कौन अधिक बुरा है, निर्वाचित इस्लामवादी राष्ट्रपति मोहम्मद मोर्सी जो कि मिस्र में इस्लामी कानून को लागू करना चाहते हैं या फिर राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक जो कि पूर्व तानाशाह थे और एक राजवंश की स्थापना का प्रयास करते हुए अपदस्थ किये गये ? अधिक विस्तार में कहें तो प्रश्न है कि क्या मतपेटियों के बाहर आयी व्यवस्था में इस्लामवादी विचारकों के अधीन एक उदारवादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था का उदय सम्भव है या फिर उन लालची तानाशाहों की व्यवस्था की ठीक थी जिनका कि अपने अस्तित्व और सत्ता को बचाये रखने से परे कोई एजेंडा नहीं था?
मोर्सी के हाल के क्रियाकलापों से इसका उत्तर मिलता है कि इस्लामवादी तानाशाहों से कहीं अधिक बुरे हैं।
यह विषय एक रोचक बहस में अक्टूबर के आरम्भ में डिबेट फार इंटेलिजेंस स्कवेर्ड यू एस में सामने आया जब फाउंडेशन फार द डिफेंस आफ डेमोक्रेसिस के रियूल मार्क गेरेच और सेंटर फार अमेरिकन प्रोग्रेस के ब्रायन काटुलिस ने तर्क दिया कि " तानाशाहों से बेहतर निर्वाचित इस्लामवादी हैं" "Better elected Islamists than dictators। जबकि अमेरिकन इस्लामिक फोरम फार डेमोक्रेसी के जुहदी और मैंने इसके विपरीत अपना मत व्यक्त किया। वैसे तो किसी ने भी अपने तर्क को लेकर हठधर्मिता नहीं दिखाई। दूसरे पक्ष के लोगों ने इस्लामवादियों का पक्ष नहीं लिया और हमने भी तानाशाहों को लेकर अधिक उत्साह नहीं प्रदर्शित किया। मुद्दा यह रहा कि दोनों बुराईयों में कौन शासक कम बुरा है और लोकतंत्र के साथ आ सकता है।
कटुलिस ने तानाशाहों पर आरोप लगाया कि उन्होंने ही ऐसी विचारधाराओं की प्रेरित किया जिसके चलते 11 सितम्बर की घटना घटी तो वहीं गेरेच ने इस बात पर जोर दिया कि सैन्य शासकों को वास्तविक खतरा माना जाना चाहिये न कि इस्लामवादियों को .... " मध्य पूर्व में अधिक उदारवादी व्यवस्था आने का एक ही मार्ग है और वह है लोगों की आस्था" जिन्होंने कि इस्लामवादियों को सत्ता प्रदान की है। कटुलिस ने तर्क दिया कि निर्वाचित इस्लामवादी समयानुकूल परिवर्तित होते हैं और समय के साथ कम विचारधारागत और अधिक व्यावहारिक होते जाते हैं और " मौलिक आवश्यकताओं" जैसे सुरक्षा और रोजगार के अनुरूप उनकी राजनीति का केंद्रबिंदु बदल जाता है।
गेरेच ने कहा कि इराक में ऐसा पाया गया कि , " ऐसे लोग जो कि किसी समय कट्टर इस्लामवादी हुआ करते थे वे यदि उदारवादी नहीं तो लोकतांत्रिक अवश्य हो गये हैं"। जहाँ तक मिस्र की बात है तो उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि , " मुस्लिम ब्रदरहुड में गम्भीर रूप से आन्तरिक बहस आरम्भ हो गयी है क्योंकि वे अभी यह तय नहीं कर सके हैं कि उन्हें सफलता को कैसे आगे ले जाना है । हम तो यही चाहते हैं कि वे इस स्थिति से बाहर आयें"
