विश्व में सबसे लम्बे समय तक किसी राज्य पर शासन करने वाले मुवम्मर अल कद्दाफी ( उसके नाम का सही भाषांतर) 1 सितम्बर को लीबिया पर शासन करते हुए पूरे 42 वर्ष पूरा कर लेते। अब जबकि वे परिदृश्य से लुप्त हैं तो उनके कष्टदायक शासन पर एक दृष्टि डाल लेना उचित होगा।
कद्दाफी ने 27 वर्ष की अवस्था में मिस्र के अत्यंत प्रभावी व्यापक अरब नेता गमाल अब्दुल नसीर के अंतिम और पतनोन्मुख दिनों में सत्ता सँभाली उन्होंने स्वयं को नसीर का ही अवतार माना लेकिन कहीं अधिक बडी मह्त्वाकाँक्षा के साथ। एक ओर जहाँ नसीर ने एटलाँटिक से फारस की खाडी तक व्यापक एक अरब राष्टृ की कल्पना की थी और इसे ही अपना अंतिम स्वप्न माना था तो वहीं कद्दाफी ने अरब एकता को मुस्लिम एकता का पहला कदम माना। यद्यपि कद्दाफी किसी भी प्रकार की एकता के लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहा और 1975 में उसकी नीली पुस्तक में विस्तार से दिया गया " तृतीय विश्व सिद्दांत" पूरी तरह असफल रहा लेकिन दो प्रमुख घटनाक्रमों पर उसका आरम्भिक और ह्स्ताक्षरित प्रभाव अवश्य दिखा।
पहला, 1972 से आरम्भ हुए और अभी तक जारी ऊर्जा के दामों में वृद्धि में उसकी अत्यंत मह्त्वपूर्ण भूमिका रही। पेट्रोलियम उत्पाद और मूल्य निर्धारण में अंतरराष्ट्रीय तेल कम्पनियों के नियंत्रण को चुनौती देकर उसने शक्ति स्थानान्तरण पश्चिम के बोर्ड रूम से मध्य पूर्व के महलों मे कर दिया। विशेष रूप से कद्दाफी ने जो जोखिम लिये उसके कारण ही 173-74 में तेल की कीमतों में चार स्तर पर वृद्धि हुई।
दूसरा, कद्दाफी ने उस समय इस्लामी पुनरुत्थान का आरम्भ किया जो कि अभी तक जारी है। ऐसे समय में जबकि कोई इस बात के लिये तैयार नहीं था उसने बडे गर्व से ऐसा किया और काफी भडकाऊ अंदाज में इस्लामी उद्देश्य को आगे बढाया और विश्व भर के मुसलमानों को ऐसा ही करने को कहा और किसी भी गैर मुस्लिम के साथ संघर्ष में मुस्लिम का सहयोग किया।
कद्दाफी के लम्बे शासनकाल को चार कालों मे विभाजित किया जा सकता है। पहला और सबसे मह्त्वपूर्ण काल 1969 से 1986 का है जो कि अत्यंत कट्टर गतिविधियों से परिपूर्ण रहा जब वह उत्तरी आयरलैंड से लेकर दक्षिणी फिलीपींस तक अनेक संघर्षों में उलझता रहा। इस कभी न समाप्त होने वाली सूची में अस्वाभाविक रूप से 1980 में जिमी कार्टर को पुनः विजयी होने से रोकने के लिये उनके भाई बिली को धन देना , सीरिया के साथ राजनीतिक संघ की घोषणा , इराक के विरुद्ध ईरान की सैन्य सहायता, विवादित जल में तेल निकालने पर माल्टा को धमकी देना , साइप्रस की सरकार को लीबिया के रेडियो ट्रांसमीटर को स्वीकार करने के लिये रिश्वत देना, दक्षिणी चाड को नियंत्रण में लेने के लिये सैनिक भेजना और इसे अपने में मिलाने का प्रयास और नाइजीरिया में 100 लोगों की मृत्यु के लिये उत्तरदायी हिंसा करने वाले मुस्लिम गुट को सहायता देना।
लेकिन इन प्रयासों को कोई परिणाम नहीं हुआ। जैसा कि 1981 में अपने अनुमान में मैंने लिखा था " कद्दाफी के सत्ता अपदस्थ प्रयास से एक भी सरकार अस्थिर नहीं हुई , किसी भी विद्रोही सेना को सफलता नहीं मिली, कोई भी अलगाववादी कोई नया राज्य स्थापित करने मे सफल नहीं हुआ, कोई भी आतंकवादी अभियान लोगों की संकल्पशक्ति को तोड नहीं पाया, एकता का कोई अभियान सफल नहीं हुआ और कोई भी देश लीबिया को छोडकर " तीसरे सिद्धांत" का अनुपालन नहीं कर रहा है। कद्दाफी कोई सफलता प्राप्त नहीं कर सका और उसे कटुता और विनाश का ही सामना करना पडा। इन प्रयासों की विफलता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है"।
पहले युग का अवसान 1986 में बर्लिन के एक डिस्कोथेक में हुए बमविस्फोट के बदले में अमेरिका द्वारा की गयी बमवर्षा से हुआ और ऐसा प्रतीत होता है कि इस घटना ने कद्दाफी के मानसपटल पर गहरा प्रभाव डाला। उसका दुस्साहस नाटकीय ढंग से लुप्त हो गया और उसने अफ्रीका की ओर रुख किया और सामूहिक विनाश के हथियार तैयार करने की मह्त्वाकाँक्षा पाल ली। जैसे जैसे विश्व पटल पर उसका प्रभाव क्षीण होता गया उस पर ध्यान कम होता गया।
तीसरा कालखंड 2002 में आरम्भ हुआ जब डरे कद्दाफी ने 1988 में पैन एम विमान को मार गिराने में लीबिया की भूमिका के लिये क्षतिपूर्ति के रूप में धन दिया और अपनी परमाणु मह्त्वाकाँक्षा त्याग दी। यद्यपि उसके शासन का मूल स्वभाव वैसा ही रहा लेकिन वह पश्चिम में स्वीकार्य बन गया जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और अमेरिका के विदेश मंत्री ने लीबिया में उसे सम्मान दिया।
चौथा और अंतिम कालखण्ड इस वर्ष आरम्भ हुआ जब बेनगाजी में विद्रोह आरम्भ हुआ, जब कद्दाफी अपने शासन के आरम्भिक दिनों की क्रूरता की और लौट गया और अंतरराष्ट्रीय अपेक्षाओं के अनुरूप बनाई गयी अपनी नवीन छवि को पूरी तरह किनारे कर दिया। जब उसका शासन संतुलित स्थिति में था तो उसकी दुष्टता और सनक केंद्रीय भूमिका में आ गया और उसका परिणाम अत्यंत विनाशकारी रहा क्योंकि बडी संख्या में लीबियावासी उसे, उसके परिवार, शासन और उसकी विरासत को अस्वीकार करने लगे।
दशकों के उत्पीडन और धोखेबाजी के बाद लीबियावासियों के पास इस गलत विरासत को अस्वीकार करने की चुनौती है। उन्हें मानसिक असुन्तलन, असमानता और तोडी मरोडी स्थिति से स्वयं को मुक्त करने के लिये संघर्ष करना होगा। जैसा कि न्यूयार्क के एंड्रयू सोलोमन ने समस्या को संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त किया है, " लीबियावासी कद्दाफी के अत्याचार और धोखे से तो बाहर आ जायेंगे लेकिन Great Socialist People's Libyan Arab Jamahiriya में जीवन की निरर्थकता से बाहर आने में काफी लम्बा समय लगेगा" ।
निश्चय ही।