अब जबकि मुस्लिम भीड तितर बितर हो गयी है और अमेरिका के दूतावास अपनी सामान्य गतिविधियों पर लौट चुके हैं तो 11 सितम्बर को आरम्भ हुई हिंसा जिसमें तीस लोगों की जान गयी उसको लेकर अंतिम तीन विचार प्रस्तुत हैं:
वास्तव में फिल्म ही मामला था: लीबिया में अमेरिका के चार लोगों की हत्या के दायित्व से ओबामा प्रशासन बईमानीपूर्वक इस दावे के साथ बचकर निकल गया कि यह विरोध " इनोसेंस आफ मुस्लिम्स" वीडियो के कारण था जो कि अनुमान से परे नियंत्रण से परे चला गया। इसकी प्रतिक्रिया में विश्लेषकों का कहना है कि वीडियो शायद ही कहीं मामला था। बैरी रूबिन इस बात को नहीं मानते उनके अनुसार मिस्र में विरोध के लिये वीडियो एक नकली बहाना था। माइकल लेडीन ने प्रशासन की इस दावे के लिये आलोचना की है कि, " अमेरिका के लोगों पर हुआ आक्रमण कहीं से भी अमेरिका के लोगों के विरुद्ध नहीं था यह वीडियो के विरुद्ध आक्रमण था" एंड्र्रियू मैकार्थे के अनुसार "यह वीडियो का मामला नहीं है" " यह हाल के वर्षों में कार्टून, टेडी बीयर्स, दुर्घटनावश कुरान के जलने की घटना से कहीं अधिक है" । हुसैन हक्कानी ने इन विरोधों को " धार्मिक के बजाय राजनीतिक बताया" ।
विक्टर डेविस हैंसन के लिये वीडियो और इसी प्रकार की घटनायें " अपनी अज्ञानी और निर्धन भीड को अमेरिका के विरुद्ध सही समय पर भडकाकर सत्ता ग्रहण करने की कटु सच्चाई का नमूना है" । ली स्मिथ का अनुमान है कि " वीडियो को बदनाम करना एक जटिल सार्वजनिक कूट्नीति का अंग है" क्लिफ किंकेड ने तो सीधे सीधे वीडियो को " ओबामा का राष्ट्रपतित्व बचाने के लिये ध्यान हटाने के आशय का कार्य बताया है" ।
मैं इन सभी लेखकों का सम्मान करता हूँ और उनसे सीखता हूँ परंतु वीडियो को लेकर असहमत हूँ। हाँ , निश्चित रूप से व्यक्ति, संगठन और सरकारें भीड के दबाव से विवश होती हैं परंतु सदैव कुछ भडकाने वाले लोगों की आवश्यकता होती है जो कि ऐसे बयानों, पाठ्य, चित्रण या वीडियो के विरुद्ध मुसलमानों को एकत्र कर सकें। परंतु यह मानना भूल होगी कि भीड को केवल हितों के टकराव के यंत्र के रूप में प्रयोग किया जाता है( जैसे मिस्र में सलाफी और मुस्लिम ब्रदरहुड का टकराव) या फिर अमेरिका की राजनीतिक आवश्यकता के लिये। वीडियो के विरुद्ध आक्रोश को अनुभव किया गया , वास्तविक था और शास्वत था।
जर्मनी के प्राच्यवादी एनेमारी स्चीमेल ने संकेत किया था( 1985 के अपने अध्ययन में) कि मुहम्मद के व्यक्तित्व ने मुसलमानों के मध्य संत जैसी विशेषता ग्रहण कर ली है और उनकी आलोचना नहीं होनी चाहिये और चिढाया भी कम जाना चाहिये। उनका व्यक्तित्व कुरान से अलग है " मुस्लिम जीवन का केंद्र है"।
