एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो कि पश्चिमी संस्कृति की सभी कमियों के बाद भी इसकी उपलब्धियों को सराहता है उन पश्चिमी लोगों से परेशान सा अनुभाव करता हूँ जो अपनी जीवन पद्धति के प्रति शत्रुता का भाव रखते हैं। यदि लोकतंत्र, मुक्त बाजार, विधि के शासन से अद्वितीय स्थिरता, सम्पन्नता और शालीनता आयी है तो फिर इससे लाभान्वित होने वाले इसे देखने में असमर्थ क्यों हैं?
उदाहरण के लिये तो फिर अमेरिका जिसने कि मानव कल्याण के लिये इतना कुछ किया है उसके प्रति शत्रुता का भाव क्यों है? इसी प्रकार एक छोटा सा देश इजरायल जो कि शास्वत काल से उत्पीडित लोगों के पुनरुत्थान का प्रतीक है वह इस कदर भावुक घृणा को उत्पन्न करने का कारण बनता है कि दूसरे अर्थों में शालीन लोग भी इस राज्य को नष्ट करने की इच्छा रखते हैं?
जेरूसलम में शालेम केंद्र के योराम हजोनी इस शत्रुता की व्यापक व्याख्या अपने अत्यंत समृद्ध निबंध Israel Through European Eyes में की है।
वह अपना आरम्भ इस अवधारणा से करते है कि इस सम्बंध में सबसे बडा परिवर्तन 1962 में थामस कुन के अध्ययन The Structure of Scientific Revolutions से आया। यह प्रभावशाली अवधारणा इस बात को लेकर चलती है कि वैज्ञानिक अपने विषयों को एक विशेष " स्तर" के ढाँचे में देखते हैं। यह स्तर वे ढाँचे हैं जिनके आधार पर वास्तविकता को जाना जा सकता है। जो तथ्य इस स्तर के अनुकूल नहीं पाये जाते उन्हें या तो उपेक्षित कर दिया जाता है या फिर अस्वीकार कर दिया जाता है। कुन विज्ञान के इतिहास की पुनर्समीक्षा करते हैं और यह प्रदर्शित करते हैं कि किस प्रकार वैज्ञानिक क्रांतियों के क्रम में स्तर परिवर्तित होता गया और अरस्तू से न्यूटन और फिर आइंस्टीन के भौतिक विज्ञान तक।
ये स्तर राजनीति का भी निर्माण करते हैं और हजोनी ने इसी सिद्धांत का प्रयोग पश्चिम द्वारा इजरायल की विधिक मान्यता को कम करने के प्रयास को समझने में करने का प्रयास किया है। इजरायल जिस जगह खडा है उसके इस स्वरूप में पिछले अनेक दशकों में परिवर्तन आया है और वह नीचे की ओर आया है और इसका कारण हजोनी के अनुसार, " ये तथ्य या वे तथ्य नहीं हैं वरन जिस स्तर पर शिक्षित पश्चिमी इजरायल को देखते हैं उसमें परिवर्तन आ गया है" । इजरायल के बारे में जो निंदा का स्वर उभरता है उसका इन तथ्यों से कोई सरोकार नहीं है कि इजरायल की सैन्य नैतिकता कितनी है या फिर चिकित्सा के सम्बंध में उसकी उपलब्धि क्या है? इजरायल के प्रति पश्चिम के शिक्षित लोगों के दृष्टिकोण में इससे कोई अंतर नहीं आता। इसके विपरीत जिस स्तर से यह परिवर्तन हो रहा है उसे पहचान कर उसका समाधान करना चाहिये।
एक तेजी से गिरता हुआ सोच का स्तरीकरण यह है कि राष्ट्र राज्य एक सकारात्मक और विधिक संस्था नहीं रह गयी है , जिसके तहत कि लोगों की सुरक्षा हो सके और उन्हें फलने फूलने का अवसर मिल सके। 1648 में वेस्टफेलिया की संधि के द्वारा तब मह्त्वपूर्ण अवसर प्राप्त हुआ जब राष्ट्रों की सम्प्रभुता को स्वीकार किया गया। जान स्टुवर्ट मिल और वुडरो विल्सन ने राष्ट्र राज्य की अवधारणा को वैश्विक स्तर तक पहुँचाया ।
