अब जबकि मिस्र एक नये युग में प्रवेश कर रहा है तो इसकी जटिलताओं और इसके नाजुक स्वरूप के सहारे हम देश के भविष्य के स्वरूप का कुछ आकलन कर सकते हैं। इस मह्त्वपूर्ण विषय पर कुछ विचार निम्नलिखित हैं:
तहरीर चौक की भावना वास्तविक और जीवंत है लेकिन सत्ता के विशाल कक्ष से कोसों दूर है। क्रांतिकारी विचार जैसे कि सरकार जनता की सेवा करे न कि इसके विपरीत हो , शासकों का चयन जनता के माध्यम से हो तथा व्यक्तियों में गौरव और अधिकार अंतर्निहित हो अंततः देश के बडे हिस्से में लोगों तक पहुँच गये हैं और विशेष रूप से युवा वर्ग तक। दीर्घकालिक स्वरूप में ये विचार चमत्कार कर सकते हैं। लेकिन अभी ये विद्रोही स्वर हैं जिन्हें कि कठोरता के साथ किसी क्रियात्मक भूमिका से पूरी तरह अलग रखा गया है।
सैन्य शासन जारी रहेगा - सैंनिकों ने सत्ता की कमान होस्नी मुबारक के जाने के बाद दो माह पूर्व ही नहीं सँभाली है उन्होंने ऐसा 1952 में ही कर लिया था। वह भी तब जब स्वतंत्र अधिकारियों ने संवैधानिक राजशाही को सत्ता से बाहर कर स्वयं सत्ता प्राप्त की थी। पिछले 59 वर्षों से सतत उत्तराधिकार से एक वरिष्ठ सेना के व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति ने सत्ता पर नियंत्रण किया और यह क्रम नागिब से नसीर और सदात से मुबारक और अब तंतावी तक जारी है। समय के साथ ही सेना ने अपनी पकड मजबूत करते हुए इसे राजनीतिक क्षेत्र से आर्थिक क्षेत्र तक विस्तृत किया और टेलीविजन सेट से लेकर ओलिव आयल तक सभी कुछ उत्पादित करना आरम्भ कर दिया और मिस्र के बहुत बडे धन पर भी अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। अब सैनिक सत्ता और अच्छे जीवन के आदी हो चुके हैं । वे सत्ता में बने रहने के लिये कुछ भी करेंगे फिर वह मुबारक से पीछा छुडाना हो, उनके पुत्रों को कारावास में भेजना हो, उनके पुराने राजनीतिक दल पर प्रतिबंध लगाना हो , संविधान में परिवर्तन करना हो या फिर विद्रोहियों को कुचलना हो।
सेना सेक्युलर नहीं है: 1930 में स्वतंत्र अधिकारियों से लेकर वर्तमान में शरियत को कानून का प्रमुख स्रोत बताने तक मिस्र के सैन्य नेतृत्त्व ने लगातार इस्लामवादी झुकाव प्रदर्शित किया है। विशेष रूप से तो यह कि स्वतंत्र अधिकारी मुस्लिम ब्रदरहुड की सैन्य शाखा से निकल कर आये और दशकों तक नागरिक शाखा के साथ संघर्ष की स्थिति में रहे। जैसा कि विश्लेषक सिंथिया फरहत ने मिडिल ईस्ट क्वार्टली में लिखा है, उनकी प्रतिद्वंदिता , " एक अधिनायकवादी , सेक्युलर तानाशाही और सम्भावित इस्लामवादी के मध्य संघर्ष के रूप में नहीं वरन दो विचारधारागत समान लोगों का संघर्ष माना जाना चाहिये जो कि यदि एक सामान्य नहीं तो प्रतिस्पर्धी गुट हैं जो एक समान स्रोत से आते हैं" ।
