27 -28 मार्च को बेरूत में होने वाली अरब शीर्ष स्तरीय बैठक को लेकर जो मीडिया कवरेज हो रही है उससे तो यही लगता है कि यह अरब इजरायल संघर्ष की दिशा में एक भारी परिवर्तनकारी बिंदु होगा। आरम्भिक उत्साह का कारण सउदी राजकुमार अब्दुल्लाह का एक प्रस्ताव है जिसके अंतर्गत यदि इजरायल जून 1967 की अपनी सीमा पर लौट जाये तो अरब के साथ उसके सम्बंध सामान्य हो सकते हैं। परंतु इस शीर्ष बैठक का एक कम महत्व का पहलू कि क्या यासर अराफात वहाँ होंगे या नहीं? हुस्नी मुबारक ने इसमें भाग लेने से मना क्यों कर दिया? आदि समाचार का शीर्षक बन रहे हैं।
बेरूत में कुछ भी महत्वपूर्ण घटित नहीं होगा। वास्तव में तो एक वर्ष में लोग इस शीर्ष बैठक और अबुल्लाह योजना दोनों को भूल जायेंगे। ऐसा मैं तीन कारणों से कह रहा हूँ।
युद्ध की स्थिति है. यदि अक्टूबर के मध्य में किसी ने अमेरिका और तालिबान से हिंसा समाप्त करने को कहा होता तो दोनों ही पक्षों ने इसे अनसुना कर दिया होता। युद्ध इसलिये होता है कि दोनों पक्षों को लगता है कि वे इससे कहीं अधिक प्राप्त कर सकते हैं जो कि युद्ध के बिना प्राप्त नहीं कर सकते। दोनों पक्ष तब तक लडते हैं कि जबतक एक पक्ष को यह नहीं लग जाता कि उसे मैदान छोड देना चाहिये। जब तक एक पक्ष हार नहीं मान लेता तब तक विभिन्न सुझावों को अलग अलग करने से कोई लाभ नहीं होता।
इस समय इजरायल और फिलीस्तीन दोनों को ही लगता है कि वे हिंसा से अधिक प्राप्त कर सकते हैं न कि बातचीत से। यह कितना भी बुरा क्यों न हो परंतु यह तथ्य है और इसकी अवहेलना करने से कोई लाभ नहीं है।
यह कैंसर पर बैंड एड लगाने जैसा है. मिचेल , टेनेट और अब्दुल्लाह की मेज पर जो समाधान हैं वे एक गम्भीर समस्या का कृत्रिम समाधान हैं। ये सभी प्रस्ताव इस बात के पूर्वानुमान पर आधारित हैं कि अरब इजरायल संघर्ष का मूल अंतर्निहित मुद्दा अरब द्वारा इजरायल के अस्तित्व को ही नकार देना मानों हल हो गया है और अब दोयम दर्जे के मुद्दों जैसे सीमा, जेरूसलम, शरणार्थी , जल और अस्त्र का समाधान निकाला जाना चाहिये। परंतु यदि ओस्लो प्रक्रिया के स्वर्णिम काल में भी अरब द्वारा इजरायल की अस्वीकृति स्वतः स्पष्ट नहीं थी तो यह सितम्बर 2000 में फिलीस्तीनियों के नये हिंसा के चक्र से तो पूरी तरह स्पष्ट है। यह मुद्दा आज भी उतना ही ज्वलंत है जितना कि इजरायल में पिछले 54 वर्षों से प्रासंगिक है और वह है मध्य पूर्व में एक सार्वभौमिक यहूदी राज्य का अस्तित्व ।फिलीस्तीनी राजनीति को ही नष्ट कर देना चाहते हैं जबकि इजरायल स्वीकार्यता चाहते हैं।
इस बात की कोई सम्भावना नहीं है कि जो राष्ट्रपति, राजा या अमीर (या उनके प्रतिनिधि) इस सप्ताह एकत्र होंगे वे इजरायल के अस्तित्व को लेकर अरब शत्रुता को बंद करने के लिये कुछ निर्णय ले पायेंगे। यदि ऐसा सम्भव नहीं दिखता तो यह कल्पना कर पाना कठिन है कि वे क्या ऐसा निर्णय कर लेंगे कि वह एक ऐतिहासिक कसरत से अधिक कुछ हो।
अब्दुल्लाह योजना कभी आरम्भ ही नहीं हो सकेगी. कभी इजरायल के लोग इस बात पर विश्वास करते थे कि अपने शत्रुओं द्वारा हस्ताक्षर किये गये कुछ दस्तावेज के बदले वे पर्याप्त मात्रा में अपना राज्य क्षेत्र छोड दें तो कुछ प्राप्त हो सकता है परंतु अब ऐसी स्थिति नहीं है। मिस्र और जार्डन के साथ शांति समझौते की अत्यन्त कम उपयोगिता देखकर ( इन दोनों ही मामलों में इजरायलवाद विरोध बढा ही ) और ओस्लो समझौते से वास्तविक क्षति देखकर यह विश्वास कर पाना कठिन है कि इजरायल पुनः विनाश के मार्ग पर चलेंगे। निश्चित रूप से वे कागज के टुकडे से अधिक कुछ सार्थक की माँग करेंगे।
विशेष रूप से इसका अर्थ है अपने पडोसियों से दो चीजों की माँग: एक तो ह्रदय परिवर्तन और दूसरा शासन में परिवर्तन। पहले का अर्थ है कि इजरायल की पूरी तरह स्वीकार्यता, जैसा कि मानवीय सम्पर्क, व्यापार , पर्यटन और अन्य प्रकार से प्रदर्शित की गयी है। जबकि दूसरे में अंतर्निहित है कि इसमें अधिक राजनीतिक सहभागिता हो ताकि संधि का अर्थ एक व्यक्ति की इच्छा से अधिक हो।
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उनका कहना है कि मध्य पूर्व में पैगम्बर का समय एक सहस्राब्दी पूर्व समाप्त हो गया । शायद ऐसा हो परंतु यह जानने के लिये कि अरब शीर्ष बैठक एक जम्भाई से अधिक कुछ नहीं है किसी दैवीय प्रेरणा की आवश्यकता नहीं है।