दशकों तक जड स्थिति में रहने के बाद मध्य पूर्व अचानक ज्वालामुखी बन गया है। इस क्षेत्र में इतना कुछ घटित हो रहा है कि एक स्थान पर ध्यान टिका पाना कठिन है , यहाँ प्रमुख चार देशों में हो रहे घटनाक्रम की समीक्षा समीचीन है।
लीबिया: अधिकाँश अमेरिकी लोग इस बात को अनुभव नहीं कर रहे हैं लेकिन उनकी सरकार आनन फानन में 19 मार्च से लीबिया में मुवम्मर अल कद्दाफी के विरुद्ध युद्ध में उतर गयी है। बिना शत्रुता के भाव के और बिना किसी प्रमुख उद्देश्य के। इस समय ओबामा प्रशासन के दो प्रमुख लोग देश से बाहर थे राष्ट्रपति चिली में और विदेश मंत्री फ्रांस में। कांग्रेस के सदस्यों को विश्वास में नहीं लिया गया और इन लोगों ने दलगत हितों से ऊपर उठकर अत्यंत क्रोधपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त की। कुछ विश्लेषकों ने यहाँ तक आशंका व्यक्त की कि इसी प्रकार की एकतरफा सैन्य कार्रवाई भविष्य में इजरायल के विरुद्ध भी हो सकती है।
सम्भवतः ओबामा इस मामले में सौभाग्यशाली हैं कि कद्दाफी का पतन शीघ्र ही हो जायेगा। लेकिन कोई नहीं जानता कि विद्रोही कौन हैं और यह प्रयास लम्बा भी खिंच सकता है , मँहगा , आतंकवादकारक और राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय भी बन सकता है। यदि ऐसा होता है तो लीबिया ओबामा का इराक बन सकता है और यदि इस्लामवादी देश में नियंत्रण प्राप्त कर लेते हैं तो इससे भी बुरी स्थिति बन सकती है।
ओबामा चाहते हैं कि अमेरिका लीबिया में अनेक सहयोगियों में से एक रहे और वह स्वयं को चीन का राष्ट्रपति मान बैठे हैं और सलाह दे रहे हैं कि यह युद्ध अमेरिकी प्रशासन के लिये एक महान प्रयोग का अवसर है जब वह स्वयं को बेल्जियम की भाँति दिखा सके। इस प्रयोग को लेकर मेरी कुछ सहानुभूति है, 1997 में मैंने बार बार शिकायत की थी कि चूँकि वाशिंगटन व्यवस्था स्थापित करने में आगे बढकर उत्तरदायित्व ले लेता है इस कारण " अमेरिका के वयस्क अन्य लोगों को शिशु मानकर चलते हैं" मैंने वाशिंगटन से आग्रह किया था कि वह कुछ अधिक उत्सुकता दिखाने के स्थान पर अन्य लोगों को आगे आने दे और स्वयं सहायता प्रदान करे।
यही बात ओबामा ने अपने संकीर्ण और बिना तैयारी के कदम से की है। इसके परिणामस्वरूप भविष्य में अमेरिका की विदेश नीति अवश्य प्रभावित होगी।
मिस्र: सुप्रीम काउंसिल आफ द आर्म्ड फोर्सेस द्वारा प्रायोजित एक संवैधानिक जनमत 19 मार्च को 23 के मुकाबले 77 के बहुमत से स्वीकार हो गया। इसके परिणामस्वरूप मुस्लिम ब्रदरहुड का उत्साहवर्धन होगा और होस्नी मुबारक की नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी के बचे खुचे लोगों का भी और इससे तहरीर चौक पर एकत्र सेक्युलरवादी लोगों के लिये मार्ग बंद हो जायेगा। ऐसा करते हुए नये सैन्य नेतृत्व ने अपनी मन्शा पुष्ट कर दी है कि वह सरकार के हल्के परंतु लम्बे समय से चले आ रहे इस्लामवादियों के साथ सहयोग को जारी रखना चाहती है।
दो तथ्य इस सहयोग की ओर संकेत करते हैं : मिस्र पर 1952 में हुए सत्ताबदल के बाद से सेना का शासन होता आया है और इस तख्तापलट को कार्यान्वित करने वाले तथाकथित स्वतन्त्र अधिकारी मुस्लिम ब्रदरहुड की सैन्य शाखा से थे।
