कहीं तुर्की इस्लामवाद के रास्ते पर अग्रसर होकर शरीयत को लागू करने का मार्ग तो प्रशस्त नहीं कर रहा है ?
एक माह पूर्व इसी विषय पर फ्रंट पेज डॉट कॉम द्वारा आयोजित किए गए सम्मेलन में मैंने इन प्रश्नों का सकारात्मक उत्तर दिया था .
तुर्की के प्रधानमंत्री रिशेप तईप एरडोगन 1923 – 34 के मध्य की कमाल अतातुर्क की सेक्यूलर क्रांति के तत्वों को समाप्त कर इसे शरीयत में परिवर्तित कर देना चाहते हैं. इस संबंध में मेरी भविष्यवाणी है कि तुर्की में ए के पी के नाम से प्रसिद्ध जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का उपयोग अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए करेगी . उपयुक्त समय आने पर यह राजनीतिक प्रतिनिधित्व को या तो समाप्त कर देगी या उसे परिसीमित कर देगी जिसका परिणाम यह होगा कि तुर्की इस्लामी गणराज्य बन जाएगा .
तुर्की पर निकट दृष्टि रखने वाले वर्ग के मध्य मैंने एरडोगन और ए के पी के गुप्त एजेंडा का तर्क दिया . तुर्की के प्रेस ने इन बयानों को व्यापक रुप से छापा और इससे असहमति भी नहीं जताई . संयोगवश पिछले सप्ताह निक्सन सेंटर और जर्मन मार्शल फंड ने मुझे यूरो अमेरिकन ग्रुप की ओर से तुर्की राजनेताओं , पत्रकारों , बुद्धिजीवियों और व्यावसायियों के बीच में बोलने के लिए इस्ताम्बुल और अंकारा बुलाया. चर्चा में भाग लेने वाले व्यक्तियों ने मेरे विचारों को जानते हुए मुझसे अनेक प्रश्न किए और फिर उन्हें ध्यान पूर्वक सुना . उनके तर्कों को सुनने के बाद श्री एरडोगन के आशय को लेकर मैं उतना निश्चिंत नहीं रहा जितना वहाँ पहुँचने पर था .
गुप्त एजेंडे की इस बात को अधिक बल इस तथ्य से भी मिलता है कि एरडोगन और उनके सहयोगियों ने इस्लामी पार्टी के साथ अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी जो स्पष्ट तौर पर तुर्की के सेक्यूलर ढांचे को बदलना चाहती है .उन्होंने अनेक अवसरों पर अतातुर्क को सेक्यूलर विरासत के प्रमुख तत्व सेना , न्यायपालिका और अफसरशाही से टकराव मोल लिया जिसके परिणाम स्वरुप वे कई बार जेल भी गए और बहुत से विभागों से निकाले भी गए . इन चतुर इस्लामवादियों ने अपने अनुभवों से सीख लेते हुए अब अपने अंदर काफी परिवर्तन कर लिया है. इन परिवर्तनों का उद्देश्य ऱणनीतिक है ताकि अपने लक्ष्य की ओर धीरे- धीरे बढ़ा जा सके .यह इस्लामवादियों को अपने लक्ष्य को छिपा कर रखने की कला का अंग है .
2002 के अंत में सत्ता प्राप्ति के पश्चात ए के पी के कुछ निर्णय इसके बदले हुए लक्ष्य की ओर संकेत करते हैं इनमें व्याभिचार का अपराधीकरण करने का प्रयास , पब्लिक स्कूलों में इस्लाम के प्रचार से संबंधित धार्मिक निर्देशों में सुधार और स्वतंत्र रुप से कुरान की शिक्षा पर जुर्माने में ढ़ील ऐसे ही उदाहरण हैं . इसी प्रकार ईसाइयत को बहुदेववादी बताकर उसकी निंदा करना और अलेवी अल्पसंख्यक सदस्यों को सरकार के धार्मिक निदेशालय से बाहर करना भी कुछ खतरे का संकेत देता है .
