जबकि अमेरिका के लोगों को भयानक और गरिष्ठ विकल्पों में से एक का चयन करना है कि या तो ईरान के क्रांतिकारी नेतृत्व के हाथ में परमाणु हथियार आते देखें या फिर ऐसा होने से पूर्व ही कार्रवाई करते हुए इसकी परमाणु क्षमता पर आक्रमण कर दें , ऐसे समय में एक विश्लेषक ने एक तीसरे मार्ग का सुझाव दिया है । रोचक बात यह है कि इसकी प्रेरणा एक दूसरे शत्रु के सम्बंध में अपनाई गयी नीति से ली गयी है और वह नीति है रीगन प्रशासन द्वारा सोवियत संघ के सम्बंध में अपनायी गयी नीति, हालाँकि इस माडल की सम्भावना कम ही है परंतु इसे देखना उचित होगा।
अमेरिका के पूर्व जिला जज और विदेश विभाग के कानूनी सलाहकार अब्राहम डी सोयफर जो कि अब हूवर इन्स्टीट्यूशन के वरिष्ठ फेलो हैं उन्होंने अपने अध्ययन Taking On Iran: Strength, Diplomacy and the Iranian Threat ( हूवर इंस्टीट्यूशन 2013) में तर्क दिया है कि कार्टर प्रशासन के समय में शाह के शासन के पतन के बाद से वाशिंगटन ने , " ईरान की आक्रामकता का उत्तर अप्रभावी प्रतिबंधों और निरर्थक चेतावनी व निंदा से दिया है"
उनका मानना है कि 1988 से ही अमेरिकी सरकार का ध्यान ईरान की सेना पर नहीं गया है जो कि विशेष रूप से देश की इस्लामी व्यवस्था को बचाती है और प्रायः अनेक अवसरों पर बाहर आक्रमण करती है जिसे कि फारसी में पसदारन या सेपाह कहते हैं और अंगेजी में ईरानियन रिवोल्यूशरी गार्ड कार्प्स या आईआरजीसी कहते हैं। यह आम तौर पर 125,000 की मजबूत कुलीन सेना है जिसे कि 1980 में निर्मित किया गया और ईरान की राजनीति और आर्थिक स्थिति में इसकी कहीं अधिक बडी भूमिका है। इसके पास अपनी सेना, नौसेना और वायु सेना है , इसका नियंत्रण बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम पर भी है और यह देश के परमाणु कार्यक्रम पर भी कुछ मात्रा में नियंत्रण रखती है। यह बसीज भी चलाती है जो कि ईरान की जनता पर सख्ती से इस्लामी मूल्यों को लागू कराती है । इसकी सेना नियमित सेना से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इसकी 15,000 की कद्स सेना घुसपैठ और हत्या के माध्यम से खोमैनी की क्रांति को देश से बाहर फैलाती है। इसके प्रशिक्षित लोग ईरान की सरकार में प्रमुख पदों पर हैं।
आईआरजीसी ने अमेरिका के लोगों और उसके सहयोगियों पर आक्रमण में अग्रणी भूमिका निभाई है , विशेष रूप से जब आईआरजीसी को उसके साझेदारों से जोडा जाये जैसे कि हिज्बुल्लाह, हमास , मुक्तादा अल सद्र आंदोलन यहाँ तक कि तालिबान और अल कायदा भी। आईआरजीसी की उपलब्धियों में 1983 में लेबनान में अमेरिकी दूतावास और मरीन बैरक पर बम से आक्रमण सहित 1992 और 1994 में अर्जेंटीना में यहूदी निशाने पर बम से आक्रमण , 1996 में सउदी अरब में खोबार बैरक में बम से आक्रमण , 2011 में वाशिंगटन में सउदी राजदूत की हत्या का प्रयास और 2012 में इजरायल से साथ युद्ध के लिये हमास को मिसाइल उपलब्ध कराना।
