ईरान के नेता जिस प्रकार अपने देश की उत्तरी सीमा के आस पास के मुस्लिम बंधुओं को लेकर रुचि प्रदर्शित कर रहे हैं उससे मोस्को की अपने मुस्लिम समुदाय पर पकड को खतरा उत्पन्न हो सकता है। सोवियत संघ के दो क्षेत्रों में कुल चार करोड मुस्लिम निवास करते हैं जो कि ईरान से सटा है और यह मध्य एशिया और काकेसस के तथाकथित छह मुस्लिम गणतंत्र हैं। वे न केवल अपने ईरानी पडोसियों के साथ इस्लामी मजहब साझा करते हैं वरन वे ईरानी और तुर्की भाषा भी बोलते हैं।
यद्यपि 1917 में हुई रूसी क्रांति से परिवर्तन तो आया परंतु एशिया के इन लोगों का रूसियों के मुकाबले सापेक्षिक कमतर होने की भावना कम नहीं हो सकी जब 19वीं शताब्दी में भारत व क्षेत्र के अन्य भागों पर ब्रिटेन या फ्रांस ने अपना उपनिवेश बनाया परंतु इसे रूस से अपना उपनिवेश बनाया।
अभी भी विदेशियों से शासित हैं . सोवियत लोगों ने एक सीमा से आगे बढकर यह प्रयास किया कि स्वयं को औपनिवेशिक न दिखायें और इन प्रयासों का कुछ लाभ स्थानीय जनता को मिला भी। परंतु मोस्को इस विरोधाभास को झुठला नहीं सकता कि राष्ट्र राज्य के इस वर्तमान युग में मध्य एशिया और काकेसस उन कुछ राज्यों में शामिल है जिस पर कि अब भी बाहरी लोगों का शासन है। पिछली शताब्दी में इन क्षेत्रों में बहुत कुछ परिवर्तन नहीं हुआ है परंतु अब यह स्थिति बदलने वाली है। मुस्लिम अब अलग थलग नहीं रह गये हैं। मूल यूरोपियन लोगों के मुकाबले कहीं अधिक जनसंख्या दर के चलते मुस्लिम जनसंख्या बडी तेजी से बढ रही है और इस शताब्दी के अंत तक यह 10 करोड हो सकती है। यहाँ तक कि भारी रूसी कजाक क्षेत्र में भी सोवियत आँकडे मुस्लिम पक्ष में करवट बदलते नजर आ रहे हैं। अन्य छुटपुट आँकडे भी प्रदर्शित करते हैं कि इस्लामी पुनरुत्थान हो रहा है और यह सब मस्जिदों के अभाव और सोवियत मजहबविरोधी प्रचार के बाद भी हो रहा है।
यदि ईरान में इस्लामी क्रांतिकारी अपनी सत्ता जमा ले जाते हैं तो वे इस पुनरुत्थान को गति प्रदान करेंगे। यह अफगानिस्तान और पाकिस्तान में पहले ही तीव्रता प्राप्त कर चुका है । अफगानिस्तान में काबुल की सोवियत समर्थक सरकार को गाँवों में प्रतिरोध का सामना करना पड रहा है और यही सोवियत संघ के लिये परीक्षा होगी। इन्हीं मुस्लिम तत्वों ने पिछले माह अमेरिका के राजदूत का अपहरण किया और सरकार के उन्हें छुडाने के प्रयास में वे मारे गये।
खोमैनी की पहुँच. ईरान के परोक्ष नेता अयातोला खोमैनी अभी तो सोवियत संघ के बारे में काफी सतर्क होकर बोल रहे हैं ।परंतु पहले वे मध्य एशिया में मुसलमानों की स्थिति पर चिंता प्रकट कर चुके हैं। खोमैनी अपनी इस्लाम की अवधारणा और आधुनिक राज्य के साथ इसके सम्बंध को विदेश नीति के रूप में विस्तारित करना चाहते हैं। यह हाल में फिलीस्तीन लिबरेशन आर्गनाइजेशन के मुखिया यासर अराफात की यात्रा से स्पष्ट हो गया। अरब भाषी मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के शासकों के विपरीत जो पीएलओ के साथ साथी अरब के रूप में अपना लगाव अनुभव करते हैं खोमैनी अराफात को गैर मुस्लिम इजरायल से संघर्ष करने वाले मुस्लिम साथी के रूप में देखते हैं। इसी कारण वे मध्य एशिया में संघर्ष को ऐतिहासिक संदर्भ में देखते हैं जो कि जारी है चाहे वह ( ईसाइयों) जार के रूस या फिर ( नास्तिक) कम्युनिस्टों के विरुद्ध हो।
निश्चित ही खोमैनी अपनी ईरानी सफलता को सोवियत संघ में नहीं दुहरा सकते । अपने सभी तानाशाही तरीकों , कुरूप गोपनीय पुलिस और सेना पर निर्भरता के बाद भी शाह ने ऐसे राज्य की स्थापना नहीं की जो कि मध्य एशिया पर सोवियत नियंत्रण के समान हो।
वैसे सोवियत संघ में इस्लाम के विषय को उठाकर खोमैनी वहाँ मुसलमानों को अपना समर्थन दे रहे हैं और उन्हें ऐसा प्रवक्ता दे रहे हैं कि इस कम जाने जाने वाले क्षेत्र पर लोगों का ध्यान जा रहा है। यदि ईरान में इस्लामी सरकार का अभ्युदय होता है तो सोवियत के लिये काफी समस्या पैदा करेगा ।