जासेर और मैंने इस सर्वथा त्रुटिपूर्ण सूची का उत्तर दिया ( कि सैन्य शासकों के चलते 11 सितम्बर की घटना घटी) और इस आशावादी सोच का उत्तर भी दिया ( वास्तविक आस्थावान अपने उद्देश्य के साथ समझौता करेंगे? इराकी इस्लामवादियों की बडी संख्या उदारवादी हो गयी है?) और इस क्रम में अपना पहला तर्क रखा कि इस्लामवादी विचारक " नशीली दवा के रूप में तानाशाह है" जो कि सत्ता प्राप्त करने के उपरांत नरम नहीं होते वरन उसे खोद डालते हैं और ऐसा आधार निर्मित करते हैं कि सत्ता में शास्वत रूप से रह सकें। दूसरा,विचारक उन मुद्दों की उपेक्षा करते हैं जो कि हमारे विरोधी उठा रहे हैं , विचारक इस्लामी कानून लागू करने के पक्ष में सुरक्षा और रोजगार की उपेक्षा करते हैं। इसके विपरीत लोभी तानाशाह विचारधारा के स्तर पर अल्पकालिक होते हैं और समाज को लेकर उनकी कोई सोच नहीं होती और इस कारण उन्हें आर्थिक विकास, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, राजनीतिक प्रक्रिया आरम्भ करने और कानून का शासन स्थापित करने के लिये समझाया जा सकता है ।( उदाहरण के लिये दक्षिण कोरिया) ।
मोर्सी और मुस्लिम ब्रदरहुड ने ठीक हमारी पटकथा को अपनाया है । अगस्त में सत्ता में आने के बाद से मोर्सी ने (1) सेना को किनारे लगाया, फिर उनकी शक्ति को कम करते हुए अपनी प्रमुखता स्थापित करने की दिशा में कदम बढाया और इसी क्रम में 22 नवम्बर को अनेक आदेश जारी किये जिससे कि उन्हें अधिनायकवादी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं और अपने विरोधियों के बारे में इजरायलवादी षडयंत्रकारी सिद्दांत का प्रचार होता है। (2) इसके बाद 30 नवम्बर को इस्लामवाद समर्थक संविधान की चोट करते हुए इसके लिये व्यापक जनमत संग्रह के लिये 15 दिस्म्बर की तिथि घोषित कर दी। इन दो मुद्दों में व्यस्त रहते हुए उन्होंने प्रायः उन सभी व्यापक मुद्दों की अवहेलना की जो कि मिस्र के लिये आवश्यक हैं विशेष रूप से तेजी से बढता आर्थिक संकट और खाद्य आयात के लिये वित्त की कमी।
मोर्सी ने जिस प्रकार सत्ता पर नियंत्रण स्थापित किया उससे इस्लामवादी विरोधी मिस्रवासियों को " नेशनल सालवेशन फ्रंट" जैसी शक्तियों के साथ जाकर छह दशक में पहली बार इस्लामवादियों का मुकाबला सडकों पर हिंसक रूप से करना पडा ताकि उन्हें 22 नवम्बर के अपने आदेशों में आंशिक परिवर्तन के लिये विवश किया जा सके। यह बिडम्बना है कि अगस्त में मोर्सी ने सेना को दरकिनार कर दिया था परंतु मोर्सी ने जिस प्रकार सत्ता पर बडी पहुँच बनाने का प्रयास किया उस क्रम में पुनः जनरलों को वास्तविक शक्ति प्राप्त हो गयी,जो कि उनके लिये या उनके विरुद्ध हस्तक्षेप कर सकते हैं।प्रस्तावित संविधान में सेना के लिये विशेषाधिकार की व्यवस्था कर तथा इस्लामवाद के प्रति सहानुभूति रखने वालों को शीर्ष अधिकारी चुनकर उन्होंने उनका समर्थन प्राप्त कर लिया है। इसके उपरांत मार्शल ला की ही सम्भावना है।
मात्र तीन माह में ही मोर्सी ने प्रदर्शित कर दिया है कि वह मुबारक से भी अधिक तानाशाह हैं और उनका शासन मिस्र के लिये मुबारक से भी बडी आपदा है । उन्होंने पूरी तरह मेरे और जासेर के बिंदु को पुष्ट किया है कि निर्वाचित इस्लामवादियों से बेहतर तानाशाह हैं। जैसा कि मैंने बहस में कहा कि पश्चिमवालों को चाहिये कि वे विचारधारक तानाशाहों जैसे इस्लामवादियों पर भी उतना दबाव डालें जितना कि लोभी तानाशाहों पर ताकि सिविल सोसाइटी के लिये मार्ग प्रशस्त हो सके। दोनों प्रकार के अधिनायकवाद में से निकलने का यही एक मार्ग है।