गुप्त एजेंडा का यह तर्क इसलिए भी मजबूत है कि प्रायः राजनेता अपनी भूलों से सबक लेकर अधिक परिपक्व हो जाते हैं और अपने उद्देश्य बदल देते हैं. जर्मनी के विदेश मंत्री जोशका फिशर और इजरायल के प्रधानमंत्री एरियल शेरोन के बारे में यदि ऐसा हो सकता है तो ए के पी नेताओं के साथ ऐसा क्यों नहीं हो सकता ?
अब वे पूरी पद्धति बदलने के बजाए उसकी सीमाओं में रहकर ही काम कर रहे हैं .ए के पी ने सेक्यूलर ढ़ाँचे के मूल स्वरुप को चुनौती देने के बजाए सीमित दायरे में ही इसका प्रतिरोध करने का मन बनाया है .ए.के.पी पूरे मामले की ऐसी व्याख्या करने में संलग्न है कि एक ओर तो उच्च स्तरीय बौद्दिक लोगों को भ्रमित कर सके और दूसरी ओर इस ढ़ाँचे की विरोधी व्याख्या के लिए तर्क तैयार कर सके . इस संबंध में हम देख सकते हैं कि किस प्रकार तुर्की ने यूरोपियान संघ की स्थायी सदस्यता प्राप्त करने के लिए तुर्की के व्यवहार को यूरोपियन संघ के कानूनों के अनुरुप ढ़ालने की कोशिश की है . इस मामले की दो तरफा व्याख्या हो सकती है एक ओर तो धार्मिक व्यवहार संबंधी लोगों के अधिकारों को बढ़ाकर और राजनीति में सेना के अधिकारों में कटौती कर तुर्की इस्लामिक एजेंडे को लागू कर रहा है तो वहीं इसकी दूसरी व्याख्या भी हो सकती है कि तुर्की स्वयं को यूरोप का अंग बनाने के लिए सेक्यूलर एजेंडे को लागू कर रहा है .
तुर्की के लोग ए के पी के आशय को लेकर बहुत चिंतित नहीं हैं . उनका मानना है कि तुर्की में कुछ ऐसे तत्व मौजूद हैं जिनके चलते यह पार्टी देश के सेक्यूलर ढ़ाँचे को बदल नही सकती. सेक्यूलरवाद की व्यापक लोकप्रियता और समाज पर इसकी गहरी पकड़ , राज्य की सेना , न्यायपालिका और अफसरशाही द्वारा निर्वाचित सरकारों को इस्लामिक एजेंडा लागू करने से रोक पाने की शक्ति और स्वयं ए के पी की अपनी सीमायें ऐसे तत्व हैं .इन सबसे अलग स्वयं ए के पी में जिस प्रकार विभिन्न विवादित गुटों का समन्वय है और जिस प्रकार तेजी से इसका विस्तार हुआ है उन दोनों कारणों से ऐसा लगता है कि तुर्की के ढाँचे को बदलने का इसका महत्वाकाँक्षी प्रकल्प पूरा नहीं हो सकता है .
कुल मिलाकर इस बात के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर निर्णय किया जा सके कि ए के पी नेतृत्व अंत में किस दिशा में जाएगा . क्या यह अतातुर्क की विरासत के सेक्यूलर ढ़ाँचे के दायरे में ही रहेगा या फिर इसे बदल देगा . इस संबंध में पूरी स्थिति 2007 तक ही स्पष्ट हो पाएगी . मान लीजिए की तब एरडोगन तमाम शक्तियों के साथ इस गणतंत्र के राष्ट्रपति हों .
फिलहाल तुर्की का सेक्यूलर ढाँचा मजबूत है और आशा की जानी चाहिए कि इसके भविष्य के स्वरुप को लेकर भी कड़ा संघर्ष होगा .