विश्लेषक इस बात से सहमत होंगे " सीरिया के शासन की क्षमतायें बडी तेजी से कम हो रही हैं" ,कदम दर कदम यह पीछे हट रहा है और विद्रोहियों को सफलता मिलना और इस्लामवादियों का विजयी होना लगभग तय है। इसके उत्तर में मैं तटस्थ रहने की अपनी नीति को बदल रहा हूँ और एक मानवतावादी और दशकों तक असद शासन का शत्रु होने के चलते इस पर लिखने से पूर्व कुछ साँस लेना चाहता हूँ ।
पश्चिमी सरकारों को बशर अल असद की कलंकित तानाशाही का समर्थन करना चाहिये।
इस कठिन सुझाव के लिये मेरे कुछ निम्नलिखित तर्क हैं: दुष्ट शक्तियाँ हमारे लिये कम खतरा उत्पन्न करती हैं जब वे एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध करती हैं। इससे एक तो उनका ध्यान स्थानीय रूप तक सीमित रहता है, दोनों में से किसी एक को भी विजयी होने से रोकता है ( जिससे कि कहीं बडा खतरा उत्पन्न होता है) । पश्चिमी शक्तियों को पराजित हो रहे पक्ष को सहायता प्रदान कर शत्रु के लिये गतिरोध की स्थिति खडी कर देनी चाहिये ताकि उनका संघर्ष अधिक लम्बा खिंचे।
इस नीति के उदाहरण हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के अधिकाँश समय में नाज़ी जर्मनी सोवियत संघ के विरुद्ध आक्रामक था और उत्तरी मोर्चे पर जर्मन सेना को उलझाये रखना सहयोगी देशों के लिये अति आवश्यक था। फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ने जोसेफ स्टालिन को सेना प्रदान की और युद्ध के प्रयासों में उनके साथ सहयोग किया। इसके चलते नैतिक रूप से असंगत परंतु रणनीतिक रूप से आवश्यक नीति सफल रही। और यह भी सत्य है कि स्टालिन असद की तुलना में कहीं अधिक बडा दानव था।
1980से 88 के मध्य हुए इराक और ईरान युद्ध में भी यही स्थिति उत्पन्न हुई। 1982 के मध्य में जब अयातोला खोमैनी की सेनाओं ने सद्दाम हुसैन के विरुद्ध आक्रामक रुख लिया तो पश्चिमी सरकारों ने इराक की सहायता की। यह सत्य है कि इराक के शासन ने शत्रुता दिखाई और अत्यंत क्रूरता भी की परंतु ईरानी वैचारिक रूप से कहीं अधिक खतरनाक थे और उन्होंने आक्रामक रुख अपना रखा था। सबसे अच्छा यही था कि शत्रुता दोनों ओर रहे और किसी भी पक्ष को विजयी होने से रोके रखा जाये। हेनरी किसिंगर के अस्पष्ट शब्दों में "इस पर दया आती है कि वे दोनों नहीं हार सकते"
इस भावना के अनुरूप मेरा तर्क है कि अमेरिका को हारते हुए पक्ष की सहायता करनी चाहिये और वह कोई भी क्यों न हो, जैसा कि मई 1987 के विश्लेषण में मैंने कहा था, " 1980 में जब इराक ने ईरान को धमकी दी थी तो हमारा हित कुछ मात्रा में ईरान के साथ था। परंतु 1982 की गर्मियों से इराक रक्षात्मक हो गया और अब वाशिंगटन पूरी तरह इसके साथ है..... भविष्य की ओर यदि देखें तो क्या इराक एक बार पुनः आक्रामक हो सकेगा वैसे तो यह सम्भव नहीं दिखता परंतु असम्भव भी नहीं है, अमेरिका को फिर से युद्ध में आना चाहिये और ईरान को सहायता करने के सम्बंध में सोचना चाहिये" ।