हजोनी के मानना है कि अब यह स्तर कुल मिलाकर काफी छोटा रह गया है और ध्वस्त हो चुका है। राष्ट्र राज्य की अवधारणा अब आकर्षक नहीं रह गयी है और यूरोप में तो अनेक बुद्धिजीवी और राजनेता तो इसे ऐसी बुराई मानते हैं जिसका आकलन ही नहीं किया जा सकता और यह विचार तेजी से फैल रहा है।
यह नया स्तर इमैंनुवल कांत के 1795 Perpetual Peace के आधार पर है जिसमें कि राष्ट्र राज्य को नष्ट कर अंतरराष्ट्रीय सरकार स्थापित करने की बात कही गयी है। परा राष्ट्रीय संस्थायें जैसे कि संयुक्त राष्ट्र संघ और यूरोपियन यूनियन इस विचार और माडल को प्रस्तुत करते हैं।
राष्ट्र राज्य की अवधारणा के स्तर से बहुराष्ट्रीय राज्य की अवधारणा के परिवर्तन में यहूदियों ने और नरसंहार ने केंद्रीय भूमिका निर्वाह की। सहस्त्रों वर्षों के यहूदियों के उत्पीडन की जो चरम परिणति नाजी नरसंहार में हुई उसने पुराने स्तर के अनुरूप विशेष प्रयोजन और विधिक स्वरूप प्रदान कर दिया। नये स्तर के अनुरूप नरसंहार एक राष्ट्र राज्य की अतिवादिता को प्रकट करता है जब कि जर्मनी के लोग पागल हो गये थे।
पुराने राष्ट्र राज्य अवधारणा के स्तर के अनुरूप आसविज की शिक्षा थी कि " फिर कभी नहीं" इसका अर्थ था कि यहूदियों की सुरक्षा के लिये एक सशक्त इजरायल की आवश्यकता । नये स्तर के अनुसार इसी "फिर कभी नहीं" की एक दम नयी व्याख्या हो सकती है जो इस बात पर जोर देती है कि फिर इसी भी सरकार के पास ऐसी स्थिति नहीं होनी चाहिये कि वह फिर से नाजी को दुहरा सके। इसके अनुसार इजरायल आसविज का उत्तर नहीं है। यूरोपियन यूनियन है। पुरानी प्रणाली का " फिर कभी नहीं" इजरायल को इस बात के लिये प्रेरित करता है कि वे पश्चिमी जगत की आत्मरक्षा की क्षमाभाव की नीति के आधार पर नये स्तरवालों को इस भयावहता का आभास करायें।
नाजी आक्रोश को राष्ट्र राज्य के साथ जोडना त्रुटिपूर्ण है? और इस ओर ध्यान जाना आवश्यक है। नाजी राष्ट्र राज्य को नष्ट करना चाहते थे । कान्त से कम उनका स्वप्न वैश्विक राज्य स्थापित करने का नहीं था। नये स्तर वाले इतिहास को नष्ट करते प्रतीत होते हैं।
इजरायल भी नये स्तर से पूरी तरह मुक्त नहीं है, जैसा कि अव्राहम बर्ग का मामला दिखाता है। इजरायल संसद के पूर्व सभापति और प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने एक स्तर से दूसरे स्तर पर जाते हुए नरसंहार की तुलना पर एक पुस्तक लिखी जिसमें इजरायल की तुलना नाजी जर्मनी से की। वे अब इजरायल को यहूदी लोगों के रक्षक के रूप में नहीं देखना चाहते। बर्ग का दुखद उदाहरण प्रदर्शित करता है कि कोई भी नये स्तर के रोग से मुक्त नहीं है।
हजोनी का निबंध कोई नीतिगत प्रतिक्रिया नहीं देता लेकिन मुझे लिखे एक पत्र में उन्होंने तीन क्षेत्र रेखाँकित किये जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिये, नये स्तर के अस्तित्वमान होने के सम्बंध में जागरूकता बढाना, इसकी अस्वीकार्यता के लिये इसकी विसंगतियों को खोजा जाना, पुराने स्तर को नये स्वरूप में ढाल कर पुनः ऊर्जावान बनाना। उनकी अंतर्दष्टि व्यापक है उनकी सलाह समयानुकूल है।