कभी कभी वस्तुस्थिति उतनी सहज नहीं होती है जितनी वह दिखती है अमेरिका और इजरायल के सम्बंधों में उत्पन्न वर्तमान संकट में भी कुछ सन्तोषजनक बात है।
ऐतिहासिक परिपाटी के आधार पर मैंने चार निष्कर्ष निकाले हैं:
पहला, वास्तव में " शांति प्रक्रिया" एक युद्ध प्रक्रिया है। 1990 से ही कूटनीतिक प्रयासों के तहत इजरायल पीछे हटता रहा है जिसके चलते 1993 में बिगडी स्थिति 2000 आते आते और बिगड गयी। हमें अब पता चल रहा है कि पीडादायक इजरायल की छूटों ने बदले में फिलीस्तीनी सद्भावना प्राप्त नहीं की वरन इसके बजाय इजरायल में वापसी के अधिकार की मह्त्वाकाँक्षा , आक्रोश और हिंसा को बल मिला है।
दूसरा, इजरायल ने अरब को जो छूटें दी हैं वे सदैव के लिये हैं जबकि वाशिंगटन के साथ सम्बंधों में उतार चढाव आता रहता है। एक बार इजरायल ने दक्षिणी लेबनान और गाजा को छोड दिया तो उन्होंने ऐसा भले के लिये किया और ऐसा ही भविष्य में गोलन पहाडियों या पूर्वी जेरूसलम के साथ होगा। इन कदमों को वापस लेने की कीमत काफी अधिक होगी। इसके विपरीत अमेरिका और इजरायल के मध्य तनाव व्यक्तित्वों और परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं इसी आधार पर वे ऊपर नीचे आते जाते हैं और इसमें दाँव पर जो भी लगता है वह कम होता है। प्रत्येक राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री अपने पूर्ववर्ती के विचारों या तेवर की अवहेलना कर सकता है। इस समस्या का समाधान तत्काल कर लिया जा सकता है।
अधिक विस्तार में अमेरिका और इजरायल के बंधन की शक्ति राजनेताओं और तात्कालिक मह्त्व के मुद्दों से आगे बढ कर है। पृथ्वी पर कहीं भी इस प्रकार का " सबसे विशेष" और अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पारिवारिक सम्बंध देखने को नहीं मिलता। पारिवारिक बंधन की भाँति ( अमेरिका के बाद इजरायल दूसरा देश है जिसकी नास्डैक पर सबसे अधिक कम्पनियाँ सूचीबद्ध हैं) इसमें भी उतार चढाव आते रहते हैं ( जोनाथन पोलार्ड का गुप्तचरी का मामला इसके सामने आने के पचीस वर्षों बाद तक चलता रहा )। जब रणनीतिक सहयोग, आर्थिक सम्पर्क , बौद्धिक सम्बंध और साझे मूल्यों की बात आती है, संयुक्त राष्ट्रसंघ में मत का रिकार्ड , धार्मिक समानता और एक दूसरे के आंतरिक मामलों में पारस्परिक हस्तक्षेप की बात आती है तो इस सम्बंध की तीव्रता अद्वितीय है।
इजरायल के दृष्टिकोण से तब अरब के साथ उसके सम्बंध डरावने हैं जबकि वाशिंगटन के साथ हल्के और लचीले हैं।
तीसरा, जब इजरायल के नेता वाशिंगटन के साथ मजबूत, विश्वसनीय सम्बंध रखते हैं तो वे अरब को अधिक देते हैं। गोल्डा मीर ने रिचर्ड निक्सन के साथ अधिक रियायत दी, मेनाकेम बेगिन से जिमी कार्टर के साथ रियायत की , यित्जाक राबिन , बिनयामिन नेतन्याहू और एहुद बराक ने बिल क्लिंटन के साथ रियायत बरती और एरियल शेरोन ने जार्ज डब्ल्यू बुश के साथ यही रियायत की।
