हाल में निर्मित Pechter Middle East Polls की ओर से मिडिल ईस्ट फोरम ने 1,000 मिस्र के नगर निवासियों और 1,000 सउदी अरब के नगर निवासियों से तीन प्रश्न पूछने में ईरान और इजरायल पर ही स्वयं को केंद्रित रखा। ऐसे दो प्रमुख देश जो कि इस क्षेत्र को ध्रुवीकृत करते हैं। इसके परिणाम ध्यान देने योग्य हैं।
( तकनीकी नोट: उत्तरदाताओं से प्रत्यक्ष रूप से अरबी भाषा में साक्षात्कार किया गया और वह भी उनके घर में जिसमें कि ढाँचागत प्रश्नोत्तरी का प्रयोग किया गया और यह सर्वेक्षण विश्वसनीय , व्यक्तिगत , स्थानीय और व्यावसायिक कम्पनी के द्वारा कराया गया जिसका कि पिछला रिकार्ड अच्छा रहा है। इसमें 3 प्रतिशत गलती की सम्भावना दोनों ओर है)
ईरान - आज के मध्य पूर्व के शीत युद्ध में इस्लामिक रिपब्लिक आफ ईरान क्रांतिकारी खण्ड का मुखिया है, जबकि सउदी अरब और मिस्र की सरकारें इसके विरोधी यथास्थिति खंड का नेतृत्व कर रही हैं। सउदी और मिस्र जनसंख्या ईरान के परमाणु हथियार निर्माण को लेकर कितनी जिज्ञासु है? पेचर सर्वेक्षण ने मिडिल ईस्ट फोरम के लिये दो प्रश्न पूछे: " इस बात का पूर्वानुमान करते हुए कि ईरानी सरकार परमाणु समृद्धि के अपने कार्यक्रम को जारी रखेगी क्या आप ईरानी परमाणु संयंत्रों पर इजरायल के आक्रमण का समर्थन करेंगे"? और ईरानी परमाणु संयंत्र पर अमेरिकी आक्रमण का" ?
मिस्र में 17 प्रतिशत लोगों ने इजरायल के आक्रमण का समर्थन किया और 25 प्रतिशत लोगों ने अमेरिकी आक्रमण का। सउदी अरब में यह आँकडा क्रमशः 25 और 35 प्रतिशत का है। आश्चर्यजनक रूप से अमेरिकी आक्रमण की अपेक्षा इजरायल के आक्रमण के समर्थन का आँकडा मेरी अपेक्षा से अधिक है । यह संख्या अभी हाल में वाशिंगटन इंस्टीट्यूट फार नीयर ईस्ट पालिसी के डेविड पोलाक द्वारा हाल में ही सम्पन्न कराये गये सर्वेक्षण के आँकडे को पुष्ट करता है जिसमें कि पाया गया कि, " सउदी लोगों के मध्य ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर कठोर कदम उठाने को लेकर अधिक समर्थन था"
यह संख्या इस बात की ओर संकेत करती है कि दो यथास्थितिवादी देशों में जनसंख्या का प्रत्येक तीन से छह व्यक्ति ईरान के परमाणु आधरभूत ढाँचे पर इजरायल या अमेरिकी आक्रमण को लेकर राजी है। हालाँकि अल्पसंख्यक की संख्या अवहेलना करने लायक नहीं है फिर भी इतनी छोटी है कि मिस्र और सउदी सरकार इन्हें शांत कर ईरान पर आक्रमण के साथ हो सकते हैं। विशेष रूप से इजरायल की सेना को सउदी वायुसीमा का उल्लंघन करने के लिये अनुमति लेने का प्रश्न ही नहीं उठता।
इजरायल : फोरम ने पूछा, " इस्लाम मिस्र और सउदी अरब के राज्य को परिभाषित करता है; इसी प्रकार क्या आप इजरायल को यहूदी राज्य के रूप में स्वीकार करते हैं? इस मामले में 26 प्रतिशत मिस्रवासियों ने और 9 प्रतिशत सउदीवासियों ने सकारात्मक उत्तर दिया।
हमने अरब इजरायल के संघर्ष के मूल बिंदु को लेकर प्रश्न किया और इसे मापने का प्रयास किया जो कि इजरायल के आकार, इसके संसाधन, शस्त्र, पवित्र स्थल पर सार्वभौमिकता या फिर पश्चिमी तट पर निवास करने वाले नागरिकों को लेकर नहीं था वरन इसका सम्बंध इजरायलवाद या जायोनिज्म से था और वह कि यहूदी पहचान को लेकर निंर्मित राज्य।
संदर्भ देते हुए यह स्पष्ट करते चलें कि 1920 से 20 प्रतिशत फिलीस्तीनी इजरायल के साथ शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करना पसंद करते हैं। मिस्रवासियों का उत्तर इससे कुछ अधिक है जबकि सउदीवासियों का उत्तर इससे कुछ नीचे है। इन परिणामों से यही निष्कर्ष निकलता है कि सउदी अरब में राजनीतिक जीवन का धार्मिक स्वभाव मिस्र से कहीं अधिक है। वे इस बात को पुष्ट करते हैं कि इजरायलवाद के विरोध का प्रमुख स्रोत अब राष्ट्रवाद नहीं वरन इस्लाम है।
सर्वेक्षण के अंदर प्रवेश कर इसकी संख्या में कुछ ही भूजनाँकिकी विविधता है। एक भिन्नता लिंग भेद की है जब मिस्र की महिलायें मिस्र के पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक इजरायल के यहूदी स्वरूप को स्वीकार करती हैं, सउदी अरब के मामले में यह ठीक विपरीत है जिसकी व्याख्या नहीं हो पा रही है।
सउदी अरब में भौगोलिक भिन्नता स्पष्ट है। इजरायल के निकट के पश्चिमी भाग के देश के लोग यहूदी राज्य को शीघ्रता से स्वीकार कर रहे हैं जबकि ऐसा अधिक मध्य और पूर्वी क्षेत्र के सूदूर लोगों के साथ नहीं है। इसके विपरीत मध्य और पूर्वी क्षेत्र के 50 प्रतिशत लोग ईरान पर अमेरिकी आक्रमण का समर्थन करते दिखे जबकि सूदूर पश्चिमी क्षेत्र के लोगों के साथ ऐसा नहीं है।
सउदी पश्चिम ( हिजाज , असीर) देश का उदारवादी भाग है जबकि पूर्व ( अल अहसा) अधिक शियाबहुल है और तेहरान को लेकर अधिक भय है। इन क्षेत्रीय विविधताओं के चलते सउदी अरब को एकसमान रूप में देखने के स्थान पर ऐतिहासिक रूप से विभिन्नताओं से सजी पहचान का संयुक्त राज्य देखने में उपयोगिता होती है और इन विविधताओं को मस्तिष्क में रखकर नीति बनाने को लेकर भी ।
संक्षेप में, यह आँकडे कुछ संदर्भ में इजरायल और पश्चिम के प्रति शत्रुता का भाव रखने वाले देशों के कुछ रचनात्मक आधार को प्रस्तुत करते हैं। इसके आधार पर यदि कोई नीति आगे चलकर बनाई जाती है तो यदि इसपर सही ध्यान दिया गया तो दूरगामी स्तर पर सुधार की सम्भावना निकाली जा सकती है।