सूडान में गुलामी की व्यवस्था 1983 से ही बडे पैमाने पर अस्तित्व में है एक समय यह गर्मागर्म चर्चा का विषय था परंतु अब ऐसा नहीं है। इसकी उपस्थिति को अमेरिका के विदेश विभाग, संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष रिपोर्ट और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी पुष्ट कर दिया है।
इस मामले में सूडान की उग्रवादी इस्लामी सरकार की लापरवाही पूरी तरह स्थापित हो चुकी है । यह उग्रवादियों को ईसाई बहुल दक्षिणी सूडान में आतंक फैलाने के लिये और गैर मुसलमानों को दबाने के लिये हथियार प्रदान करती है। यह जिहाद ही है ताकि मुस्लिम शासन को बढाया जा सके , जिहाद के योद्धा घरों और चर्च को को जलाते हैं , लोगों को लूटते हैं और उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं तथा महिलाओं और बच्चों को बंधक बना लेते हैं। इन गुलामों को उत्तर की ओर जाने के लिये विवश किया जाता है और इस क्रम में उन्हें मारा जाता है, उनसे जबरन काम कराया जाता है और आवश्यक रूप से इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाता है। महिलाओं और अधिक आयु की बालिकाओं के साथ कर्मकांडिक सामूहिक दुष्कर्म होता है , लिंग को क्षत विक्षत किया जाता है और यौन गुलाम की भाँति जीवन व्यतीत करने को विवश किया जाता है।
सौभाग्य से 1990 के आरम्भ में सूडान के लोगों ने इन मान्यताओं का विरोध आरम्भ किया और मुस्लिम व गैर मुस्लिम दोनों ने एक साथ गुलामों को मुक्त कराने के लिये एक व्यवस्था निर्मित की। गुलामों को वापस प्राप्त करने वाले सामान्य रूप से ( स्थानीय करेंसी में 333 अमेरिकी डालर में गुलामों को खरीदते थे) । इसके पश्चात एक खौफनाक यात्रा में वे गुलामों को दक्षिण और उनके गृह क्षेत्र को वापस भेज देते थे।
इस भूमिगत रेलमार्ग को गति देते हुए एक छोटे से मानवाधिकार संगठन क्रिस्चियन सोलिडैरिटी इंटरनेशनल ने 1995 में उन गुलामों को फिर से वापस खरीदना आरम्भ किया और उन्हें तत्काल मुक्त करवा दिया। सीएसआई और उसके मुख्य सहयोगी अमेरिकन एन्टी स्लेवरी ग्रुप ने व्यक्तिगत दानदाताओं से पश्चिम में पर्याप्त आर्थिक सहायता एकत्र की और हजारों गुलामों को मुक्त कराया।
ऐसा प्रतीत हुआ कि अमेरिका के लोगों ने अपने स्वभाव के अनुरूप ही पर्याप्त समर्थन दिया। चर्चों में उपासना करने वालों ने और गिरिजाघरों में प्रार्थना करने वालों ने प्रार्थना की। विद्यालय के बच्चों ने आर्थिक सहायता एकत्र की। अश्वेत नागरिक अधिकार नेता और श्वेत परम्परावादी सविनय अवज्ञा के कार्य के लिये जेल भी गये।
यह दयावान प्रतिक्रिया कोई आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि यह लम्बे समय से चली आ रही यहूदी ईसाई परम्परा का ही अंग है जिसके अंतर्गत गुलामों को मुक्त कराने के लिये धन देते रहे हैं जब उन्हें मुक्त कराने का और कोई व्यावहारिक मार्ग शेष नहीं रहता रहा है। दो रोमन कैथोलिक व्यवस्था ( ट्रिनीटेरियन और मर्सीडोर्स ) तो विशेष रूप से ईसाई गुलामों को मुक्त कराने के लिये ही अस्तित्व में आई । यहूदी परम्परा में किसी गुलाम को मुक्त कराना किसी भूखे को खाना खिलाने से बडा दायित्व है। अनेक अमेरिकी गुलामों जिसमें कि फ्रेडरिक डगलस भी शामिल हैं उन्हें बंधन से मुक्त कराया गया। सूडान के एकमात्र दीक्षित संत मदर बखीता भी स्वयं मुक्त कराई गयी गुलाम हैं।
