समस्त मध्य पूर्व में मोरक्को से ईरान तक चल रही अव्यस्वथा से तीन बातें स्पष्ट होती हैं:
पहला, ये सभी विद्रोह उस क्षेत्रीय शतरंज पर पूरी तरह उपयुक्त बैठते हैं जिसे कि मैं मध्य पूर्व का शीत युद्ध कहता हूँ । एक ओर तो प्रतिरोध गुट है जिसका नेतृत्व ईरान कर रहा है और जिसमें कि तुर्की,सीरिया , लेबनान , गाजा और कतर शामिल हैं जो कि वर्तमान व्यवस्था को ध्वस्त करना चाहते हैं तथा अधिक पवित्र इस्लामी हैं व पश्चिम के विरोधी हैं। दूसरी ओर तथा स्थितिवादी गुट है जिसका नेतृत्व सउदी अरब कर रहा है और इसमें प्रायः पूरा क्षेत्र समाहित ( परोक्ष रूप से इजरायल भी) है और इनकी प्राथमिकता है कि चीजें यथा सम्भव वैसी ही रहें जैसी वे हैं।
पहले गुट का एजेंडा है ( लेकिन सीरिया का नहीं) और दूसरा गुट ( इजरायल को छोडकर) प्राथमिक रूप से सत्ता का स्वाद चखना चाहता है। ( किसी का पालतू शेर तो किसी का मरिया केरी का व्यक्तिगत संगीत कार्यक्रम)। पहले के पास लोगों को आकर्षित करने के लिये दृष्टि है तो दूसरा उनके ऊपर बंदूकें तान सकता है।
दूसरा, यद्यपि ट्यूनीशिया, लीबिया, मिस्र , यमन और बहरीन में घटनाक्रम का गम्भीर प्रभाव होने वाला है लेकिन क्षेत्र में केवल दो भू रणनीतिक शक्तियाँ हैं ईरान और सउदीअरब और दोनों ही परिस्थितियों का शिकार हो सकती हैं। इस्लामिक रिपब्लिक आफ ईरान में असन्तोष के दर्शन जून 2009 में हुये थे जब कपटपूर्ण चुनावों के बाद बडी संख्या में लोग सडकों पर उतर आये थे। यद्यपि अधिकारी इस " हरे आंदोलन" का दमन करने में सफल हो गये थे लेकिन वे इसे समाप्त नहीं कर पाये थे यह अब भी भूमिगत है। ईरान द्वारा तमाम प्रयासों के बाद भी कि समस्त क्षेत्र में हो रहे विद्रोह पर अपना दावा किया जाये कि यह 1978-79 की ईरानी क्रान्ति से प्रेरित है और इसके इस्लामवाद के स्वरूप से लेकिन इस बात की सम्भावना अधिक है कि ये विद्रोह ईरानी लोगों को इस बात के लिये प्रेरित करेंगे कि वे खोमैनी व्यवस्था पर अपने आक्रमण को नयी धार दें।
यदि ऐसी प्रतिक्रांति सफल होती है तो इसके प्रभाव दूर तक जायेंगे वह भी ईरान से बाहर , इससे क्षेत्र की अप्रसार संधि पर प्रभाव होगा, इजरायल की सुरक्षा पर , इराक के भविष्य पर , विश्व स्तर पर ऊर्जा बाजार पर और सबसे अधिक मह्त्वपूर्ण स्वयं इस्लामवादी आन्दोलन पर ही। सर्वाधिक मह्त्वपूर्ण प्रतिरोधी सरकार के साथ विश्व भर में इस्लामवादी आंदोलन का पतन आरम्भ हो जायेगा।
सउदी अरब का राज्य कोई सामान्य राज्य नहीं है। इसकी शक्ति वहाबी सिद्धांत. मक्का मदीना पर नियन्त्रण तथा गैस और तेल के संचितों के अद्भुत समन्वय पर आधारित है। इसके अतिरिक्त इसके नेता अप्रत्याशित नीतियों के अनुसार पूर्व में भी चलने का दावा करते रहे हैं। लेकिन इसके बाद भी भौगोलिक, वैचारिक तथा व्यक्तिगत मतभेद सउदी पतन का कारण बन सकते है, प्रमुख प्रश्न तब होगा कि किस ओर? शिया जो कि अपनी द्वितीय श्रेणी की नागरिकता से विद्रोह की स्थिति में हैं वे देश को सम्भवतः ईरान की ओर मोड देंगे? शुद्धतावादी वहाबी जो कि राजशाही में आधुनिकता के विरोधी हैं वे अफगानिस्तान की तालिबान व्यवस्था को संस्करण लायेंग़े? या फिर दोनों में विभाजन की स्थिति होगी? या फिर सम्भवतः उदारवादी जो कि नगण्य है वे अपनी आवाज बुलंद कर सकेंगे और पुरानी , भ्रष्ट और अतिवादी सउदी व्यवस्था को उख़ाड सकेंगे?
