मिस्र की चुनाव समिति के अनुसार मिस्र में हुए चुनावों के प्रथम चरण में मुस्लिम ब्रदरहुड ने 37 प्रतिशत मत प्राप्त किये हैं और सलाफी जो कि कहीं अधिक कट्टर इस्लामवादी कार्यक्रम को बढावा देते हैं उन्हें 24 प्रतिशत मत प्राप्त हुए हैं और इस प्रकार कुल मिलाकर दोनों को 62 प्रतिशत मत प्राप्त हुए हैं।
इस स्तब्ध कर देने वाले परिणाम से दो प्रश्न उठ खडे होते हैं : क्या यह वैधानिक परिणाम है या फिर कोई छेडछाड हुई है? क्या इस्लामवादी मिस्र पर नियन्त्रण स्थापित करने ही वाले हैं?
वैधानिक या छेडछाड? किसी ने भी कम्युनिष्टों की 99 प्रतिशत की वापसी की सम्भावना से आप्लावित सोवियत चुनावों को गम्भीरता से नहीं लिया था और जबकि मिस्र के चुनावों की प्रक्रिया और परिणाम कहीं कम त्रुटिपूर्ण हैं फिर भी इसी प्रकार की आशंका होती है। खेल कहीं अधिक अस्पष्ट है लेकिन फिर भी यह खेल है और देखना होगा कि यह कैसे खेला गया है:
मुस्लिम ब्रदरहुड ( 1928 में स्थापित) और सैन्य तानाशाही ( मिस्र पर 1952 से शासन कर रही है) दोनों की एक साथ की विचारधारा और लम्बा इतिहास है जो कि दोनों को एकसाथ प्रतिद्वन्दी और सहयोगी बनाता है। दशकों से दोनों ने एक दूसरे के साथ लुका छिपी के साथ ऐसी अधिनायकवादी पद्धति के लिये सहयोग किया है जो कि इस्लामी विधि ( शरियत) के आधार पर सम्बद्ध है और उदारवादी तथा सेक्युलर तत्वों का दमन करती है।
इस भावना के अंतर्गत अनवर अल सादात, होस्नी मुबारक और अब मोहम्मद तंतावी ने रणनीतिक रूप से इस्लामवादियों को एक उद्योग के तौर पर बढावा देकर पश्चिमी समर्थन, शस्त्र और धन प्राप्त किया। उदाहरण के तौर पर जब जार्ज डब्ल्यू बुश ने मुबारक पर अधिक लोकतांत्रिक भागीदारी के लिये दबाव डाला तो मुबारक ने उत्तर में सुनिश्चित किया कि मुस्लिम ब्रदरहुड की संसद में निर्वाचित सदस्य संख्या 88 हो गयी ताकि वाशिंगटन को चेतावनी दी जा सके कि लोकतंत्र इस्लामवादियों के नियंत्रण के बराबर है। गैर इस्लामवादियों की प्रत्यक्ष कमजोरी के चलते पश्चिम को भयभीत किया कि वह राजनीतिक भागीदारी के लिये आगे अधिक जोर न दे। लेकिन वर्ष 2005 में हुए चुनावों पर यदि बारीक नजर डालें तो हमें ज्ञात होगा कि शासन ने इस्लामवादियों की सहायता की थी कि वे कुल सीटों का 20 प्रतिशत प्राप्त कर सकें।
आज भी तंतावी और उनकी सुप्रीम काउंसिल आफ द आर्म्ड फोर्सेस वही पुराना घिसा पिटा खेल खेल रहे हैं। अनेक तरीके देखे जा सकते हैं : (1) निर्वाचन के दौरान गडबड की सूचनायें आयी हैं जैसे कि हेलवान में (2) प्रमुख इस्लामवादी सफवात हिजाजी के अनुसार सुप्रीम काउंसिल आफ द आर्म्ड फोर्सेस ने इस्लामवादियों के समक्ष एक सौदे का प्रस्ताव किया है कि वे उनके साथ सत्ता की भागीदारी के लिये तैयार हैं बशर्ते वे उनके भ्रष्टाचार की ओर से आंखें बंद कर लें।