इस इतिहास से कोई यह अनुमान लगा सकता है कि सूडान में गुलामों को मुक्त कराना विवाद से परे रहा है। किसी की भी यह सोच गलत है, खारतूम ने अनेक मुस्लिम सरकारों के साथ गुलामों को मुक्त कराने वालों पर आरोप लगाया कि वे इस्लाम को बदनाम कर रहे हैं साथ ही अन्य आरोप भी लगाये।
यूरोप के देशों ने मुस्लिम देशों में अपने व्यापक हितों को देखते हुए सूडान से गुलामों को मुक्त कराने के अभियान को अपने हितों के लिये खतरे से भरा माना। अमेरिकी सरकार ने कुछ बेहतर ढंग से व्यवहार किया और सूडान में अपने अन्य हितों को गुलामों को मुक्त कराने से टकराव वाला माना (उग्रवादी इस्लाम के बारे में खुफिया जानकारी एकत्र करना, महत्वपूर्ण तेल आपूर्ति तक पहुँच बनाना , इराक के विरुद्ध सैन्य अभियान के लिये अनुमति प्राप्त करना)
इसलिये वाशिंगटन ने गुलामों को मुक्त कराने को लेकर कुछ मद्धिम रुख अपनाया, जो कि प्रशंसा के योग्य है परंतु अब भी यह लागू न होने वाली शांति योजना है जिसके अंतर्गत सूडान को लोकतन्त्र का दुर्ग बनाने की योजना है। इस कारण अमेरिकी सरकार ने एक ऐसे आयोग को आर्थिक सहायता प्रदान की जिसमें कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित लोग शामिल थे और उन्होंने पाया कि , " सिद्धांत रूप में किसी व्यक्ति को अपहरण करने वाले या बंधक बनाने वाले व्यक्ति को उसकी मुक्ति के लिये किसी को धन नहीं देना चाहिये"
गुलामों को मुक्त कराने के प्रयासों की आलोचना दो बातों पर आधारित है। यूनिसेफ का दावा है कि गुलामों को मुक्त कराने से गुलामी का बाजार फैलता है और इस व्यापार को बल मिलता है। 1999 के एक एटलांटिक मंथली के एक लेख के अनुसार , "गुलामों को मुक्त कराने के झूठे वायदे" से पता लगता है कि गुलामों को फिर से खरीदने वाले और जो गुलाम होने का दावा करते हैं उनकी ओर से व्यापक धोखा दिया जाता है।
अभी तक आलोचक अपना पक्ष रखने में असफल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के स्वतंत्र विशेष रिपोर्टर गर्हर्ट बाम ने भी माना कि गुलामों पर छापेमारी में गिरावट आयी है। और जो लोग धोखे की अफवाह फैला रहे हैं उन्हें एक भी झूठे गुलाम या उन्हें प्राप्त करने वाले की पहचान करनी चाहिये जो कि किसी प्रतिष्ठित गुलाम को वापस प्राप्त करने वाली संस्था से जुडा हो। जिस प्रकार वे कोई संतोषजनक उत्तर देने में असफल हैं उससे तो यही प्रतीत होता है कि यह अफवाह मात्र है।
तथ्य तो यह है कि सूडान का भूमिगत रेलमार्ग उन लोगों के लिये झेंप पैदा करता है जो कि सूडान में गुलामों को मुक्त नहीं कराना चाहते हैं। यह विश्व के सबसे प्रताडित मानवों के लिये स्वतंत्र होने की सर्वोच्च आशा है। इसे व्यापक समर्थन मिलना चाहिये।
यद्यपि सूडान के गुलाम अकेले दिखते हैं परंतु वास्तव में वे अन्य स्थानों पर जैसे मैनहट्टन, अल्जीयर्स,जेरूसलम और कश्मीर में जिहाद से पीडित लोगों के समान ही हैं। उग्रवादी इस्लाम ने वैश्विक जिहाद चला रखा है और इसका उत्तर भी वैश्विक ही होना चाहिये।