इस बात के विचार से मेरे तीसरे और सबसे अप्रत्याशित मत की ओर बात जाती है। पिछले दो माह के विद्रोह अधिकतर रचनात्मक, देशभक्तिपूर्ण और भावना के स्तर पर काफी खुलापन लिये हुए रहे हैं। इन विद्रोहों में किसी भी प्रकार की राजनीतिक अतिवादिता वह वामपंथी , दक्षिणपंथी या इस्लामवादी रही हो उसका सर्वथा अभाव रहा है। जिन षडयंत्रवादी सिद्दांतो के सहारे दशकों तक राज किया गया उनको लेकर भीड में कोई उत्साह नहीं दिखता। नारे बाजी में ग्रेटब्रिटेन,अमेरिका या फिर इजरायल कहीं नहीं रहा। ( लीबिया के मुवम्मर अल कद्दाफी ने जरूर अपने देश की अस्थिरता के लिये अल कायदा की नशीली दवाओं को दोषी बताया)
कोई भी इस बात को अनुभव कर सकता है कि पिछली शताब्दी अनेक चरित्रों जैसे अमीन अल हुसैनी,गमाल अब्दुल नसीर, रूहोल्लाह खोमैनी, यासीर अराफात और सद्दाम हुसैन से सम्बद्ध थी लेकिन अब उनका समय जा चुका है, अब लोगों को अधिक सार्थक चीजों की तलाश है न कि केवल लफ्फाजी , अस्वीकार्यता और पिछ्डापन।
मध्य पूर्व के अध्ययन में निराशावाद सदैव से कैरियर को मजबूत करने वाला सिद्ध हुआ है और मुझे तो निराशा और उदासी का पर्याय ही माना जाता है। लेकिन कुछ हिचकिचाहट के साथ मुझे इन परिवर्तनों में नये युग की आहट सुनायी देती है एक ऐसा युग जिसमें नवजात अरब भाषी वयस्क होने की ओर अग्रसर हैं। इस बदलाव पर कोई भी अपनी आँख मल सकता है और इसके उलट होने की प्रतीक्षा कर सकता है। लेकिन अभी तक तो यही हुआ है।
सम्भवतःसबसे बडा प्रतीक स्वयं अपनी ओर से प्रदर्शनकारियों द्वारा सडक को खाली और साफ कर देना था। वे अब अपनी सेवाओं के लिये राज्य के ऊपर निर्भर नहीं हैं और अचानक वे नागरिक कर्तव्य के साथ नागरिक बन गये हैं।
इस अचानक हुए परिवर्तनों के आधार पर विदेश नीति भी सोच समझ कर बनाना चाहिये लेकिन इन्हें अस्वीकार कर देना भी उचित नहीं होगा। विद्रोही आन्दोलनों के लिये अवसर है कि वे स्वयं को परखें और वयस्क की भाँति आचरण करें। समय आ गया है कि जब कम अपेक्षा पर नरम असहिष्णुता को त्याग दिया जाये, अरबी या फारसी बोलने से कोई भी इस बात के लिये अक्षम नहीं हो जाता कि वह स्वतन्त्रता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये लोकतांत्रिक रास्ते को न अपना सके।