पिछले जून में फिलीस्तीनी टेलीविजन ने गाजा मस्जिद से एक प्रवचन प्रसारित किया जिसमें कि इमाम इब्राहिम मादी ने निम्नलिखित बयान दिया: "ईश्वर की इच्छा है कि अन्यायी इजरायल राज्य को नष्ट किया जायेगा ; अन्यायी राज्य अमेरिका भी समाप्त किया जायेगा ; यह अन्यायी राज्य ब्रिटेन भी समाप्त किया जायेगा"
शेख के इस प्रवचन से मस्तिष्क में इजरायल के नागरिकों पर आक्रमण करने के उद्देश्य से शस्त्र निर्मित करने के फिलीस्तीनी प्रयासों का खुलासा एक बार पुनः हुआ है। सबसे हाल का आक्रमण पिछली रात का है जब फिलीस्तीनी ने हैंड ग्रेनेड का प्रयोग कर पाँच इजरायलियों को मौत के घाट उतार दिया और तीस से अधिक को घायल कर दिया और यदि आतंकवादी के शरीर पर लगा विस्फोटक फटा होता तो शायद इससे अधिक लोग मारे जाते।
हालाँकि अमेरिका और इजरायल की स्थितियाँ पूरी तरह भिन्न हैं परंतु शेख मादी के बयान से हमें स्मरण हो जाता है कि उग्रवादी इस्लाम की शक्तियाँ दोनों को एक साथ जुडा हुआ मानती हैं। तो यदि यह याद दिलाना आवश्यक है कि आतंकवाद के विरुद्ध अभियान अफगानिस्तान से बाहर जाता है तो फिलीस्तीनी यह याद दिलाने का सबसे सशक्त माध्यम है। अफगानिस्तान में उग्रवादी इस्लामी शासन इतिहास की बात हो सकती है पर उग्रवादी इस्लाम नहीं ।
ओसामा बिन लादेन ने वर्षों पूर्व अपने मित्र मुल्ला उमर के साथ सभी ईसाइयों और यहूदियों के विरुद्ध जिहाद की घोषणा की थी , तालिबान का तानाशाह सार्वजनिक रूप से " अमेरिका को नष्ट करने की बात करता है" , और उसकी यह आशा है कि यह अत्यंत अल्प समय में हो जायेगा। उग्रवादी इस्लामी नेता यही इजरायल के लिये आशा रखते हैं परंतु यह शायद ही समाचार का हिस्सा बनता है। इन सबमें सबसे शक्तिशाली ईरान का सर्वोच्क नेता अयातोला अली खोमैनी है जिन्होंने कि हाल में कहा कि, " कैंसर के ट्यूमर बन चुके इस राज्य को इस क्षेत्र से हटाया जाये"
निश्चित रूप से स्थितियों में अंतर है। अमेरिका के विरुद्ध जिहाद अभी नया है और कम विकसित है और गैर उग्रवादी इस्लामी तत्वों द्वारा अधिक समर्थित भी नहीं है । परन्तु विशेष रूप से जब अमेरिका ने औपचारिक रूप से आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर रखी है तो दोनों राज्यों के साझा लक्ष्य बढ जाते हैं।
जहाँ तक निशाने पर आये राष्ट्रों का प्रश्न है तो इजरायल इसे काफी पहले से सीख चुका है। इजरायल को नष्ट करने का प्रयास 1948 में इसकी स्थापना के साथ ही हो गया था। पिछली आधी शताब्दी से बहुसंख्यक अरबवासी इजरायल को एक अंतरिम स्थिति मानते हैं , एक ऐसा शत्रु जिसे अंत में तो समाप्त ही होना है और सबसे अच्छी स्थिति में इजरायल के लोगों को फिलीस्तीन के नागरिक के रूप में जीवित रहने की अनुमति दे सकते हैं । सबसे बुरा क्या है कौन जानता है?
