अमेरिकावासियों द्वारा समस्याग्रस्त मध्य पूर्व एवं इस्लाम के अकादमिक अध्ययन में मूलभूत परिवर्तन आ रहा है। इस सम्बन्ध में 42 वर्ष के अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कुछ विचार रख रहा हूँ :
पश्चिमी आक्रामकता से इस्लामी आक्रामकता: ईसाइयों के साथ मुस्लिम सम्बंधों को प्रमुख रूप से चार बडे कालखंडों में विभाजित किया जा सकता है: मुहम्मद के हिजरी से पहले क्रूसेड तक, 622 -1099 जब ईसाइयों की कीमत पर मुसलमानों का विस्तार हुआ , वियना की दूसरी घेराबंदी 1099- 1683 जिस युग में मुस्लिम विस्तार का मिश्रित प्रदर्शन रहा ( अनातोलिया में आगे बढे तो आइबेरिया में पीछे हटे) ) अरब के तेल का बहिष्कार , 1683- 1973 जब ईसाई आक्रामक रहे और 1973 के बाद से मुस्लिम आक्रामक हैं।
जब मैंने 1969 में मध्य पूर्व और इस्लाम के क्षेत्र में प्रवेश किया तो अमेरिकावासी पूरी तरह आधुनिक मुसलमानों पर पश्चिमी प्रभाव की ओर देख रहे थे परन्तु आज पश्चिम पर मुस्लिम प्रभाव पूरी तरह देखा जा सकता है जैसे कि अमेरिका में गुलामी की समस्या से स्वीड्न में माल्मो तक ।
अरब से मुस्लिम तक : मेरे विद्यार्थी काल में अरब, अरब जगत, अरब राजनीति , अरब राष्ट्रवाद और अरब समाजवाद जैसे शीर्षकों की पुस्तकों से प्रकाशन भरे पडे थे। हालाँकि समय के साथ अरब सम्बंधी इस नवीन अवधारणा का खोखलापन प्रमाणित होता गया। मैं उन लोगों में से था जिन्होंने सदैव तर्क दिया कि इस्लाम एकमात्र परिभाषक तत्व है और इसे सिद्ध करने के लिये मैंने अपने तीस वर्ष व्यतीत किये कि , " इस्लाम ही मुख्य रूप से मुसलमानों के राजनीतिक व्यवहार को स्वरूप प्रदान करता है" । उस समय इस तर्क को सशंकित भाव से लिया गया लेकिन अब यह समझ इतनी महत्वपूर्ण हो गयी है कि Amazon.com ने अपनी सूची में जिहाद पर अंग्रेजी में कम से कम 3,077 सामग्री की सूची दी है।
आलोचना से क्षमाभाव लेखन : इस बारे में मुझे कम ही पता था परंतु इस्लामी इतिहास के विषय को लेकर मैं पुनरुत्थान की ओर लौट चला। यदि 1969 की ओर लौटें तो विद्वान इस्लामी सभ्यता का सम्मान सामान्य तौर पर ( सदैव नहीं) पश्चिमी हाव भाव से करते थे। पुराने ढर्रे की शिक्षा के प्रतीक रूप में मध्य पूर्व के इतिहास के हमारे पहले प्रोफेसर ने जूलियस वेलहांसेन की पुस्तक Das arabische Reich und sein Sturz ( जिसका अंग्रेजी अनुवाद 1902 में प्रकाशित हुआ) को हमारे पहले कार्य के रूप में दिया।
उसके बाद क्रांति हुई। मार्टिन क्रेमर ने 1978 में एडवर्ड सेड द्वारा प्रकाशित Orientalism को मध्य पूर्व के अध्ययन में होने वाले परिवर्तन का श्रेय दिया मैं इसे विश्वविद्यालयों के तीव्र वामपंथी रुझान के परिणामकारक के रूप मे देखता हूँ। जो भी कारण रहा हो यह क्षेत्र पूरी तरह ढलान पर आ गया और पुनरुत्थानवादी, क्षमाप्रार्थी, निर्रथक और त्रुटिपूर्ण तृतीय विश्ववादी हो गया।
