तुर्की अपने आकार, भौगोलिक स्थिति, अर्थव्यवस्था , उच्च स्तरीय इस्लामवादी विचारधारा के चलते मध्य पूर्व में पश्चिम की सबसे बडी समस्या बनने जा रहा है?
3 नवम्बर 2002 को जस्टिस एंड डेवलेपमेंट पार्टी द्वारा पहली बार सत्ता ग्रहण करने के बाद से अब तक हलचल भरा एक दशक व्यतीत हो चुका है। जिस बात की ओर ध्यान ही नहीं दिया गया कि देश ने मुस्तफा कमाल अतातुर्क ( 1881 से 1938) के शासन काल में आरम्भ हुए पश्चिम समर्थक मार्ग को प्रायः छोड कर अब रिसेप तईप एरडोगन (1954 में जन्मे) के पश्चिम विरोधी काल में प्रवेश किया है।
2002 में जब चुनाव हुए तो उससे दस वर्ष पूर्व देश में कमजोर केंद्रीय दक्षिण और केंद्रीय वामपंथी सरकार का शासन रहा था। 1990 के दशक में देश ने पहला इस्लामवादी प्रधानमंत्री नेस्मेटिन एरबाकान देखा जो कि एक वर्ष तक शासन में रहे जब कि 1997 में एक नरमपंथी तख्तापलट में उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया गया। इसी काल में अप्रैल 1993 में काफी कद्दावर पूर्व प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तुर्गुत ओजाल का निधन हुआ और 2003में एरडोगन प्रधानमंत्री बने।
यह समय राजनीतिक अवसरों को चूक जाने, आर्थिक अप्रबंधन और धुँवाधार भ्रष्टाचार का था। इस कालखंड में 1996 में सुसुरलुक घोटाला हुआ Susurluk scandal जिसमें कि एक प्रांतीय परिवहन दुर्घटना की जाँच से राज्य प्रायोजित हत्या और माफिया के साथ सरकार की साँठ गाँठ का खुलासा हुआ। इसी दौरान 1999 में आये भूकम्प के बाद सरकार की कमजोर प्रतिक्रिया के चलते अयोग्यता और अक्षमता का पता जनता को चला।
इन असफलताओं के चलते मतदाता हाल में बनायी गयी जस्टिस एंड डेवेलपमेंट पार्टी जिसे कि एकेपी के नाम से भी जाना जाता था की ओर झुके और इसकी ओर झुकाव का कारण इसकी इस्लामवादी नीतियों की अपेक्षा यूरोपियन संघ की सदस्यता को लेकर दिया गया आश्वासन , बेहतर लोकतंत्र और अधिक स्वतंत्रता की बात थी। विशिष्ट राजनीतिक व्यवस्था के चलते जिसमें कि संसद में प्रवेश के लिये राजनीतिक दलों को 10 प्रतिशत मत प्राप्त करना आवश्यक होता है, एकेपी को 34 प्रतिशत मत मिले और 2002 में इसने संसद की 66 प्रतिशत सीटों पर अपना नियंत्रण स्थापित किया।
परिणामों के चलते मतदाता काफी उत्साहित हुये विशेषकर यूरोप की भाँति सुधार तथा चीन की भाँति आर्थिक विकास से और इसी का परिणाम रहा कि उन्होंने एकेपी को 2007 में 47 प्रतिशत मत दिये और 2012 में इस दल को कुल 50 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। लोकप्रियता के चलते एरडोगन को स्वयं को अपने दल और और अपनी विचारधारा को सशक्त करने का अवसर प्राप्त हुआ ( "मीनारें हमारे चाकू हैं, गुम्बद हमारे हेलमेट हैं, मस्जिद हमारे बंकर और इस्लाम में आस्था रखने वाले हमारी सेना हैं" )
सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि एरडोगन ने सेना को किनारे लगा दिया ( अतातुर्क के समय से ही तुर्की की आत्यन्तिक राजनीतिक शक्ति) साथ ही राज्य के अन्य गम्भीर स्तम्भ गुप्तचर सेवा, न्यायपालिका , कानून प्रवर्तन तथा उनके आपराधिक सहयोगी। एकेपी की सरकार ने अतातुर्क की उस विरासत को भी उलट दिया जिसके अन्तर्गत वे नेतृत्व और प्रेरणा के लिये पश्चिम की ओर देखते थे।
