पोप के बयान पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया एक ऐसी परिपाटी में सटीक बैठती है जो 1989 से निर्मित होकर बलवती हो रही है. तब से लेकर अब तक छह ऐसे अवसर आये हैं जब पश्चिम के किसी कथन से मुस्लिम विश्व में हिंसा या वहाँ से धमकी को प्रोत्साहन मिला है. इन अवसरों पर दृष्टि डालना उपयोगी होगा.
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1989- में सलमान रशदी के उपन्यास द सेटेनिक वर्सेज को इस्लाम, पैगम्बर और कुरान के विरूद्ध बताकर अयातोला खोमैनी ने रशदी और उपन्यास के प्रकाशक के विरूद्ध मौत का फतवा जारी किया. उसके बाद आरम्भ हुई हिंसा में बीस लोगों की मृत्यु हुई और उनमें भी अधिकतर मृत्यु भारत में हुई.
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1997- में अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख कक्ष में मोहम्मद को कानून प्रदाता के रूप में प्रदर्शित करते हुये 1930 के एक चित्र को न्यायालय ने हटाने से इन्कार कर दिया. काउन्सिल आन अमेरिकन इस्लामिक रिलेशन्स ने इसे एक मुद्दा बनाया और उसके भारत में हुये दंगों में लोग घायल हुये.
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2002- अमेरिका के धर्मान्तरण समर्थक जेरी फालवेल ने मोहम्मद को आतंकवादी बताया जिसके बाद चर्च को जलाने की घटनायें हुईं और भारत में 10 लोग मारे गये.
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2005- न्यूजवीक में एक गलत रिपोर्ट छपने के बाद कि ग्वान्टेनामो बे स्थित अमेरिका के पूछताछ अधिकारियों ने संदिग्ध आतंकवादियों को उकसाने के क्रम में कुरान को शौचालय में डाल दिया. पाकिस्तान के प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान ने इस विषय को उठाया जिसके बाद मुस्लिम विश्व में विरोध हुये जिसके चलते 15 लोग मारे गये.
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फरवरी 2006- डेनमार्क के समाचार पत्र जायलैण्ड्स पोस्टेन ने मोहम्मद के 12 कार्टून प्रकाशित किये जिसके बाद कोपेनहेगन स्थित फिलीस्तीनी अरब इमाम अहमद अब्दुल रहमान अबू लबान ने मुसलमानों को डेनमार्क की सरकार के विरूद्ध उत्तेजित किया . उसे इस कार्य में सफलता मिली और सैकड़ों लोग मारे गये विशेषरूप से नाइजीरिया में.
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सितम्बर 2006- पोप बेनेडिक्ट 16 ने पूर्वी रोमन सम्राट के विचार को उद्धृत किया कि इस्लाम में जो कुछ नया है वह बुराई और अमानवीयता है. इसकी प्रतिक्रिया में चर्च पर बम फेंके गये और ईसाइयों की हत्या की गई.
ये छह चरण आवृत्ति के हिसाब से दुगुने प्रकृति के रहे हैं. प्रथम चरण और द्वितीय चरण के मध्य 8 वर्ष का अन्तर , फिर 3 वर्ष, 1 वर्ष और फिर छह महीने.
प्रथम उदाहरण-अयातोला खोमैनी का रशदी के विरूद्ध आदेश सभी के लिये चौंकाने वाला था क्योंकि किसी को कल्पना नहीं थी कि एक तानाशाह ब्रिटेन में बैठे एक नागरिक को बता सकता है कि उसे क्या नहीं लिखना चाहिये. 17 वर्षों पश्चात पोप की मौत का आह्वान उसी प्रकार की प्रवृत्ति का प्रदर्शन करता है. यह आक्रोश दिनचर्या का अंग बन गया है और अवश्यंभावी दिखता है. जैसे-जैसे मुस्लिम जागरूकता बढ़ रही है उस तुलना में पश्चिम के लोग शान्त होते जा रहे हैं.
यूरोप में आरम्भ हुई घटनाओं ( रशदी, डेनमार्क के कार्टून और पोप) ने अमेरिका ( सुप्रीम कोर्ट, फालवेल और शौचालय में कुरान) में घटित घटनाओं से अधिक व्यापक स्वरूप ग्रहण किया जो इस बात को प्रदर्शित करता है कि इस्लामवादी आक्रामकता अमेरिका की अपेक्षा यूरोप के विरूद्ध अधिक तीव्र है.
इस्लामवादी इन मामलों के नाजुक पक्ष की अवहेलना करते हैं जैसे रशदी की चमत्कारिक वास्तविकता , सुप्रीम कोर्ट के चित्र का सकारात्मक आशय, कुरान के शौचालय में डालने के समाचार की असत्यता, डेनमार्क के कार्टूनों का मजाकिया पक्ष . इनमें से किसी पर भी ध्यान नहीं दिया गया.
