प्रकार अपने मजहब और सांस्कृतिक मान्यता को दूसरों पर थोपे" ।
अपने निर्णय के बारे में पूछे जाने पर खान ने उत्तर में कहा कि उसने हलाल माँस मुस्लिम स्टाफ के लिये मँगाने का निर्णय लिया था जो कि हैं ही नहीं। इसके बाद वह अपनी बात से पलट गया , " हम सभी प्रकार के माँस मँगा रहे हैं" और इस बात से सहमति जताई कि मजहबी मान्यता को दूसरों पर थोपा नहीं जाना चाहिये। इस प्रकार अपनी बात पलटने से भी स्टाफ का एक सदस्य संतुष्ट नहीं हुआ और उसे खान पर संदेह है, " उसका आशय आवास पर केवल हलाल माँस परोसने का था परंतु विवाद के चलते उसने इस पर पुनर्विचार किया" ।
गैर मुस्लिमों पर शरियत थोपने का दूसरा उदाहरण साउथ वेस्ट इंगलैंड का है। एवोन और सोमरसेट का पुलिस बल ब्रिस्टल और बाथ के शहरों की पेट्रोलिंग करता है क्योंकि आसपास के क्षेत्रों में महिला अधिकारियों के लिये हिजाब जारी किये गये हैं। ये हिजाब दो मुस्लिम गुटों की पहल पर उपलब्ध कराये गये हैं और प्रत्येक का मूल्य 13 पौंड है और यह जिले के सभी कांस्टेबल पद्धति के लिये है।
हिजाब को ग्रेट ब्रिटेन में ग़णवेश के रूप में जारी करना कोई नयी बात नहीं है लंदन पुलिस ने 2001 में ऐसा किया था जिसका अन्य पुलिस बल ने भी पालन किया कम से एक फायर ब्रिगेड ने । आखिर एवोन और सोमरसेट का हिजाब शेष से अलग क्यों है क्योंकि यह केवल मुस्लिम स्टाफ के लिये नहीं है वरन गैर मुस्लिम स्टाफ के लिये भी अनिवार्य है और विशेष रूप से मस्जिद में प्रवेश करते समय उनका प्रयोग करना।
बाथ सोसाइटी के राशद आज़मी इसको लेकर अत्यंत प्रसन्न हैं कि ऐसा कदम कांस्टेबल पद्धति ने उठाया है। सात गैर मुस्लिम अधिकारियों में से एक ने हिजाब प्राप्त किया और वह भी अपनी ओर से और इन एसिस्टेंट चीफ कान्सटेबल जैकी राबर्ट्स ने इसे , " गणवेश में अत्यंत सकारात्मक जुडाव बताया और ऐसी सामग्री जिसका कि अन्य अधिकारियों द्वारा भी स्वागत किया जाएगा" ।
[गैर मुस्लिमों द्वारा शरियत के प्रति समर्पित होने के लिये बेट योर ने धिम्मित्व का नाम दिया था । एसिस्टेंट चीफ कान्सटेबल राबर्ट्स का हिजाब के प्रति उत्साह "" " अग्रणी धिम्मित्व" कहा जा सकता है]
हिजाब गुंडे ( जैसा कि इस्लामिस्ट वाच के डेविड जे रुसिन इन्हें कहते हैं) जो कि गैर मुस्लिम महिलाओं को आवृत्त रहने के लिये जोर डालते हैं यह तो इस्लामवादियों द्वारा पश्चिम पर शरियत थोपने की लम्बी प्रक्रिया का पहला चरण है। अन्य इस्लामवादी अपना ध्यान मुहम्मद और कुरान या इस्लामवादी संस्थाओं या आतंकवादी वित्तीयसहायता को लेकर निर्बाध बहस को बाधित करने पर देते हैं, इसके साथ ही कुछ इस बात पर जोर देते हैं कि करदाताओं के धन से चलने वाले विद्यालय, अस्पताल और कारागारों को इस्लामी विधि के अनुरूप बनाया जाये और टैक्सी या नगरपालिकाओं के तरणताल या स्विमिंग पूल का कहना ही क्या? इनके प्रयास सदैव सफल नहीं होते परंतु कुल मिलाकर ये तेजी से पश्चिम के आधार को परिवर्तित कर रहे हैं और विशेष रूप से ब्रिटिश जीवन को।
यदि सूअर के माँस पर लौटें तो इस्लाम और यहूदी दोनों ही सूअर के माँस को प्रतिबंधित करते हैं इसलिये इस प्रतिबंध के आधार पर दोनों ही मजहबों की प्रत्यक्ष तुलना आवश्यक है। सामान्य रूप से कहें तो यहूदी यह स्वीकार करते हैं कि गैर यहूदी सूअर का माँस खा सकते हैं जबकि मुस्लिम सूअर माँस को किसी को भी खाने से रोकने का प्रयास करते हैं। संक्षेप में इस आधार पर व्याख्या हो जाती है कि पश्चिम द्वारा हलाका को आत्मसात कर लेने की कोई प्रासंगिकता इसके साथ नहीं है कि शरियत के साथ कैसा व्यवहार हो। साथ ही आखिर क्यों सार्वजनिक नीति के तौर पर शरियत का विरोध होना चाहिये?