वर्ष 2011 में अरब की उथल पुथल से प्रेरित पश्चिमी प्रतिक्रिया अत्यन्त असंगत रूप में सामने आयी। उदाहरण के लिये क्या कोई एक ओर बहरीन में विद्रोह को कुचलने के प्रयास का समर्थन करने और वहीं दूसरी ओर मिस्र में इसी प्रकार के विद्रोहियों का समर्थन करने को न्यायसंगत सिद्ध कर सकता है? या फिर लीबिया में एक ओर सरकार के आक्रमण से विद्रोहियों को बचाने के प्रयास का तो वहीं दूसरी ओर सीरिया में इसी प्रकार से सरकारी आक्रमण में विद्रोहियों का साथ न देने का? यमन में तो इस्लामवादियों द्वारा नियंत्रण स्थापित करने के प्रयास का विरोध करना तो ट्यूनीशिया में ऐसे प्रयास पर चुप रहना।
इस प्रकार की तदर्थ रणनीति अक्षमता से कहीं अधिक गम्भीर तथ्य को प्रतिबिम्बित करती है और यह है एक ऐसे क्षेत्र को लेकर रचनात्मक योजना का अभाव जिसमें कि कुछ को छोड्कर( साइप्रस, इजरायल और ईरान) अधिकाँश रूप से जनता पश्चिम के प्रति शत्रुवत भाव रखती है। इस क्षेत्र में मित्रों की संख्या अत्यंत सीमित है और वे भी शक्तिहीन हैं और उनके नियंत्रण स्थापित करने की सम्भावना भी अत्यंत क्षीण है। इसलिये ऐसे क्षेत्र में लोकतन्त्र अंततः अमित्र सरकारों के साथ शत्रुवत सम्बंधों के रूप में सामने आता दिखता है।
2005 में सम्पन्न हुए पहले निर्वाचन की लहर और अब ट्यूनीशिया में आरम्भ हुई दूसरी लहर से यह बात प्रमाणित होती है कि यदि स्वतंत्र चयन की सुविधा दी जाये तो मध्य पूर्व की बहुतायत जनता इस्लामवादियों के पक्ष में मतदान करती है। गतिशील, सांस्कृतिक रूप से प्रमाणित और दिखने में लोकतांत्रिक ये शक्तियाँ अनेक अभूतपूर्व विविध राजनीतिक विचार को अग्रसारित करते हैं और कुल मिलाकर अनेक परिणामों से युक्त केवल मुस्लिम राजनीतिक आंदोलन की संरचना करते हैं।
लेकिन इस्लामवाद तीसरी अधिनायकवादी विचारधारा है ( फासीवाद और कम्युनिज्म के साथ)। यह आधुनिक जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिये अत्यंत मूर्खतापूर्ण ढंग से मध्यकालीन संहिता प्रस्तुत करता है। अत्यन्त पिछडे और आक्रामक रूप से यह गैर मुस्लिम को अप्रतिष्ठित करता है, महिलाओं का उत्पीडन करता है तथा मुस्लिम शासन के विस्तार के लिये शक्ति प्रयोग को न्यायसंगत सिद्ध करता है। मध्य पूर्व के लोकतन्त्र से न केवल पश्चिम की सुरक्षा वरन इसकी सभ्यता को भी खतरा है।
यही कारण है कि पश्चिमी नेताओं ने ( जार्ज डब्ल्यू बुश के अपवाद को छोड्कर ) मुस्लिम मध्य पूर्व में लोकतंत्र को आगे बढाने से किनारा किया।
इसके विपरीत क्षेत्र के अनिर्वाचित राष्ट्राध्यक्ष , राजा और अमीर पश्चिम के लिये कहीं कम बडा खतरा थे। अमेरिका ने मुवम्मर अल कद्दाफी को दबाकर और अमेरिका नीत सेना द्वारा सद्दाम हुसैन को ह्टा दिये जाने के बाद इस क्षेत्र के अहंकारी शासक 2003 तक लगभग समाप्त हो गये और यहाँ के ताकतवर लोगों ने कुल मिलाकर यथास्थिति को स्वीकार कर लिया। उन्होंने शान्तिपूर्वक अपनी जनता पर अत्याचार करने और अपने विशेषाधिकारों का उपभोग करने से अधिक किसी बात की इच्छा नहीं की।
एक वर्ष पूर्व पश्चिमी नीतिनिर्धारक इस क्षेत्र का सर्वेक्षण कर इस बात पर संतोष व्यक्त कर सकते थे कि वे सीरिया को छोडकर शेष सभी अरब भाषी देशों की सरकारों के साथ कार्यवाहक सम्बंध का उपभोग कर कर रहे हैं। हालाँकि यह चित्र भी बहुत सुखद नहीं था परंतु कामचलाऊ था । शीतयुद्ध के खतरे कमजोर हो चुके थे और इस्लामवादियों को काफी कुछ नियंत्रित किया जा चुका था।
वैसे तो लोभी और क्रूर उत्पीडक शासक पश्चिम के लिये दो समस्यायें प्रस्तुत करते हैं। राष्ट्रीय हितों के ऊपर अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं पर अधिक ध्यान देकर वे अन्य समस्याओं के लिये आधार तैयार करते हैं जिनमें आतंकवाद से लेकर अलगाववाद और विद्रोह तक शामिल हैं, साथ ही अपनी प्रजा का उत्पीडन कर वे पश्चिमवासियों की संवेदना पर भी प्रहार करते हैं। आखिर जो स्वतन्त्रता , व्यक्तिवाद और विधि के शासन को आगे बढाता है वह उत्पीडन का समर्थन कैसे कर सकता है?