इसी तर्क के आधार पर आज सीरिया की स्थिति के साथ इसकी समानता है। असद सद्दाम हुसैन की स्थिति में हैं एक क्रूर बाथी तानाशाह जिसने कि हिंसा का आरम्भ किया। विद्रोही सेना की तुलना ईरान के साथ की जा सकती है जो कि आरम्भ में पीडित रहा परंतु समय के साथ शक्तिशाली होता गया और समय के साथ इस्लामवादी खतरे को बढा रहा है। लगातार संघर्ष से पडोसियों के लिये खतरा उत्पन्न हो रहा है। दोनों ही पक्ष युद्ध अपराध में संलग्न हैं और पश्चिमी हितों के लिये खतरा पैदा कर रहे हैं।
हाँ , असद के बचने से तेहरान को लाभ होगा जो कि इस क्षेत्र का सबसे खतरनाक शासन है। परंतु हमें याद रखना चाहिये कि विद्रोहियों की विजय से दुष्ट तुर्की सरकार को बल मिलेगा तथा जिहादी शक्तियाँ शक्तिशाली होंगी और असद सरकार का स्थान उत्साहित और ज्वलनशील इस्लामवादी ग्रहण कर लेंगे। संघर्ष के जारी रहने से पश्चिमी हितों को उतनी क्षति नहीं होगी जितना कि उनके सत्ता प्राप्त कर लेने से। शिया और सुन्नी इस्लामवादी एक साथ मिल जायें इससे बेहतर यही होगा कि हमास जिहादी हिज्बुल्लाह जिहादियों को मारें या फिर इसका उलट हो ।बेहतर यही हो कि दोनों ही पक्षों में से कोई विजयी न हो।
ओबामा प्रशासन एक महत्वाकाँक्षी और नाजुक नीति के लिये प्रयास कर रहा है कि एक ओर तो अच्छे विद्रोहियों को गोपनीय रूप से घातक हथियार और 114 मिलियन अमेरिकी डालर की आर्थिक सहायता प्रदान की जाये और साथ ही बुरे विद्रोहियों के विरुद्ध ड्रोन से सम्भावित आक्रमण की सम्भावना पर भी विचार किया जाये। विचार तो श्रेष्ठ है परंतु दूर से विद्रोही सेना पर नियंत्रण स्थापित कर पाने में सफलता प्राप्त होने की सम्भावना कम है। अवश्यंभावी है कि आर्थिक सहायता इस्लामवादियों को जाये और हवाई आक्रमण में सहयोगी मारे जायें। बेहतर हो कि अपनी सीमाओं को समझा जाये और व्यावहारिक स्वरूप ग्रहण किया जाये और कमजोर पक्ष का साथ दिया जाये।
इसके साथ ही पश्चिमी शक्तियों को अपनी नैतिकता पर भी खरा उतरना चाहिये और नागरिकों के विरुद्ध चल रहे युद्ध को समाप्त कराना चाहिये जिसके चलते लाखों निर्दोष लोग युद्ध की विभीषिका झेल रहे हैं। पश्चिमी सरकारों को ऐसे प्रयास करने चाहिये कि दोनों शत्रु पक्ष युद्ध के नियम का पालन करें , विशेष रूप वे नियम जो योद्धा और गैर योद्धा से अलग थलग करते हैं। इससे विद्रोहियों को आपूर्ति करने वालों पर दबाव पडेगा ( तुर्की, सउदी अरब . कतर ) और सीरिया की सरकार के समर्थकों ( रूस और चीन) को भी सहायता के बदले युद्ध के नियमों का पालन करना होगा, और इसके चलते पश्चिमी शक्तियाँ किसी भी पक्ष द्वारा नियम का उल्लंघन करने पर शक्ति का प्रयोग कर सकती हैं। इससे रक्षा करने के दायित्व की पूर्ति होगी।
सुखद दिन पर जब असद और तेहरान विद्रोहियों से लड रहे हैं और अंकारा दोनों के साथ थक रहा है तो पश्चिमी सहायता सीरिया में गैर बाथी और गैर इस्लामवादी शक्तियों को जानी चाहिये ताकि आज की स्थिति में एक नरम और उदार विकल्प प्रस्तुत हो सके और बेहतर भविष्य की ओर मार्ग प्रशस्त हो सके।