भारत के प्राधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जेरूसलम की यात्रा करने और रामल्लाह की यात्रा न करने के निर्णय से अनेक बयानबाजी आरम्भ हो गयी है|
बराबरी के व्यवहार की अपेक्षा सितम्बर 1993 में ओस्लो समझौते पर हस्ताक्षर से आरम्भ हुई है जब इजरायल के प्रधानमंत्री यित्जाक राबिन ने अपनी सरकार के प्रतिनिधि के रूप में फिलीस्तीन लिबरेशन आर्गनाइजेशन के बदनाम अध्यक्ष यासिर अराफात से हाथ मिलाया | उस समय यह बात किसी को भी आश्चर्यजनक या गलत नहीं लगी पर लगभग एक चौथाई सदी के बाद चीजें कुछ अलग दिख रही हैं|
यह अब स्पष्ट है कि व्हाइट हाउस के लान में उस अत्यंत उच्च स्तरीय कार्यक्रम में राबिन की विशेषताएं उजागर हो गयी थीं| एक लोकतांत्रिक और सार्वभौम देश के चुने हुए प्रमुख के तौर पर उन्हें कभी भी अराफात से सहमत नहीं होना चाहिए था जो कि एक अनधिकृत , तानाशाही और हत्यारे संगठन के सदस्य हैं और उनके साथ राबिन ने स्वयं को बराबर के स्तर पर दिखाया |
इसके स्थान पर उन्हें दूरी बनाकर रखनी चाहिए थी| एक बराबर की तरह सामने आने से बराबरी का भ्रम स्थापित हो गया और दशकों तक इसकी कल्पना की जाती रही और जो कि लोगों के दिमाग के बैठ गया और अब इस पर प्रश्न भी नहीं उठता | वास्तव में तो यह गलत समानता तो समय के साथ और गलत होती गयी , जब इजरायल सफलता पर सफलता प्राप्त करता रहा और फिलीस्तीन अथारिटी के यहाँ कहीं अधिक गहरी अराजकता, निर्भरता और उत्पीडन का शासन आया |
केवल यही बात नहीं है कि इजरायल विज्ञान, तकनीक, मानव सहायता , कला , सैन्य शक्ति और खुफिया क्षमता में विश्व के अग्रणी देशों में शामिल है , केवल यही नहीं है कि इसकी अर्थव्यवस्था फिलीस्तीन से 25 गुना बड़ी है ; इसके अतिरिक्त इजरायल एक ऐसी जगह है जहां सबके लिए क़ानून समान है ( अभी हाल में एक ऐसा समय आया जब एक सम्मानहीन राष्ट्रपति और अपराधी प्रधानमंत्री दोनों एक साथ जेल में बैठे हैं) और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की केवल बात नहीं होती बल्कि इसे अमल में लाया जाता है| जबकि दूसरी ओर फिलीस्तीन अथारिटी का प्रमुख कुल 13वें वर्ष में अपने चौथे कार्यकाल में हैं पर न तो वे पश्चिमी तट में बढ़ती अराजकता रोक पाए हैं और न ही अपने राज्य क्षेत्र में आधे भाग गाजा पर एक दुष्ट ग्रुप का कब्जा रोक पाए हैं|
कुछ लोग राबिन के स्वयं पर थोपे गए अपमान के पक्ष में तर्क देंगे कि वे अराफात और पी एल ओ को सम्मान और सार्वजनिक प्रदर्शन से मजबूत करना चाहते थे| यदि वास्तव में यही योजना थी तो बुरी तरह उल्टी पड़ गयी | ओस्लो में समझौते पर हस्ताक्षर समारोह पर प्राप्त हुई प्रतिष्ठा का उपयोग अराफात ने यहूदी राज्य को स्वीकार करने और फिलीस्तीन संघर्ष को समाप्त करने के लिए एक नया जनमत वर्ग बनाने में करने के स्थान पर इस अवसर का दोहन कर अपना स्तर बढाते हुए इजरायलवाद का तिरस्कार करने और इजरायल पर हमले के लिए नए संसाधन खड़े किये |