जब इजरायल अस्तित्व में आया तो अरबवासियों ने अनुमान किया कि वे इसे नष्ट कर देंगे। परन्तु इजरायलवालों ने कुछ सही किया। 45 वर्षों तक यह राज्य स्वयं को मजबूती और संकल्प से बचाता आया और 1993 से अरबवालों को अवसर से दिया । यह अवसर था जब इजरायल अपने लाभ की स्थिति की ओर बढ सकता था और सदैव के लिये अपने अस्तित्व के अधिकार की स्वीकृति को प्राप्त कर सकता था।
इसके बजाय इजरायल ने जो कुछ किया वह एक ऐतिहासिक भूल थी कि पकड ढीली कर दी। विजय का मार्ग चुनने के स्थान पर उन्होंने अपने दो शत्रुओं सीरिया और फिलीस्तीन को लाभदायक समझौते दे दिये।
जैसी कि अपेक्षा थी कि इन प्रस्तावों का उल्टा परिणाम हुआ: इन कदमों को संघर्ष समाप्त करने के दूरगामी रणनीतिक रियायत के स्थान पर इजरायल के घटते मनोबल के संकेत के रूप में लिया गया। इसके परिणामस्वरूप अरबवासियों को नये सिरे से आशा जगी कि वे हथियार के दम पर इजरायल को नष्ट कर सकते हैं और हिंसा में वृद्धि हुई । दूसरे शब्दों में कूटनीति से यहूदी राज्य को समाप्त करने का अरब स्वप्न पुनर्जीवित हो गया।
वास्तव में अरब अस्वीकृति की दीवार इजरायल को क्षति पहुँचाती है और एक सामान्य राष्ट्र के रूप में इसके दावे से इसे वन्चित करते हैं, जिससे कि इसकी जनसंख्या पर घातक हमले होते हैं और इससे यह अपने पडोसियों के विरुद्ध कठोर कदम उठाने को विवश होता है। परंतु इजरायल इन आक्रमणों के बाद भी फल फूल रहा है , एक उच्चस्तरीय जीवन , एक लोकतांत्रिक नीति और एक जीवन्त संस्कृति के साथ।
यह बडी विडम्बना है कि अरबवासियों को अपने विध्वंसक आग्रह के लिये बडी कीमत चुकानी पड रही है। यहूदी राज्य को रोकने पर अरबवासियों के ध्यान देने से उनके प्रतिभाशाली और शालीन लोग अपनी क्षमता को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। इसका अर्थ है कि वे अपने जीवन स्तर में सुधार करने करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं , अपनी राजनीतिक प्रक्रिया को खोल नहीं रहे हैं या फिर कानून के शासन को प्राप्त नहीं करना चाहते। इसका परिणाम स्पष्ट है कि विश्व के तानाशाहों के प्रतिशत में अरब के लोग हैं , दुष्ट राज्य हैं, हिंसक संघर्ष हैं और सेना पर खर्च है।
अरबवासियों को इजरायल के अस्तित्व के लिये राजी करना कहने में सरल है पर वास्तव में ऐसा नहीं है। परंतु यही एकमात्र समाधान है। यही हृदयपरिवर्तन शताब्दी पुराने संघर्ष को समाप्त कर सकता है , इसी से इजरायल में सामान्य स्थिति आ सकती है और इसी से अरबवासी आधुनिकता के मार्ग पर प्रशस्त हो सकते हैं।
परंतु अरब इजरायल संघर्ष की इस व्याख्या से दायित्व अरब पर जाता है जो कि इनदिनों हम करने के अभ्यासी नहीं हैं। परम्परागत विवेक ऐसे परिवर्तित हो चुका है कि अब इजरायलवासी भी मानते हैं कि अरब स्वीकृति निश्चित है और इसका दायित्व इजरायल पर है कि वह रियायत दे ( गोलन पहाडियाँ देना , जेरूसलम के कुछ भाग देना आदि) । परंतु यदि उस समय उस स्थिति की साख थी तो आज के तीखे बयानों और फिलीस्तीनी हिंसा का दौर यह सिद्ध करता है कि वह दिवास्वप्न था।
इजरायल को अरब को यह समझाना ही होगा कि उनका इजरायल को नष्ट करने का स्वप्न असफल हो जायेगा। इसे क्रियात्मक रूप देने का अर्थ है कि संकल्प और ढृढता । इसका अर्थ है कि वे डरें न कि प्रेम करें। यह प्रक्रिया न तो घरेलू स्तर पर सुखद है और न ही अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय। परंतु और क्या विकल्प है? ओस्लो समझौते की असफलता यह दिखाती है कि तत्काल समस्या के समाधान के प्रयास से असफलता ही मिलती है।
संघर्ष को इस प्रकार समझने के अनेक परिणाम होने वाले हैं। इसका अर्थ है कि बाहरी विश्व जो कि अरब इजरायल संघर्ष के समाधान के लिये उत्सुक रहता है वह अधिक सहायक तभी हो सकता है जब इजरायल की अरब अस्वीकृति के मूल तत्व के समझौते से सामने आये। इसे यह मानना होगा कि इजरायल आपताकालानी स्थिति में है और उसकी दृढ्ता को सहन करना होगा और अरबवालों पर दबाव बनाना होगा कि वे अपने व्यवहार में परिवर्तन करें ।
अनेक सरकारों को यहाँ तक कि अमेरिका को भी अपनी वर्तमान नीति में आमूल परिवर्तन करना होगा कि इजरायल रियायत करे। ऐसा नीतिगत परिवर्तन सरल नहीं है परंतु यदि कोई अरब इजरायल संघर्ष के समाधान के लिये उत्सुक है तो यह पूर्वशर्त है।