मध्य पूर्व में 1970 के बाद से पूरी तरह उत्पीडन का राज रहा है जब शासकों ने यह सीख लिया कि किस प्रकार स्वयं को पूर्ववर्ती शासकों की तरह अपदस्थ होने से बचाना है। हाफिज अल असद, अली अब्दुल्लाद सालेह, होस्नी मुबारक के साथ अल्जीरिया के शासन ने पूरी तरह जड्ता का शासन स्थापित किया।
इसके बाद पिछले दिसम्बर माह में ट्यूनीशिया के छोटे से शहर सिदी बौजिद ( 40,000 जनसन्ख्या वाले)में एक तितली ने अपना पंख फडफडाया जब एक पुलिसकर्मी ने एक फल विक्रेता को झापड मार दिया। इसकी प्रतिक्रिया में 11 माह के भीतर तीन उत्पीडक शासकों को शासन से बाहर कर दिया गया जबकि दो अन्य गम्भीर संकट का सामना कर रहे हैं।
मध्य पूर्व को लेकर पश्चिम की नीतिगत उलझन को संक्षेप में इस प्रकार देखा जा सकता है।
- लोकतंत्र हमें प्रसन्न तो करता है परन्तु शत्रुभाव के तत्वों को सत्ता में लाता है।
- उत्पीडन हमारे सिद्धांतों के प्रतिकूल है परन्तु इससे ऐसे लोग सत्ता में रहते हैं जिनके साथ समायोजन सम्भव है।
जैसे ही निहित स्वार्थ सिद्धांत से टकराता है वैसे ही संगतता हाथ से निकल जाती है। नीति दो परस्पर विरोधी ध्रुवों पर अटक जाती है। पश्चिम के नीतिनिर्माता कुछ प्रकार की चिन्ता को प्राथमिकता देते हैं जैसे सुरक्षा हित ( बहरीन में स्थित अमेरिका की पाँचवी फ्लीट) व्यावसायिक हित ( सउदी अरब में तेल), भौगोलिक स्थिति ( यूरोप आधारित वायु सेवा के लिये लीबिया आदर्श क्षेत्र है) , पडोसी ( सीरिया में तुर्की की भूमिका) या फिर आपदा को परे रखना ( यमन में जैसी आशंका है) । ऐसे में यह आश्चर्य नहीं है कि नीतियाँ पूरी तरह गडबड हैं।
नीतिगत सुझाव अपेक्षित हैं और यहाँ मेरी ओर से तीन सुझाव रखे जा रहे हैं:
ऐसे उत्पीडक शासक जिनमें विचारधारा और मह्त्वाकाँक्षा का अभाव है और उनके साथ समायोजन सम्भव है उन्हें सुधारने का प्रयास होना चाहिये । यह आसान कार्य होगा और इसलिये सभी को एकसाथ उनपर दबाव डालना चाहिये कि वे अधिक खुलापन लायें।
इस्लामवादियों का सदैव विरोध होना चाहिये चाहे वे यमन में अल कायदा श्रेणी के हों या फिर उदार और भद्र दिखने वाले ट्यूनीशिया के हों। वे शत्रु के प्रतिनिधि हैं। यदि आपके मन में कोई दूसरा विचार आये तो स्वयं से प्रश्न करिये कि क्या 1930 में उदार नाजियों के साथ सहयोग करना एक उपयुक्त विचार होता?
उदार, सेक्युलर और आधुनिक तत्वों की सहायता की जाये जिन्होंने सबसे पहले 2011 में उथल पुथल को प्रेरित किया था। उनकी सहायता की जानी चाहिये कि वास्तव में वे सत्ता में आयें ताकि वे राजनीतिक रूप से अस्वस्थ मध्य पूर्व को इसकी खतरनाक स्थिति से बचा सकें और इसे यहाँ से लोकतांत्रिक और मुक्त दिशा की ओर ले जा सकें।