मुस्लिम ब्रदरहुड शक्ति का केंद्र नहीं है - संगठन के समक्ष कई समस्यायें हैं। पहला, उग्रवादी और हिंसक इस्लामवादी इसे पूरी तरह निरस्त करते हैं। अभी हाल में अल कायदा ने इसे चुनावों में भाग लेने के लिये इसकी निंदा की थी और इसके लिये लताडा था कि यह सेक्युलर मार्ग पर है और स्वयं को गलत ढंग से इस्लाम के साथ जोडे हुए है। दूसरा, ब्रदरहुड वास्तविक रूप में धरातल पर कमजोर है। इजियप्टिन आर्गनाइजेशन फार ह्युमन राइट्स के हेशाम कासिम के अनुसार इसकी सदस्य संख्या 1 लाख से आगे नहीं है और 8 करोड के देश में यह संख्या इस बात का प्रमाण है कि यह वास्तविक धरातल का संगठन नहीं है वरन यह ऐसे ही चल रहा है। सही अर्थों में जब राजनीतिक प्रतिस्पर्धा होगी तो इसकी लोकप्रियता घटेगी ।
अंत में, मिस्र की राजनीति को समझने का अर्थ है कि मध्य पूर्व की दोहरी नीति की राजनीति में प्रवेश करना ( जैसा कि इराक और सीरिया की राजनीति) जो कि सेना और इस्लामवादियों द्वारा खेली जाती है। इसके विरोधाभाषी पक्षों पर ध्यान देना रोचक होगा:
नियमित सैन्य- इस्लामवादी सहयोग - जैसा कि फरहत का मानना है, " सेना ने सही अर्थों में लोकतांत्रिक झुकाव वाले देशवासियों और धार्मिक अल्पसंख्यक विशेष रूप से काप्ट के विरुद्ध चोरी छुपे इस्लामवादियों के साथ सहयोग कर रखा है" । इसमें से अनेक उदाहरणों में 14 अप्रैल को एक मानवाधिकार सम्मेलन में सैन्य प्राधिकरण के समक्ष नागरिकों को जबरन ले जाने की आलोचना करने पर इसे दो बार बाधित करने का प्रयास हुआ। पहले तो, एक सैन्य अधिकारी अशालीन महिला को लेकर चिंतित हुआ और दूसरा सेना की आलोचना पर इस्लामवादियों के विरोध के कारण। कौन क्या है? भूमिकायें लगभग बदल सी गयी हैं। इसी प्रकार नये सैन्य नेतृत्व ने इस्लामवादियों को राजनीतिक दल निर्मित करने की अनुमति दे दी है और ब्रदरहुड के सदस्यों को कारावास से बाहर कर दिया है। इसके विपरीत ब्रदरहुड के नेता मोहम्मद बदेयी ने सैन्य बल की प्रशंसा की और उनके संगठन ने सेना के जनमत मार्च का समर्थन किया।
सरकार मुस्लिम ब्रदरहुड के भय को भुना रही है - सेना को चिन्ताओं से लाभ हो रहा है कि कहीं इस्लामवादी नियंत्रण स्थापित ना कर लें और यह लाभ घरेलू और विदेशी दोनों स्तरों पर है। इस सम्भावना से न केवल मिस्र पर उनका प्रभुत्व न्यायसंगत सिद्ध होता है वरन इसकी अति और क्रूरता भी। सेना ने इस्लामवादियों को आगे कर खेल खेलना सीख लिया है। उदाहरण के लिये वर्ष 2005 में मुबारक ने बडी चतुराई से मुस्लिम ब्रदरहुड के 88 सदस्यों को निर्वाचित होने दिया और इसी के साथ लोकतंत्र खतरे में दिखा और उनका शासन मजबूरी बन गया । इसे पूरी तरह स्थापित कर लेने के बाद वर्ष 2010 के निर्वाचन में उन्होंने मुस्लिम ब्रदरहुड के केवल एक सदस्य को निर्वाचित होने दिया।
संक्षेप में , वैसे तो तहरीर चौक की आधुनिकता और मुस्लिम ब्रदरहुड की बर्बरता दोनों का ही दीर्घकालिक महत्व है लेकिन इस बात की सम्भावना अधिक है कि मिस्र पर सेना का शासन रहेगा और केवल कुछ दिखावे के परिवर्तन हो जायेंगे।