पिछले दो सप्ताह में दो बार ऐसा हुआ जब मैंने कट्टरपंथी इस्लाम और घोर वामपंथी प्रतिनिधियों के साथ टेलीविजन कार्यक्रम में भाग नहीं लिया .दोनों ही मामलों में एक बार सीएनएन और फिर एमएसएनबीसी चैनलों से मैंने कहा कि इन प्रतिनिधियों के साथ बैठने और इन्हें सुनने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है , लेकिन इनके साथ बहस नहीं करुँगा .परिणामत: मैंने स्वयं को बहस से अलग रखा .
जो लोग अमेरिका से घृणा करते हैं उनके साथ अमेरिकी टेलीविजन पर न आने के पीछे दो कारण हैं ( वैसे तो गैर-अमेरिकी और विशेषकर अलजजीरा जैसे टेलीविजन की बात कुछ और है )मेरे इस निर्णय के पीछे व्यक्तिगत कारण उतने महत्व का नहीं है जितने अन्य कारण . इस्लामवादी भोंपुओं और
वामपंथी हमलावरों के साथ दिखना बिल्कुल भी सुखद अनुभव नहीं होता . अकसर ऐसा करने का अर्थ होता है कि दूसरों के गलत कथन का खंडन करो और उसपर अपने बयानों से हमला करो . इसमें शर्मिंदगी के अलावा गाली- गलौज की भाषा के इस्तेमाल के कुछ दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम भी हो सकते हैं उदाहरण के लिए वर्ष 2002 में एक घोर वामपंथी के साथ हुई मेरी बहस को मेरी कीमत पर तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया . सौभाग्यवश न्यूजवीक पत्रिका में इस बहस की पूरी पांडुलिपि सुरक्षित है .
ऐसी चुनिंदा बहसों से संबंधित प्रमुख चिंता कट्टरपंथ की है .उदाहरण के लिए मैंने टेलीविजन कार्यक्रम वालों से आग्रह किया कि वे एक “ व्यक्ति को ” अपने कार्यक्रमों में न बुलायें क्योंकि उसके सतही विचार बहस को रचनात्मक स्वरुप का नहीं होने देते ( उस व्यक्ति ने सामुहिक नर संहार के उत्तरदायी माओत्से तुंग की कुछ उपलब्धियों की जोर शोर से प्रशंसा की जिन्हें मुश्किल से ही महत्व दिया जा सकता है ) ऐसे कार्य की वकालत करने वाले व्यक्ति के साथ किसी टीवी कार्यक्रम में प्रस्तुत होना मेरे लिए कैसे संभव हो सकता है .
टेलीविजन पर न आ पाने का मुझे खेद भी है , क्योंकि टेलीविजन एक ऐसा अद्भुत माध्यम है जिसके द्वारा अपने विचार बहुत बड़ी मात्रा में लोगों तक पहुँचाए जा सकते हैं विशेष रुप से यदि यह बहस सीधे प्रसारण के रुप में हो .इस विषय को लेकर मैं दुविधा में हूँ .टेलीविजन कार्यक्रमों का निमंत्रण स्वीकार तो करना चाहता हूँ लेकिन स्वीकार नहीं कर पाता .मेरी यह दुविधा लोकतंत्र में टेलीविजन प्रशासकों के दोषपूर्ण चिंतन का परिणाम है .टेलीविजन के ही आंतरिक स्रोतों से बातचीत के आधार पर मुझे पता चला है कि कट्टरपंथियों को बहस में शामिल करने के तीन प्रमुख कारण हैं.एक तो बहस करने के लिए प्रसिद्ध लोगों के परस्पर टकराव पूर्ण दृष्टिकोण और भावपूर्ण व्याख्यान से दर्शकों के बीच कार्यक्रम की लोकप्रियता बढती है .दूसरा आज के टेलीविजन कार्यक्रम निष्पक्ष दिखने की होड़ में शामिल हैं उदाहरण के लिए कनाडा के ब्राडकास्ट कौरपोरेशन ने अपने कर्मचारियों को प्रपत्र के जरिए सतर्क किया कि वे आतंकवाद और आतंकवादी जैसे शब्दों के प्रयोग से बचें क्योंकि इन शब्दों के प्रयोग से संघर्ष की स्थिति में पत्रकार एक पाले में खड़ा दिखाई देगा .मेरी दृष्टि में यह धारणा कि इस युद्ध के परिणाम से पत्रकारों का कोई लेना देना नहीं है सर्वथा गलत है .