तहरीर चौक की भावना वास्तविक थी और इसका प्रभाव होगा लेकिन अभी मिस्र में सब कुछ पहले जैसा ही चलेगा और सरकार मुबारक की अर्ध इस्लामवादी नीति पर ही चलती रहेगी।
सीरिया : हफीज अल असद ने तीस वर्षों तक ( 1970-2000) देश पर पूरी क्र्रूरता और अद्वितीय चालाकी से शासन किया । राजघराने के नियम के अनुसार उन्होंने राष्ट्रपति पद अपने 34 वर्षीय पुत्र बशर को सौंप दिया। नेत्र चिकित्सक बनने का प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले बशर ने 1994 में अपना पारिवारिक व्यवसाय अत्यंत अवसाद की स्थिति में तब सँभाला जब उनके अधिक सक्षम भाई बासिल की मृत्यु हो गई और वास्तव में अपने पिता की वैभवशाली दिखने की मानसिकता की नीतियों को जारी रखते हुए देश की जड्ता, दमन और गरीबी को और आगे बढा दिया।
जब 2011 की परिवर्तन की हवा सीरिया पहुँची तो लोगों ने नारा लगाना आरम्भ किया " सुरिया हुरिया ( सीरिया की स्वतन्त्रता)" और इस क्रम में अपने बाल तानाशाह के लिये उनका डर समाप्त हो गया। भयभीत बशर ने हिंसा और तुष्टीकरण की नीति अपनायी। यदि असाद राजवंश का अंत होता है तो जिस अलावी समुदाय से वे आते हैं उस अल्पसंख्यक समुदाय पर इसका विनाशकारी प्रभाव होगा। सुन्नी इस्लामवादी जो कि अंदर से यह शक्ति रखते हैं कि असद के उत्तराधिकारी बनें तो सम्भवतः वे सीरिया को ईरान नीत प्रतिरोध गुट से बाहर निकाल लेंगे और इसका अर्थ यह है कि शासन के परिवर्तन का पश्चिम और विशेष रूप से इजरायल पर मिश्रित प्रभाव होगा।
यमन : यमन को देखकर लगता है कि शासन परिवर्तित हो जायेगा और सम्भव है कि इस्लामवादी अधिक शक्तिशाली हो जायें। एक तानाशाह कितना भी अयोग्य रहा हो और उसकी सत्ता भले ही सीमित रही हो लेकिन 1978 से सत्ता में रहने वाले अली अब्दुल्लाह सालेह पश्चिम के इस आशा के साथ मह्त्वपूर्ण सहयोगी थे कि सद्दाम हुसैन के साथ सम्बंध और इस्लामिक रिपब्लिक आफ ईरान के साथ सम्बंधों के बाद भी देश पर नियंत्रण , भावावेश रोकने और अल कायदा के साथ लडने में पश्चिम उनसे सहयोग की अपेक्षा कर सकता है।
विरोध प्रदर्शन का प्रबंधन कर पाने में उनकी विफलता ने उन्हें सैन्य नेतृत्व ( जिससे वे आते हैं) और उनके स्वयं के कबीले हशीद में अलग थलग कर दिया है और इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे उस क्षेत्र पर भी अपना नियंत्रण छोड देंगे जिस छोटे स्थान पर उनका नियंत्रण है। देश के कबीलाई चरित्र को देखते हुए ,बडे पैमाने पर हथियारों के बँटवारे से , शिया सुन्नी विभाजन , पहाडी ऊबड खाबड इलाके , सूखे की भयावह स्थिति, इस्लामवादी रुझान लिये अराजकता (जिस प्रकार अफगानिस्तान में है) एक सम्भावित वास्तविकता बनती जा रही है।
लीबिया, सीरिया और यमन में इस्लामवदियों के अपनी शक्ति बढाने की सम्भावना अधिक है हालाँकि मिस्र में इसकी सम्भावना उतनी अधिक नहीं है। व्हाइट हाउस में पूर्व मुस्लिम के रहते जो कि मुसलमानों के साथ अमेरिका के पारस्परिक सम्बंधों को लेकर जिद पर हैं देखना है इस खतरों से पश्चिमी हितों की रक्षा कैसे कर पाते हैं?