कुल मिलाकर आईआरजीसी के आक्रमण से 1,000 अमेरिकी सैनिकों , अन्य सेना के जवानों तथा गैर लडाकू लोगों की मौत हो चुकी है। अमेरिकी सरकार ने आईआरजीसी की निंदा करते हुए इसे आतंकवाद को राज्य की ओर से प्रायोजित करने वाला बताया है और इसे जनसंहारक हथियारों के प्रसार करने वाले के रूप में माना है।
सोयफर ने तेहरान के लिये दो पक्षीय रुख रखने की बात की है : " आईआरजीसी की आक्रामकता का सीधे सामना किया जाये और ईरान के साथ बातचीत की जाये"
Confrontation means Washington exploits "the full range of सीधा सामना करने से अर्थ है कि वाशिंगटन " उन सभी विकल्पों पर विचार करे जिनसे कि आईआरजीसी को रोकने के लिये परमाणु स्थानों पर आक्रमण किया जाये" । उनका तर्क है कि अमेरिका की सेना को अधिकार है और उन्हें अस्त्र से सम्बंधित ऐसी फैक्ट्रियों और भंडारण स्थल को निशाना बनाना चाहिये जिनका सम्बंध आईआरजीसी से है ( ऐसे आधार, पोर्ट ,ट्रक , विमान और जहाज) और ऐसे शस्त्र जिन्हें कि निर्यात किया जाना है साथ ही आईआरजीसी शाखा को भी।सोयफर का लक्ष्य मात्र आईआरजीसी की हिंसा को रोकना नहीं है वरन, "आईआरजीसी की विश्वसनीयता और प्रभाव को भी कम करना है और ईरान को इस बात के लिये राजी करना है कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम पर बातचीत करे"।
बातचीत का अर्थ है कि बचे मुद्दों पर ईरान से बातचीत करना न कि इसे दन्डित करने का प्रयास करना। सोयफर ने अफगानिस्तान के लिये अमेरिका के विशेष पूर्व दूत जेम्स डोबिंस को उद्धृत करते हुए कहा , " इस समय ईरान के प्रति उन्हीं नीतियों को अपनाया जाना चाहिये जिसके चलते शीत युद्ध जीता गया , वारसा संधि से मुक्ति मिली , यूरोप को एकजुट किया गया और वह है घेराबंदी , जहाँ भी सम्भव हो चर्चा और यदि आवश्यक हो तो सीधे सामना। हमने स्टालिन के रूस से बात की। हमने माओ के चीन से बात की। दोनों ही मामलों में परस्पर खुलने से उनकी व्यवस्था बदल गई न कि हमारी। यह समय है कि जब ईरान से बिना शर्त और व्यापक रूप से बात की जाये" । एक और पूर्व अमेरिकी कूटनयिक चेस्टर ए क्रोकर का मानना है कि, " सोयफर कूटनीति को ऐसे इंजिन के रूप में देखते हैं जो कि कच्ची ऊर्जा और वास्तविक शक्ति को अर्थपूर्ण राजनीतिक परिणाम में बदल देती है"
सोयफर अपेक्षा करते हैं कि एक साथ सीधे सामना और बातचीत करने से तेहरान पर दबाव पडेगा और वह सामान्य रूप से अपने व्यवहार में ( विशेष रूप से आतंकवाद के विषय में) परिवर्तन कर देगा और सम्भवतः इससे वह अपना परमाणु कार्यक्रम रोक देगा परंतु साथ ही यदि सभी विकल्प असफल सिद्ध हों तो अपनी ओर से पहले आक्रमण को भी खुला रखा जाये।
पूर्व विदेश मंत्री जार्ज पी शुल्ज ने टाकिंग आन ईरान में अपनी भूमिका में सोयफर के विचार को , " ऐसा विकल्प कहा है कि जिसे कि काफी पहले क्रियांवित किया जाना चाहिये था" । निश्चित रूप से यह अवसर है कि आईआरजीसी के उत्पीडन को लेकर शक्ति की भाषा में उत्तर देना चाहिये जिसे कि ईरान के नेता समझते हैं और शायद इसी के चलते अधिक शत्रुता की सम्भावना से भी बचा जा सकता है।