पुराने विशेषज्ञ पाठ्यक्रम से ह्टा दिये गये। हार्टफोर्ड संस्थान तीव्रता से " प्रोटेस्टेन्ट मिशनरी का प्रमुख केंद्र रहने के स्थान पर इस्लामीकरण को आगे बढाने वाले मुस्लिम जगत के केंद्र के रूप में परिवर्तित हो गया"। इस परिवर्तन का एक अंश जिहाद की अकादमिक समझ के रूप में समझा जा सकता है, एक ही पीढी में जिहाद की व्याख्या एक आक्रामक युद्ध नीति से नैतिक आत्म परिवर्तन के रूप में की जाने लगी। अकादमिक लोग अपने पूर्वाग्रह पूर्ण और निम्न स्तरीय अध्ययन के साथ सरकारों तक भी पहुँच गये।
अनेक अवसरों पर तो उनका अकादमिक कार्य भी उनके कार्य की नकल जैसा दिखने लगा जब अनेक विशेषज्ञों ने बेतुकी बातों को सिद्ध करना आरम्भ कर दिया जैसे कि इजरायल का प्राचीन इतिहास आधुनिक जायोनिस्ट ( इजरायलवादियों) प्रचार का परिणाम है, इस्लामवादी आंदोलन 1992 में असफल हो गया, अरब इजरायल विवाद का मूल कारण जल विवाद है, मध्य पूर्व में समलैंगिकों का अस्तित्व नहीं था। जिस प्रकार सेड को भावभीनी श्रद्धांजलि दी गयी उससे ज्ञात होता है कि किस प्रकार विशेषज्ञ उसके गुलाम हो गये।
जनता की उदसीनता से सहभागिता तक: मध्य पूर्व 2001 से ठीक पहले तक राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था और वह भी शीत युद्ध के तनाव, तेल के आयात, अरब इजरायल विवाद और ईरानी क्रांति के चलते। लेकिन अमेरिका के लोगों की इस क्षेत्र में रुचि 11 सितम्बर की घटना और उसके तत्काल बाद हुए अफगान और इराकी युद्ध तक सामान्य ही रही। इन घटनाओं के बाद आये उछाल से यह जागरूकता फैली कि इस क्षेत्र में अकादमिक कार्य अपर्याप्त है। क्रेमर जैसे विद्वान समालोचकों तथा कैम्पस वाच जैसे संगठनों की सहायता से जनता ने मध्य पूर्व के कट्टर विशेषज्ञों का विरोध आरम्भ कर दिया उदाहरण के लिये सक्रियता के साथ उनके कार्यकाल को बढने से रोककर। अन्य क्षेत्र में इसके समानांतर उदाहरण मिलना कठिन है।
नये रुझान से पुराने रास्ते तक: इस असफलता का एक और कारण लेखकों की उस असफलता में छुपा है जो कि अकादमिक जगत से बाहर है कि इस क्षेत्र को समझने के लिये विद्वान वर्ग 1980 से पूर्व की स्थिति का सहारा ले रहा है। इब्न बराक नामक छ्द्म नामधरी पूर्व मुस्लिम ने मुहम्मद के जीवन, कुरान की उत्पत्ति , इसके प्रकार और अर्थ पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित कीं जो कि सभी प्राचीन लेखन की पीढी पर आधारित थीं। एक मेडिकल शोधार्थी एंड्रयू बोस्टम ने जिहाद और सेमेटिक विरोध पर 1980 से पूर्व के अंशों को बडी मात्रा में संकलित किया। इतिहासकार एफ्रेम कर्श ने Islamic Imperialism लिखा जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि मुहम्मद के युद्धों के उपरांत इस्लाम की विस्तारवादी प्रवृत्तियों के आधार पर ही यह क्षेत्र चल रहा है। हालाँकि ये प्राचीन परिपाटी की पुस्तकें पुनरुत्थानवादियों की तुलना में संख्या में कुछ ही हैं लेकिन ये उन विचारों और प्रस्तावना के पुनरोदय का संकेत हैं जिन्हें कि कभी मृतप्राय मान लिया गया था। जन भागीदारी और नये विद्वानों के उभार से यह संकेत मिलता है कि मध्य पूर्व और इस्लाम की नये सिरे से समझ का नया दौर आरम्भ हो सकता है।

