अब जबकि हमास ने फिलीस्तीनी चुनाव में प्राय: विजय प्राप्त कर ली है तो पश्चिम अपने ही जाल फंस गया दिखता है. एक ओर तो हमास एक आतंकवादी संगठन है जिसने निर्लज्जतापूर्वक इजरायलवासियों को अपना निशाना है और यहूदी राज्य के विनाश की बात कही है तो दूसरी ओर इसने पर्यवेक्षकों की द्रष्टि में एक साफ सुथरे चुनाव में विजय प्राप्त कर मतपेटियों के माध्यम से स्वीक्रति प्राप्त कर ली है. प्रत्येक विदेश मन्त्रालय के समक्ष दुविधा की स्थिति है –इसको नरम बनायें या फिर इसको अतिवादी मानकर इसका परित्याग कर दें.हमास के सदस्यों से मिला जाये या उनकी अवहेलना की जाये.फिलीस्तीनी अथारिटी को सहायता जारी रखी जाये या फिर इसे सहायता से वंचित कर दिया जाये.
यह दुतरफा बन्धन हमारा ही बनाया हुआ है क्योंकि अमेरिका के नेत्रत्व में पश्चिम की प्रत्येक सरकार ने मध्यपूर्व की समस्या के समाधान के लिये द्विभुजीय पहल की. इसमें नकारात्मक पहल आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की थी. आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध जारी है,जिसमें क्षेत्र में सेनायें तैनात हैं.वित्तीय कानूनों को कङा कर दिया गया है और जासूसी उपकरणों को सक्रिय कर दिया गया है.
इस पहल का सकारात्मक पक्ष लोकतन्त्र को आगे बढाना है.ऐतिहासिक आंकङे इस बात की पुष्टि करते हैं कि लोकतान्त्रिक देश आपस में युद्ध नहीं करते और सम्पन्न रहते हैं.इसलिये मध्यपूर्व के रोग निवारण के लिये इन डाक्टरों की नजर में चुनाव औषधि है.परन्तु इस समस्याग्रस्त क्षेत्र में यह मिश्रण असफल रहा. फिलीस्तीनी अथारिटी में सम्पन्न प्रथम चुनाव में हमास को सत्ता प्राप्त हो गई. दिसम्बर 2005 में मिस्र के मतदाताओं ने उदारवादी तत्वों के स्थान पर कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदरहुड का समर्थन किया था.ईराक में भी सद्दाम हुसैन के पश्चात मतदाताओं ने ईरान परस्त इस्लामवादी को प्रधानमन्त्री के रुप में चुना.लेबनान में भी सीरिया की सेना की वापसी का स्वागत करते हुये लोगों ने हिजबुल्लाह की सरकार चुनी. इसी प्रकार सऊदी अरब और अफगानिस्तान में भी कट्टरपंथी तत्वों ने चुनावों में सफलता प्राप्त की.
संक्षेप में चुनावों के पश्चात पश्चिम के खूंखार शत्रु सत्ता प्राप्त करते जा रहे हैं. आखिर क्या गलती हो रही है. आखिर जो लोकतान्त्रिक नुस्खा जर्मनी, जापान और पहले के लङाकू देशों के साथ सफल हुआ था वह मध्यपूर्व में काम क्यों नहीं कर रहा है?
इस अन्तर के लिये इस्लाम या अन्य कोई सांस्क्रतिक तत्व उत्तरदायी नहीं है वरन् तथ्य यह है कि मध्यपूर्व के विचारधारागत शत्रु को परास्त नहीं किया जा सका हैं. जर्मनी, जापान और सोवियत संघ में लोकतन्त्रीकरण जब हुआ उससे पहले वहां की जनता अधिनायकवाद की बुराइयों को झेल चुकी थी . 1945 और 1991 में उन्हें पता चल चुका था कि फासिज्म और कम्युनिज्म से उन्हें किन समस्याओं का सामना करना पङा है और उसके बाद वे नये रास्तों के लिये प्रयासरत थे. मध्यपूर्व में ऐसी स्थिति नहीं है. यहां अधिनायकवादी प्रलोभन काफी शक्तिशाली है. एकमात्र और महत्वपूर्ण अपवाद ईरान को छोङकर इस क्षेत्र के समस्त मुस्लिम इस्लामवादियों के नारे ‘इस्लाम ही समाधान है’ के साथ उनके कार्यक्रमों की ओर आकर्षित हो रहे हैं. 1979 में ईरान में यही हुआ. 1992 में अल्जीरिया में. 2002 में तुर्की में और अब इस सप्ताह फिलीस्तीनी अथारिटी में. इस परिपाटी का पश्चिम की सरकारों पर भी कुछ प्रभाव पङने वाला है. प्रक्रिया धीमी होगी .- यह देखते हुए कि मध्यपूर्व में लोकतंत्र की दिशा में अधीरता से बढने के कारण उल्टे परिणाम हो रहे हैं और खूंखार शत्रुओं को सत्ता में आने का मौका मिल रहा है . लंबी योजना की तैयारी होगी . लोकतंत्र का लक्ष्य कितना भी योग्य क्यों न हो लेकिन इसे पूरा होने में कई दशक लग जायेंगे.
कट्टरपंथी इस्लाम को पराजित करो, जब मुसलमान देखेंगे कि यह रास्ता असफलता की ओर जाता है तभी वे विकल्पों के लिए तैयार होंगे.
स्थिरता की सराहना होगी – स्थिरता ही अपने में अंतिम लक्ष्य नहीं होना चाहिए लेकिन इसके अभाव से अव्यवस्था और कट्टरता पनपती है .
हमास की विजय से उत्पन्न हुई दुविधा की ओर लौटते हैं, पश्चिम की राजधानियों को चाहिए की वे फिलीस्तीनियों को बतायें कि उनका यह निर्णय सभ्य विश्व को वैसे ही अस्वीकार्य है जैसे 1933 में जर्मन लोगों द्वारा हिटलर का चुनाव. हमास नीति फिलीस्तीनी अथॉरिटी को हर मोड़ पर अलग – थलग और अस्वीकार करना चाहिए ताकि फिलीस्तीनियों को अपनी भूल का आभास हो .