जरा कल्पना करिए कि यदि इन आतंकवादियों के हाथ में सबकुछ आ गया तो टेलीविजन के ऐसे कार्यक्रमों का स्वरुप क्या होगा .
तीसरा कारण जो कि काफी कुछ विरोधाभासी है वह है शत्रु के दृष्टिकोण को प्रसारित करना . शत्रु के दृष्टिकोण को टेलीविजन पर प्रसारित करने के औचित्य पर कार्यक्रम निर्माताओं का कहना है कि वे इन्हें जनता के सामने बेनकाब कर जनता की सेवा ही कर रहे हैं . उनका प्रश्न है कि क्या तर्कों का स्वतंत्र प्रवाह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अंग नहीं है और क्या इसमें यह बात अंतर्निहित नहीं है कि एक जानकार नागरिक गलत और सही के मध्य भेद कर सकेगा .इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही है .
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है कि जेल जाने के भय के बिना अपनी बात बोलना लेकिन इसमें टेलीविजन दर्शकों को संबोधित करने का विशेषाधिकार नहीं आता .
वैसे भी जब अनियंत्रित स्वतंत्र राजनीतिक भाषण टैक्स दर पर , स्कूल पाठ्यक्रम पर , गर्भपात पर या फिर किसी मत दिया जाए इस बहस के आलोचक हैं तो इस बात का कोई औचित्य नहीं बनता कि जब देश युद्ध की स्थिति में हो तो शत्रुओं के दृष्टिकोण को प्रचारित किया जाए .
यद्यपि वैसे बहुत बड़ी संख्या में दर्शकों श्रोताओं और पाठकों द्वारा कट्टरपंथिओं का विचार अस्वीकृत कर दिया जाएगा लेकिन छोटा वर्ग ऐसा भी हो सकता है जिसे यह विचार आकर्षक और उत्साहजनक लगे .हमारे सामने एक उदाहरण है जब 2001 में ओसामा बिन लादेन के विचारों के प्रचार ने कितने ही नौजवानों को मानव बम बनने के लिए प्रेरित किया जिसमें लंदन के आतंकवादी भी शामिल हैं .यदि बिन लादेन अरब जनसंख्या के एक प्रतिशत के दशवें भाग को भी अपनी बात समझा लेता है तो एक हजार नए मानव बम तैयार होते हैं..क्या यह कोई बुद्धिमता पूर्ण सार्वजनिक नीति है ?
प्रसिद्ध इतिहासकार कोनोर क्रूज ओब्रायन की दृष्टि में यह उचित नीति नहीं है . 1976 में जब वे आयरलैंड के डाक और संचार मंत्री थे तो उन्होंने आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के आतंकवादियों और सिनफेन के सदस्यों के साक्षात्कार पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था , उनका तर्क था कि उनके संदेश को फैलने से रोकने के लिए ऐसा करना आवश्यक था .अभी पिछले सप्ताह अमेरिका के ए बी सी चैनल पर चेचन आतंकवादी नेता शामिल बसाएव का साक्षात्कार प्रसारित होने पर रुस के विदेश मंत्रालय ने भी ऐसी ही नाराज़गी जताई थी .
टेलीविजन कार्यक्रमों के विषय पर नजर रखने के लिए किसी सेंसर ब्यूरो की स्थापना इस समस्या का आदर्श समाधान कतई नहीं है . मीडिया प्रशासकों को युद्ध के इस वातावरण में अपनी जिम्मेदारी स्वयं समझनी चाहिए . अपनी तरफ से पहल करते हुए उन्हें शत्रुओं की वकालत करने वाले या उनके विचारों को कैसे भी पुष्ट करने वाले तत्वों को बाहर कर देना चाहिए .सीधी बहस के लिए ऐसे लोगों की कोई आवश्यकता नहीं है .परस्पर विरोधी विचार रखने वाले देशभक्त भी बहस को गर्मागर्म बना सकते हैं .