इसके ठीक विपरीत वाशिंगटन के साथ अविश्वास की स्थिति में इजरायल कठोर हो जाता है और अधिक जोखिम लेने से बचता है। ऐसा ही मामला जार्ज एच डब्ल्यू बुश के साथ था और यही कहीं अधिक बराक ओबामा के साथ है। वर्तमान असहजता का दौर ओबामा के ओवल कार्यालय आने से पूर्व ही आरम्भ हो गया था और वह भी प्रमुख रूप से इजरायल से घृणा करने वाले कुछ मुख्य लोगों के साथ उनके सार्वजनिक सम्बंधों के चलते ( अली अबूनिमाह, रशीद खलीदी, एडवर्ड सैद, जेरेमिया राइट) । सम्बंध मार्च में तब निचले बिगडे जब उनके प्रशासन ने 9 को जेरूसलम में नियमित निर्माण कार्य पर क्रोध जताया और उसके बाद विदेश मंत्री ने 12 को भयावह दूरभाष किया और फिर 23 को तनाव के वातावरण में व्हाइट हाउस ने बैठक बुलाई।
मामला और अधिक तब बिगडा जब 28 मार्च को अमेरिका और इजरायल के मध्य अच्छे सम्बंध के लिये जाने जाने वाले डेनिस रास को ओबामा प्रशासन के ही किसी व्यक्ति ने बिना नाम बताये आरोपित किया कि वे, " नेतन्याहू की गठबंधन राजनीति को अमेरिकी हितों से अधिक मह्त्व दे रहे है" । इसी आधार पर विदेश नीति के एक प्रमुख विश्लेषक ने रास की इजरायल के साथ दोहरी स्वामिभक्ति का प्रश्न खडा कर दिया और उनकी नीतिगत सलाह को चुनौती दे डाली।
इन वीभत्स और लगभग असाधारण तनावों का इजरायल के लोगों पर जो प्रभाव होगा उसकी कल्पना की जा सकती है इसके चलते ओबामा के प्रति अविश्वास उत्पन्न होगा, अमेरिकी दबाव का प्रतिरोध होगा और इसके चलते परस्पर विरोध त्याग कर राजनेताओं पर आग्रह होगा कि वे एक साथ नीतियों का विरोध करें।
चौथा, अमेरिका और इजरायल के तनाव के चलते फिलीस्तीनी अडियल रुख और माँग बढेगी। बुरी स्थिति में इजरायल इन नेताओं को सशक्त बनाता है और यदि अमेरिका की ओर से फिलीस्तीन को रियायत के लिये दबाव आता है तो फिलीस्तीनी शांति से बैठकर इस पूरे तमाशे का आनंद लेंगे। यही कुछ वर्ष 2009 के मध्य में हुआ जब महमूद अब्बास ने अमेरिका को निर्देश दिया कि जेरूसलम से क्या प्राप्त करना है। इसके ठीक विपरीत जब अमेरिका और इजरायल सम्बंध फलता फूलता है तो फिलीस्तीनी नेताओं पर दबाव होता है कि वे इजरायल से मिलें, बातचीत का नाटक करें और दस्तावेज हस्ताक्षरित करें।
इन चार पूर्वाभासों के आधार पर कुछ अन्तर्द्ष्टि सम्पन्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं : अमेरिका और इजरायल के मध्य जब सशक्त सम्बंध होता है तो इससे इजरायल ऐसी भूल करने को प्रेरित होता है जिसे वापस नहीं लिया जा सकता। जब अमेरिका और इजरायल के सम्बंध खराब स्थिति में होते हैं तो इसकी सम्भावना नहीं होती। ओबामा को ऐसा प्रतीत होता होगा कि इजरायल के साथ संघर्ष करके वे समझौता कर लेंगे लेकिन इसके विपरीत होगा। उनको लग सकता है कि वे कूटनीतिक आधार पर सफलता प्राप्त करने की दिशा में हैं लेकिन इसकी सम्भावना कम ही है। जो लोग "युद्ध प्रक्रिया" से अधिक भयभीत हैं वे प्रशासन की इन भयानक भूलों से संतुष्ट हो सकते हैं।
अमेरिका और इजरायल के सम्बंधों के उलझाव के कारण इसमें विरोधाभास और अनदेखा करने के काफी अवसर हैं। कुछ तनावपूर्ण घटनाक्रम से लगता है कि इसमें से कुछ अच्छा आ सकता है।