(3) सेना ने मुस्लिम ब्रदरहुड और सलाफी राजनीतिक दलों को हाल के संसदीय चुनाव में काफी आर्थिक रियायतें प्रदान कीं। मार्क गिंसबर्ग ने एससीएएफ के काफी बडे आर्थिक कोष के बारे में बताया है जिसमें अनेक माध्यमों से जैसे कि वस्त्र और भोजन के रूप में लाखों डालर खर्च किये गये जिससे कि इस्लामवादी राजनीतिक संगठनों की स्थानीय ईकाइयाँ मतों को अपने पक्ष में करने में सफल रहीं। गिंसबर्ग के अनुसार एससीएएफ का दूत " गुप्त रूप से अप्रैल में मुस्लिम ब्रदरहुड और अन्य इस्लामवादी रुझान के राजनीतिक आंदोलन के प्रतिनिधियों से मिला था और स्थानीय राजनीतिक कार्य समिति के बैंक खाते स्थापित किये थे ताकि भूमिगत रूप से आर्थिक और द्रव्य सहायता प्रदान करने के लिये आपूर्ति कडी बनायी जा सके"।
मध्य पूर्व के अन्य तानाशाह जैसे यमन के राष्ट्रपति और फिलीस्तीनी अथारिटी के अध्यक्ष भी यह दोहरा खेल खेलते हैं और ऐसा दिखावा करते हैं कि वे इस्लामवादी विरोधी और उदारवादी हैं और पश्चिम के सहयोगी हैं जबकि वास्तव में वे इस्लामवादियों के साथ सहयोग करते है और वास्तविक उदारवादियों का दमन करते हैं। यहाँ तक कि पश्चिम विरोधी क्रूर शासक जैसे कि सीरिया में असद और लीबिया में कद्दाफी भी अनेक अवसरों पर अपने विरुद्ध होने वाले जनविप्लव को इस्लामवादी आंदोलन की संज्ञा दे देते हैं।( याद करें कि किस प्रकार कद्दाफी ने लीबिया के विद्रोह को अल कायदा से जोडने के लिये किशोरों की काफी में नशे की दवायें मिला दी थी)।
मिस्र पर नियंत्रण? यदि सेना सत्ता में बने रहने के लिये इस्लामवादियों के साथ समझौता करती है जो कि ऐसा करेगी और इस्लामवादी अंतिम रूप से पूरा नियंत्रण स्थापित नहीं करते। यह मुख्य बिंदु है जिसे कि परम्परागत विश्लेषक भूल जा रहे हैं: हाल के चुनाव परिणाम से सेना को सत्ता पर नियंत्रण का अवसर मिलता है। जैसा कि मिस्रके उदीयमान राजनेता मोहम्मद अल बरदेयी ने सही ही कहा है, " अभी तो सब कुछ एससीएसएफ के हाथ में है"।
यह सत्य है कि यदि इस्लामवादियों का संसद पर नियंत्रण होता है ( जो कि निश्चित नहीं है क्योंकि सेना अब भी आगे के चक्रों में उनका प्रतिशत घटा सकती है क्योंकि यहाँ निर्वाचन प्रक्रिया अत्यंत जटिल है और उसमें हेरा फेरी की सम्भावना है) तो उन्हें कुछ विशेषाधिकार प्राप्त होंगे और वे देश को शरियत की ओर उतनी दिशा में ही ले जायेंगे जितना कि एससीएएफ उन्हें अनुमति देगी। यह लम्बे समय से चले आ रहे इस्लामीकरण के रुझान को ही बनाये रखता है जो कि 1952 में सेना द्वारा सत्ता पर अधिकार किये जाने के बाद से ही जारी है।
पश्चिम की नीति का क्या? सबसे पहले तो एससीएएफ पर जोर डाला जाना चाहिये कि वह सिविल सोसाइटी का निर्माण करे जो कि वास्तविक रूप में लोकतंत्र की प्रस्तावना रखे , ताकि आधुनिक और उदारवादी नागरिकों को मिस्र में स्वयं को अभिव्यक्त करने का अवसर प्राप्त हो सके।
दूसरा, तत्काल प्रभाव से काहिरो को दी जाने वाली सभी आर्थिक सहायता बंद कर दी जानी चाहिये। यह पूरी तरह अस्वीकार्य है कि अप्रत्यक्ष रूप से ही सही लेकिन पश्चिम के आयकर दाताओं का धन मिस्र के इस्लामीकरण मे खर्च हो। इस आर्थिक सहायता को फिर से तभी आरम्भ किया जाना चाहिये जब सरकार सेक्युलर मुस्लिम,उदारवादी, काप्ट सहित अन्य लोगों को पूरी तरह स्वतंत्र रूप से स्वयं को अभिव्यक्त करने और संगठित करने की अनुमति प्रदान करे।
तीसरा, मुस्लिम ब्रदरहुड और सलाफी दोनों का विरोध किया जाना चाहिये। कट्टर चाहे कम हो या अधिक सभी प्रकार के इस्लामवादी हमारे प्रबल शत्रु हैं।