क्या अमेरिका में निवास करने वाला कोई अमेरिकी नागरिक सार्वजनिक रूप से इजरायल के निर्णय लेने की प्रक्रिया पर टिप्पणी कर सकता है?
मैंने हाल में हिजबुल्लाह के साथ इजरायल सरकार की लेन देन की आलोचना अपने लेख Samir Kuntar and the Last Laugh" (The Jerusalem Post, July 21) में की। इस पर तेल अवीव के आतंकवाद प्रतिरोध विशेषज्ञ योराम स्कवीजर ने इस विषय पर मेरे द्वारा विचार व्यक्त कर सकने की उपयुक्तता को चुनौती दी। 24 जुलाई के जेरूसलम पोस्ट के अपने लेख "Not That Bad a Deal" में उन्होंने पाठकों से कहा कि मेरे विश्लेषण का विषय और तेवर , " अपमानजनक है और इस बात की अवहेलना करते हैं कि सरकार और जनता को यह अधिकार है कि वे अपने बारे में निर्णय ले सकें और इसकी कीमत दूसरों के कंधों पर डाल सकें" । उन्होंने मेरी आलोचना करते हुए कहा कि मैं " हजारों मील दूर सुरक्षित स्थान पर बैठकर" इजरायल के विषयों पर अपने विचार कैसे व्यक्त कर सकता हूँ ।
स्कवीजर इस विरोध के पीछे के अपने तर्क को स्पष्ट नहीं करते परंतु यह कोई नई बात नहीं है । क्या कोई व्यक्ति जब तक इजरायल में निवास न करता हो , कर न देता हो, वहाँ की सडकों पर स्वयं को खतरे में न डालता हो , अपनी सन्तान को सेना में न भेजता हो तब तक वह इजरायल की निर्णय लेने की प्रकिया के बारे में कोई अनुमान नहीं लगा सकता । यह विचार तो अमेरिकन इजरायल पब्लिक अफेयर्स कमेटी तथा प्रमुख यहूदी संस्थाओं के कदम का समर्थन करने जैसा है।
मैं उन लोगों की स्थिति का सम्मान करता हूँ हालाँकि उनके अनुशासन को नहीं मानता। अमेरिकी की विदेश नीति के विश्लेषक के तौर पर विदेशी सरकारों के क्रिया कलाप पर प्रतिक्रिया देना तो मेरी रोजी रोटी है तथा जिसने यू एस इंस्टीट्यूट आफ पीस में एक सदस्य के रूप में अपना समय व्यतीत किया है और विदेश और रक्षा विभाग का अंग रहा है तथा जिसने एक स्तम्भकार के रूप में लगभग एक दशक लगाया है वह तो विचार व्यक्त ही करेगा। मेरे कार्यों से पता चलता है कि मैंने ब्रिटेन, कनाडा, डेनमार्क,फ्रांस,जर्मनी, ईरान , नेपल्स , सउदी, दक्षिण कोरिया, सीरिया और तुर्की की सरकारों के कार्यों की भी समीक्षा की है।
यह बात सत्य है कि मेरी संतानें इन देशों की सेनाओं में कार्यरत नहीं हैं परंतु इन देशों में घटित घटनाओं के आधार पर मैं अपने पाठकों के विचार को दिशा प्रदान करता हूँ । यह बात ध्यान देने की है कि इन देशों में से किसी ने भी उनके आन्तरिक मामलों पर की गयी मेरी टिप्पणी को वापस लेने की माँग नहीं की। वैसे तो स्कवीजर भी दूसरों को सलाह देते हैं, उदाहरण के लिये जुलाई 2005 में उन्होंने यूरोप में मुस्लिम नेताओं को निर्देश दिया कि वे कट्टर इस्लामी तत्वों को अधिक सख्ती से अस्वीकार करें। सभी स्वतंत्र विश्लेषक ऐसा करते हैं।
इसलिये स्कवीजर और मैं विश्व में किसी भी घटना पर अपनी टिप्पणी दे सकते हैं, तो क्या जब इजरायल का विषय आये तो मेरा मस्तिष्क विचारों से शून्य हो जाये , मेरी जुबान रुक जाये और मेरे कम्प्यूटर का की बोर्ड स्थिर हो जाये? ऐसा तो अत्यंत कठिन है।
अधिक व्यापक स्तर पर मैं ऐसे समस्त विचार का विरोध करता हूँ कि जो विशेषधिकार सम्पन्न सूचना पर आधारित है कि किसी का स्थान, आयु, नस्ल , अकादमिक उपाधि , अनुभव या अन्य कोई गुण उसके विचारों को स्वीकार्यता देता है। अभी हाल की क्रिस्टोफर कर्फ और विक्टर एस नावास्की की पुस्तक जिसका शीर्षक I Wish I Hadn't Said that: The Experts Speak - and Get it Wrong! है उसमें व्यंग्यात्मक रूप से इस पूरी अवधारणा को ध्वस्त किया गया है। किसी देश में निवास करने मात्र से ही कोई अधिक बुद्धिमान नहीं हो जाता।
वर्ष 2000 में कैम्प डेविड द्वितीय की बैठक में जब एहुद बराक इजरायल की सरकार का नेतृत्व कर रहे थे और मैं उनकी नीतियों से असहमत हुआ था तब एकाधिक बार मेरी समालोचना के बारे में कहा गया कि " बराक इजरायल के इतिहास के सबसे अलंकृत सैनिक हैं और तुम कौन होते हो उनके बारे में बोलने वाले" ? फिर भी विश्लेषक सामान्य रूप से इस बात से सहमत हैं कि कैम्प डेविड द्वितीय का इजरायल के लिये विनाशकारी परिणाम रहा जिसने कि फिलीस्तीनी हिंसा को सक्रिय कर दिया जो कि दो ही माह बाद आरम्भ हो गयी।
किसी सूचना, विचार या विश्लेषण को योग्यता के आधार पर अस्वीकार करना भूल है । सही और महत्वपूर्ण विचार किसी भी कोने से आ सकते हैं यहाँ तक कि हजारों मील दूर से भी।
इस भावना के अनुकूल समीर अल कुंतर घटनाक्रम को लेकर स्कवीजर के सम्बंध में दो प्रतिक्रियाये हैं । स्क्वीजर का तर्क है कि, " शत्रु के हाथ लगे किसी नागरिक या सैनिक को बचा पाने की अक्षमता से इजरायल के समाज का मूल आधार ही ध्वस्त हो जायेगा"। मैं इस बात से सहमत हूँ कि सैनिक को बचाना उपयोगी है और नैतिक रूप से प्राथमिकता है परंतु इसकी भी अपनी सीमायें हैं। उदाहरण के लिये सरकार को अपने सैनिकों को बचाने के बदले आतंकवादियों के हाथों जीवित नागरिकों को नहीं सौंप देना चाहिये। ओल्मर्ट सरकार ने पिछले सप्ताह जो किया वह कहीं अधिक है।
एक और विशेष बात: स्कवीजर का दावा है कि, " आनुपातिक आधार पर कहें तो हिज्बुल्लाह के साथ हाल का लेन देन कहीं सस्ता है। यह बहस का विषय है कि क्या कुन्तर की रिहाई से हिज्बुल्लाह को कोई नैतिक विजय मिली है" । अब यदि यह सौदा सस्ता है तो मैं कल्पना कर सकता हूँ कि मँहगा सौदा कैसा होगा? कुंतर की लेबनान में वापसी के बाद सरकार ने अपना कामकाज रोककर उत्सव मनाया और इसके बाद भी हिज्बुल्लाह की विजय से इंकार करना तो जानबूझकर आँख मूँदना है।