मुसलमानों की भीड़ किससे उत्तेजित होती है और किससे नहीं यह भविष्यवाणी कर पाना अत्यन्त कठिन है. द सेटेनिक वर्सेज अनेक मध्यकालीन , आधुनिक या सामयिक लेखन की तुलना में मुस्लिम भावना के लिये उतना आक्रामक नहीं था. अनेक अमेरिकी धर्मान्तरण समर्थकों ने मोहम्द के सम्बन्ध में फालवेल से भी अधिक बुरी चीजें कही हैं. दक्षिणी प्रचारक जेरी विनेस ने मुस्लिम पैगम्बर को कामुक कहा था जिसकी बारह पत्नियाँ थीं, परन्तु इस पर कोई हिंसा नहीं हुई. आखिर नार्वे के प्रचारक रूनार सोगार्ड द्वारा मोहम्मद को एक भ्रमित कामुक कहने पर यह विवाद स्थानीय ही क्यों बना रहा और डेनमार्क के कानून का विवाद वैश्विक बन गया?
इसका एक सामान्य उत्तर है कि अन्तरराष्ट्रीय पहुँच वाले इस्लामवादी( खोमैनी, सी. ए. आई.आर, इमरान खान , अबू लबान) सामान्य असन्तोष को क्रियात्मक रूप में परिवर्तित कर देते हैं. यदि कोई इस्लामवादी विरोध नहीं करता तो विषय अपेक्षाकृत शान्त रहता है.
हिंसा की सीमा के सम्बन्ध में भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती- कोई भी पूर्वानुमान नहीं कर सकता कि कार्टून में अधिक लोग मारे जायेंगे जबकि पोप के बयान पर कम से कम. और भारत में सबसे अधिक हिंसा क्यों?
इन घटनाओं से मुसलमानों में व्यवहार के प्रतिफल का पूरी तरह अभाव दिखता है. सउदी सरकार ने बाइबिल, क्रास, डेविड के तारे पर प्रतिबन्ध लगा दिया है, उधर मुसलमान नियमित रूप से कार्टून प्रकाशित कर यहूदियों को अपमानित करते हैं.
इन छह चरणों की आक्रामकता और उत्तेजना के पीछे कोई षड़यन्त्रकारी सिद्धान्त कार्य नहीं कर रहा है परन्तु आपस में मिलकर ये डराने का बहुत बड़ा अभियान है जिसमें और अभियान आने शेष हैं. इसके पीछे मूल सन्देश है- “पश्चिमवासियों इस्लाम के सम्बन्ध में जो चाहो कहो यह कहने का विशेषाधिकार तुम्हें नहीं है. पैगम्बर,कुरान और इस्लामी कानून से तुम भी शासित होते हो”. यह सन्देश बारम्बर लौटता रहेगा जब तक पश्चिमवासी समर्पण नहीं कर देते या मुसलमानों को आभास न हो जाये कि उनके प्रयास असफल हो गये हैं.
27 सितम्बर 2006 अपडेट- कुछ पाठकों ने इन छह चरणों से परे भी कुछ श्रेणियाँ भेजी है. वे इस प्रकार हैं-
- हालैण्ड के फिल्म निर्माता थियो वान गाग की नवम्बर 2004 में हत्या
- बांग्लादेश की डाक्टर और लेखिका तसलीमा नसरीन का उत्पीड़न
परन्तु इनमें से कोई भी न तो उस परिपाटी का है और न ही पश्चिमवासियों का कार्य या बयान इसमें शामिल है जिससे मुस्लिम विश्व में हिंसा भड़की हो. केवल दो व्यक्तियों को निशाना बनाया गया. एक तीसरा मामला इस परिपाटी के निकट है जो नाइजीरिया का है. यहाँ का मामला पश्चिम से कुछ भिन्न है.
इसियोमा डैनियल ने नवम्बर 2002 में दिस डे समाचार पत्र में एक लेख लिखा जिसमें विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता की प्रतिभागी सुन्दरियों के मुस्लिम विरोध का उत्तर देते हुये उसने कहा, “ मोहम्मद क्या सोचते? पूरी ईमानदारी से इनमें से किसी एक को अपनी पत्नी चुन लेते. ” इसके बाद मुस्लिम ईसाई हिंसा आरम्भ हुई जिसमें 200 लोग मारे गये और हजारों लोग बेघर हो गये. इसके अतिरिक्त समाचार पत्र के कार्यालय को भी आग लगा दी गई.