पिछले दशक का सबसे आश्चर्यजनक घटनाक्रम इस्लामवाद विरोधी शक्तियों अतातुर्कवादी, समाजवादी, पश्चिमवादी और सेना का लगभग ध्वस्त हो जाना है। विरोधी नेताओं ने एकेपी के कदमों को " ना" कहने के अतिरिक्त कुछ अधिक नहीं किया , कुछ सकारात्मक कार्यक्रम अवश्य हाथ में लिये और कुछ तो ऐसे कार्य किये जो कि एकेपी से भी गये गुजरे थे( जैसे दमिश्क और तेहरान समर्थक नीतियों को बढाना) । इसी प्रकार बौद्धिक , पत्रकार, कलाकार और कार्यकर्ताओं ने शिकायतें की परंतु कोई गैर इस्लामवादी दृष्टि और विकल्प देने में असफल रहे ।और इसके बाद एकेपी अब सत्ता में दूसरे दशक में प्रवेश कर चुका है जब कि एरडोगन ने अपने राजनीतिक दल की सभा में " ऐतिहासिक आरम्भ" की बात की और देश पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करने की बात की जैसा कि तुर्की का कोई राजनेता अतातुर्क के समय से नहीं कर पाया हो।
उनकी पहली प्राथमिकता तो स्वयं पर संयम बनाये रखने की और अधिक विस्तार नहीं करने की है। फिर भी ऐसा दिखाई दे रहा है कि वह कुछ ऐसा कर रहे हैं जिससे कि गैर सुन्नी, गैर तुर्की भाषी अल्पसंख्यक अलग थलग अनुभव कर रहे हैं, अधिक ऋण लेते जा रहे हैं, शरिया कानून को काफी शीघ्रता से अमल में ला रहे हैं, संविधान को बदलने का प्रयास कर रहे हैं और सेना के पूर्व नेतृत्व को जेल में डालकर सेना के महत्व को कम कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वे सीरिया के साथ युद्ध कर अलोकप्रिय हो रहे हैं और ईरान इराक और साइप्रस के साथ कहीं अधिक तनावपूर्ण सम्बंध की ओर बढ रहे हैं। किसी समय इजरायल के साथ फल फूल रहा सम्बंध भी अब लुप्त हो रहा है।
यदि एक वर्ष पूर्व ही न्यूजवीक और अन्य के द्वारा तुर्की को मध्य पूर्व का " नया महाशक्ति" बताया जा रहा था तो एरडोगन द्वारा ओटोमन साम्राज्य ( 1200 से 1932) की शक्ति और प्रभाव प्राप्त करने के स्वप्न ने तुर्की के प्रभाव की सीमाओं को विश्व के समक्ष उद्घाटित कर दिया है। नाटो से अपनी दूरी बनाकर, धीरे धीरे शत्रुवत राज्यों से घिरकर , आन्तरिक संकट से दो चार होकर अंकारा अब स्वयं को अधिक अलग थलग और महान शक्ति के स्तर से कहीं अधिक दूर पा रहा है।
यदि एरडोगन अपनी नीतियों के लिये चुनावी समर्थन नहीं प्राप्त करते तो क्या वे सत्ता में बने रहने के लिये गैर लोकतांत्रिक तरीका अपनायेंगे। उन्होंने इसका खुलासा प्रधानमंत्री बनने से पूर्व ही कर दिया था जब काफी प्रसिद्ध बात कही थी, " लोकतंत्र सडक की कार की भाँति है जब आप अपने गंतव्य पर पहुँचें तो उतर जायें"। उनकी परा अधिनायकवादी मानसिकता के दर्शन अभी होते हैं जैसे कि स्वतंत्र न्यायपालिका को चुनौती देना, अपने विरोधियों को जेल में भेजने के लिये मूर्खतापूर्ण षड्यंत्रकारी सिद्दांतों को गढना , अनगिनत पत्रकारों को जेल में भेजना और अमित्र मीडिया कम्पनियों पर भारी भरकम जुर्माना लगाना। ये अधिनायकवादी तरीके दिनों दिन बढ रहे हैं।
एक दशक के विवेकपूर्ण लोकतांत्रिक शासन के उपरांत अनेक भावी संकट , आर्थिक, सीरिया और तुर्की के अल्पसंख्यक के साथ ऐसे संकट हैं जो कि एरडोगन को लोकतंत्र की सडक कार से उतरने के अवसर की ओर संकेत करते हैं। जैसे जैसे एकेपी अपने वास्तविक स्वरूप में आ रहा है और तुर्की गणतंत्र पश्चिम को अस्वीकार कर उत्पीडक, जड और शत्रुवत शासन के चरित्र को दिखा रहा है जो कि मुस्लिम मध्य पूर्व का चरित्र है। देखने की बात तो यह है कि पश्चिम के नेता परिवर्तन को भाँप पर इसी अनुरूप आचरण करते हैं या फिर अतातुर्क की दृष्टि के उसी देश को पकडे रहते हैं जिसका कि अब अस्तित्व ही नहीं है।