इस व्यक्तित्व को लेकर मुसलमानों के मध्य आक्रोश गम्भीर है: उदाहरण के लिये पाकिस्तान की अपराध संहिता का कुख्यात 295 बी मुहम्मद की किसी भी अवमानना को दन्डित करता है चाहे वह बिना आशय के ही क्यों न हो और दंड भी मृत्युदंड है। इन विनयमनों का इतना अधिक समर्थन है कि दो प्रमुख राजनेता सलमान तसीर और शाबाज भट्टी को 2011 में ईशनिंदा कानून के विरुद्ध बोलने के कारण मौत के हवाले कर दिये गये। उनकी हत्या का पश्चिम से कोई लेना देना नहीं था और न ही यह अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में ध्यान हटाने का प्रयास था।
ओबामा बनाम मोर्सी: अमेरिका और मिस्र के राष्ट्रपति ने पिछले सप्ताह संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने भाषण में ईशनिंदा को लेकर अलग अलग विचार व्यक्त किये। बराक ओबामा ने जोर दिया, " 2012 में ऐसे समय कि जब कोई भी अपने सेल फोन से एक बटन क्लिक करते हुए समस्त विश्व में कोई भी आपत्तिजनक विचार फैला सकता है तो सूचना को नियंत्रित करने की अवधारणा पुरानी पड गयी है। अब प्रश्न है कि इस पर हमारी प्रतिक्रिया क्या हो? और हमें इस बात पर राजी होना होगा कि कोई भी ऐसा भाषण न्यायसंगत नहीं है जो कि मस्तिष्कविहीन हिंसा को बढावा देता हो" । मोहम्मद मोर्सी ने असहमति जताई, " अभी हाल में इस्लामी पवित्रता के विरुद्ध जो संगठित अभियान चलाया गया वह पूरी तरह अस्वीकार्य है और इस पर कडा कदम उठाना चाहिये। इस अंतरराष्ट्रीय बैठक में हमारा यह दायित्व है कि हम इस बात का अध्ययन करें कि किस प्रकार विश्व को अस्थिरता और हिंसा से बचा सकते हैं"
संक्षेप में प्रत्येक पक्ष का अपना तरीका है ( अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ईशनिंदा को रोकना) जो कि उसे अपनी पहचान का मूलभूत स्वरूप मानता है और उसका उसी रूप में सम्मान करता है। 1989 में सलमान रश्दी के विरुद्ध खोमैनी के फतवे के बाद से दोनों ही पक्ष एक दूसरे पर स्वयं को थोपने का प्रयास कर रहे हैं और इससे यही प्रतीत होता है कि इच्छा का यह संघर्ष अभी आरम्भ ही हुआ है।
रुझान:खोमैनी के समय से ही इस संघर्ष को देखते आ रहे एक व्यक्ति के रूप में कुल तीन रुझान मैं समझ पा रहा हूँ । पहला, मुसलमान धीरे धीरे मुहम्मद की पवित्रता को बचाने के लिये उसकी राजनीतिक अनिवार्यता के प्रति समपर्पित होते जा रहे हैं। दूसरा, पश्चिमी सरकारें और कुलीन वर्ग( पत्रकार, वकील, बुद्धिजीवी , कलाकार) इस्लामवादी आक्रोश का सामना करने में भयभीत हो रहे हैं और क्षमा माँगना, तुष्टीकरण करना, उनका प्रयास होता है । इसका उदाहरण 11 सितम्बर को कैरो में अमेरिकी दूतावास के बाहर आयी भीड के बाद दी गयी प्रतिक्रिया रही । तीसरा, पश्चिम के गैर कुलीन इस्लामवादियों को प्रतिक्रिया में कह रहे हैं कि आप अपमानित होना चाहते हैं तो यह लीजिये, इसमें कुरान को जलाना, जिहाद विज्ञापन को पराजित करना, फ्रांस का कार्टून और मुहम्मद की फिल्म की घोषणा के उपरांत उसे दिखाना ।
कुल मिलाकर इन तीन बिंदुओं के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर आता हूँ कि मूल्यों का यह संघर्ष गर्मी पैदा करता रहेगा।