अधिकाँश लोग इस बात पर अत्यन्त प्रसन्न हैं कि त्रिपोली में विद्रोही प्रवेश कर चुके हैं और गलत, अस्वाभाविक और घृणास्पद मुवम्मर अल कद्दाफी का राजनीतिक अंत निकट है। परंतु मैं इस प्रसन्नता में शामिल नहीं हूँ । उसके कारण निम्नलिखित हैं।
मार्च2011 में जब नाटो का हस्तक्षेप हुआ तब इस बात पर अधिक कार्य नहीं किया गया कि बेजगाजी में उसे किसे सहयोग प्रदान करना है। आज तक उनकी पहचान का रहस्य बना हुआ है। इस बात की अधिक सम्भावना है कि इनके पीछे इस्लामवादी शक्तियाँ छुपी हों और सही मौके की तलाश में हों जैसा कि 1978 79 में ईरान में हुआ था जबकि शाह के पूरी तरह सत्ता से बाहर होने तक इस्लामवादियों ने अपनी ताकत और कार्यक्रम को गोपनीय रखा । आज यही स्थिति लीबिया की भी हो सकती है, कि बुरा कद्दाफी अपने उत्तराधिकारियों से कहीं अधिक सही सिद्ध हो लीबिया की जनता और पश्चिम दोनों के लिये ही।
मैं आशा करता हूँ कि मेरा अनुमान गलत हो और विद्रोही आधुनिक और उदारवादी हों। परंतु मुझे भय है कि तानाशाह की समाप्ति के साथ ही उसका स्थान एक वैश्विक विचारधारा आन्दोलन के अभिकर्ता ( एजेण्ट) ग्रहण कर लेंगे। मुझे भय है कि पश्चिमी शक्तियों ने सभ्यता के सबसे बुरे शत्रुओं को सत्ता में ला दिया है।
23 अगस्त , 2011 अपडेट: क्लेर बरलिंस्की ने इस पर उत्तर देते हूए प्रश्न किया:
हमें सही रूप से कैसे पता चला चले कि नाटो ने पूरी बुद्धिमत्ता से कार्य नहीं किया? अपने खुफिया कार्यक्रम के परिणामों को सार्वजनिक करने से वे अपने सूत्रों और शक्ति को खतरे में डाल सकते थे? मैं नहीं मानता कि उन्होंने सही ढंग से कार्य नहीं किया:मझे नहीं पता इसलिये कह नहीं सकता और मूल रूप से तो यही लगता है कि मैं नहीं जानता। मैंने अपनी सरकार के साथ लोकतांत्रिक समझौता किया है। समस्त विश्व से कुछ चीजें गुप्त रखने में मेरा विश्वास है। मैं अन्य देशों के साथ भी ऐसी ही संधियों में विश्वास करता हूँ ।
यह एक उपयुक्त प्रश्न है। मैं अमेरिकी सरकार की आन्तरिक नीतियों के बारे में उतना नहीं जानता जितना बरलिंस्की जानते हैं परंतु मैं तात्कालिक, दौड भरी उस अनियमित चीज को अवश्य देखता हूँ जिसके आधार पर पश्चिमी देशों ने विद्रोहियों का साथ दिया।
1 अप्रैल 2011 के न्यूयार्क टाइम्स के एक महत्वपूर्ण लेख में जो कि स्टीवेन एरलांगर ने लिखा था और इसका शीर्षक था By His Own Reckoning, One Man Made Libya a French Cause, उसमें फ्रांस द्वारा इस युद्ध में जाने के निर्णय के विषय में बर्नार्ड हेनरी लेवी की भूमिका पर विचार हुआ जिसके चलते बाद में अमेरिका ने भी निर्णय लिया।
मात्र दो सप्ताह के भीतर श्रीमान लेवी ने लीबिया के विद्रोही गुट को फ्रांस के राष्ट्रपति और अमेरिका के विदेश मंत्री से भेंट करा दी जिस प्रक्रिया के चलते ही दोनों देशों और नाटो ने कर्नल मुवम्मर अल कद्दाफी के विरुद्ध युद्ध छेड दिया।
श्रीमान लेवी ने इस बात का खंडन नहीं किया है कि उन्होंने लीबिया के विद्रोही अंतरिम राष्ट्रीय परिषद के सदस्यों को बेनगाजी से बुलाकर पेरिस में 10 मार्च को राष्ट्रपति निकोलस सारकोजी से भेंट कराई जिसमें कि सारकोजी ने सुझाव दिया कि इस परिषद को फ्रांस लीबिया के सरकार की मान्यता दे दे जिसपर परिषड के लोगों ने सारकोजी को चेतावनी दी कि " बेनगाजी में जो भी खून खराबा होगा और बेनगाजी में जो लोगों का खून बहेगा उसका दाग फ्रांस के ध्वज पर लगेगा"
25 अगस्त, 2011 अपडेट : एक पाठक ने 10 मार्च 2011 के मेरे विश्लेषण की ओर ध्यान दिलाया , " मानवीय, राजनीतिक और आर्थिक कारणों के चलते लीबिया में किसी संशय की गुंजायश नहीं रह जाती। अंतरराष्ट्रीय अधिकार के चलते अमेरिकी सरकार को अपनी परम्परागत भूमिका का निर्वाह करना चाहिये और लीबिया के विरोधियों की सहायता करनी चाहिये। सहजता से आधे वर्ष पूर्व मैंने बेनगाजी में कद्दाफी शासन के हाथों लोगों की रक्षा करने की बात की थी परंतु मैंने कद्दाफी को सत्ता से बाहर करने के लिये विद्रोहियों की सहायता की बात नहीं कही थी। निश्चित ही जून तक मैं इस उद्देश्य के विरुद्ध हूँ ।