अमेरिका प्रायोजित इजरायल फिलीस्तीनी " शान्ति प्रकिया" दिसंबर 1988 में आरम्भ हुई जब फिलीस्तीन लिबरेशन आर्गनाइजेशन के नेता यासर अराफात ने अमेरिका की शर्तें मान लीं और " संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 242 और 338 को स्वीकार करते हुए इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए आतंकवाद को छोड़ दिया" ( असल में तो जिस प्रकार की अंग्रेजी का उच्चारण अराफात करते थे उससे तो लगा कि उन्होंने Terrorism नहीं बल्कि tourism छोड़ा है)
यह शान्ति प्रक्रिया दिसम्बर 2016 को अंतिम साँसें गिन रही है कि जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपना प्रस्ताव 2334 पारित किया जिसके बारे में फिलीस्तीन संघर्ष के शायद सबसे जानकार विश्लेषक खालेद अबू तोमेह ने विश्लेषण किया है कि इस प्रस्ताव में फिलीस्तीनी लोगों से कहा गया है " इजरायल के साथ बातचीत के बारे में भूल जाओ | केवल अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर दबाव बनाओ कि इजरायल समझौते के अनुसार आचरण करे और आपकी सभी मांगो के सामने समर्पण करे"|
28 वर्षों की कुंठा और व्यर्थ प्रयासों का कोई लाभ होता नहीं दिख रहा है और अब अगला प्रश्न उठता है कि "अब आगे क्या" ?
मेरा प्रस्ताव है इजरायल की विजय और फिलीस्तीन की पराजय| इसका अर्थ है कि वाशिंगटन को इजरायल को इस बात के लिए प्रेरित करना चाहिए कि महमूद अब्बास , खालेद मशाल , सईब एराकात, हनान अशरावी सहित उनके दल को यह आभास हो कि उनका रथ अब रुक चुका है , भले ही संयुक्त राष्ट्र संघ के कितने ही प्रस्ताव क्यों न पारित हो जाएँ पर यहूदी राज्य को नष्ट करने का उनका स्वप्न मर चुका है और इजरायल एक स्थायी , मजबूत और शक्तिशाली राज्य है|
एक बार जब नेता इस सत्य को स्वीकार कर लेंगे तो फिलीस्तीनी जनसँख्या भी बड़े पैमाने पर उनका ही अनुसरण करेगी और साथ ही अन्य अरब और मुस्लिम देश भी , जिससे कि इस संघर्ष का समाधान निकल सकेगा | फिलीस्तीनी लोग मौत के सम्प्रदाय से बाहर निकल सकेंगे और अपनी नीतियों , समाज , अर्थव्यवस्था और संस्कृति का निर्माण कर पायेंगे |
वैसे तो अभी तक ट्रम्प प्रशासन की मध्य पूर्व की नीतियाँ अस्पष्ट हैं , निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रम्प ने स्वयं ही प्रस्ताव 2334 का कड़े रूप से विरोध किया है और इस बात के संकेत दिए हैं ( उदाहरण के लिए डेविड एम फ्रीडमैन को इजरायल का राजदूत बनाकर ) कि वे नाटकीय रूप से इस संघर्ष के प्रति नया नजरिया अपनाने को लेकर खुले विचार रखते हैं जो कि बराक ओबामा के मुकाबले इजरायल के प्रति कहीं अधिक झुकाव वाला है| जीवन भर विजय का पीछा करने के वादे के बाद ( "हम इतनी विजय प्राप्त करेंगे कि आप विजय से ऊब जायेंगे") , शायद ट्रम्प को इस दिशा में खींचा जा सकता है कि जहां हमारा पक्ष विजयी हो और दूसरे पक्ष की पराजय हो|
इजरायल के वर्तमान प्रधामंत्री बिन्यामिन नेतनयाहू को भी विजय पसंद है | संयुक्त राष्ट्र संघ में छोड़ दिए जाने से वे न केवल नाराज हैंइजरायल के वैश्विक महत्व के लिए महत्वाकांक्षी नजरिया भी रखते हैं| हाल में उनका चित्र आया कि वे प्रसिद्ध इतिहासकार जान डेविड लेविस की पुस्तक Nothing less than victroy ( (Princeton University Press, 2010) हाथ में लिए नजर आये| इससे भी संकेत मिलता है कि वे युद्ध में विजय के बारे में सोच रहे हैं , लेविस ने अपनी पुस्तक में कुल छः मामलों के अध्ययन से निष्कर्ष निकाला है कि सभी में " जब एक पक्ष को पराजय मिली और उसकी कठोरता कम हुई तब युद्ध की लहर कम हुई"
अंत में यदि क्षेत्रीय राजनीति के रुझान को व्यापक संदर्भ में देखें तो यह समय उपयुक्त है| ओबामा प्रशासन प्रभावी रूप से इस्लामिक गणतंत्र ईरान का साझीदार बन गया जिसने कि सुन्नी अरब राज्यों को डरा दिया है और अब सउदी अरब पहले से कहीं अधिक वास्तविकता के निकट आ गया है और उसे पहली बार इजरायल की आवश्यकता अनुभव हो रही है , " फिलीस्तीन" मुद्दा कुछ हद तक कमजोर पड़ गया है और अरब अब इजरायल को अपना परम शत्रु मानकर चलने के रवैये में थोड़े ढीले होते दिख रहे हैं जिससे कि उनके रुख में असाधारण रूप से लचीलापन झलक रहा है|
सुरक्षा परिषद प्रस्ताव 2334, ट्रम्प, नेतान्याहू और ईरान इन चार कारणों के चलते यह उपयुक्त अवसर है कि नए वर्ष में नया प्रशासन मध्य पूर्व की नीति को नए सिरे से बनाए जो कि फिलीस्तीनियों को " पराजय का स्वाद चखा सके" |