फिलीस्तीन के "दूतावासों" ने विश्व भर में इजरायल की मान्यता को कम करने के लिए शोर मचाया , ओस्लो समझौते के पाँच वर्षों बाद फिलीस्तीनी लोगों ने इजरायल के अधिक लोगों की हत्या की| दूसरे शब्दों में राबिन ने पूरी लापरवाही दिखाते हुए एक ऐतिहासिक और बर्बर शत्रु पर अपना विश्वास जताया और न केवल नीति बदल दी पर लक्ष्य भी बदल दिया| इस भूल के लिए इजरायल को भारी कीमत चुकानी पडी |
इजरायल के प्रधानमंत्री के स्थान पर व्हाइट हाउस के लान में अराफात के साथ नार्वे में इजरायल के दूतवास के द्वितीय श्रेणी के सचिव को खड़ा होना चाहिए था| इससे आवश्यक संकेत चला गया होता कि कूटनीतिक प्रोटोकाल में अराफात का सोपान काफी नीचे है| इतना भी तय है कि इसके चलते यित्जाक राबिन को नोबेल शान्ति पुरस्कार भी नहीं मिलता | क्या यह नहीं हो सकता था कि शानदार रूप से त्रुटिपूर्ण , डुबोने वाले और विनाशकारी समझौते से अलग रहा जाता ?
इससे भी बेहतर यह होता कि समझौते का समारोह ओस्लो में सामान्य रूप से होता न कि साम्राज्य की राजधानी और एकमात्र अतिरंजित विश्व शक्ति व्हाइट हाउस की भव्यता में |
यदि 1993 में कम प्रदर्शन का का उदाहरण रखा गया होता तो आज बिन्यामिन नेतान्याहू और महमूद अब्बास के मध्य समानता न होती ; फिलीस्तीन और इजरायल के संबंधों में वास्तविक असंतुलन स्पष्ट रूप से दिख रहा होता| यदि इजरायल के प्रधानमंत्री के स्थान पर निचले स्तर के कूटनयिक अराफात , अब्बास या इनके अन्य स्वयम्भू फिलीस्तीनी नेताओं और इसी तरह के अन्य खलनायकों से बातचीत करते तो विश्व को इस झूठी समानता के स्थान पर दोनों राज्यों के मध्य नैतिक और शक्ति के स्तर पर व्याप्त विशाल खाई लगातार याद आती रहती |
चलो , ऐसा नहीं हुआ | लेकिन क्या अब भी देर हो चुकी है? क्या नेतान्याहू या भविष्य में इजरायल का कोई प्रधानमंत्री एक गैंगस्टर उपक्रम के नेता के साथ समानता के स्तर पर बैठक करने की अशालीनता से बच सकता है?
नहीं अब भी देर नहीं हुई है| नेतान्याहू मुखरता के साथ यह बता सकते हैं कि वे वैधानिक सहयोगियों से ही मिलते हैं ; उन्हें फिलिस्तीन अथारिटी का मामला विदेश मंत्रालय के लोगों को दे देना चाहिए |
ऐसे किसी कदम से होने वाले लाभों की कल्पना कीजिये: इजरायल का कद बढेगा और पीए का लफंगा स्वभाव सबके सामने आ जाएगा | अमेरिका के राष्ट्रपति को " अंतिम डील" में रूचि समाप्त हो जायेगी | अन्य संभावित मध्यस्थ और शुभचिंतक चौथाई सदी पुराने दयनीय समझौते को फिर से आरंभ करने में काफी कठिनाई अनुभव करेंगे |
इसलिए मेरा सुझाव है कि इजरायल के प्रधानमंत्रियों को फिलीस्तीनी गुंडों के साथ " शान्ति प्रक्रिया" को निचले श्रेणी के स्टाफ पर छोड़ देना चाहिए|