धार्मिक चुनाव की स्वतंत्रता के संबंध में मुसलमानों की राय का उल्लेख कुरान की आयत 2 सुरा 256 में आता है .इसमें कहा गया है कि “ धर्म में कोई बाध्यता नहीं है .” अरबी में इसे कहते हैं ला इकराह फिद-दिन .इसका मंतव्य अपने आप में स्पष्ट है और दक्षिणी कैलीफोर्निया के इस्लामिक सेँटर के अनुसार इस आयत से स्पष्ट है कि इस्लाम किस प्रकार अमेरिका के संविधान के सिद्धांतों का सम्मान करता है. इस केन्द्र के अनुसार अमेरिकी संविधान का प्रथम संशोधन ( अमेरिकी काँग्रेस किसी धर्म को स्थापित करने के लिए कोई कानून नहीं बना सकती और न ही किसी को इसके स्वतंत्र पालन से रोक सकती है.) कुरान की गैर – बाध्यता की आयत के आधार पर ही किया गया है . इस आयत की व्याख्या पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस ए रहमान ने भी करते हुए कहा कि इस आयत में मत पालन की स्वतंत्रता का भाव पूरे मानव इतिहास के क्रम में अतुलनीय है . पश्चिम में भी इस आयत की व्याख्या इसी संदर्भ में की गई है . सी ए टी ओ संस्थान के अर्थशास्त्री एलेन रेनौल्डस ने वाशिंगटन टाइम्स में लिखा कि कुरान की यह आयत धार्मिक सहिष्णुता का उल्लेख करती है.लेकिन क्या इसकी व्याख्या इतनी सरल है . वास्तव में यह वाक्यांश जितना सामान्य दिखता है उतना है नहीं.ऐतिहासिक क्रम में इसके अनेक अर्थ निकाले गए हैं .दो श्रेष्ठ समकालीन् पुस्तकों पैट्रिकिया कोन्स की “God’s rule : Government and Islam .(Columbia University Press).” और योहानन फ्रीडमैंस की “Tolerance and coercion in Islam (Cambridge University Press).” के आधार पर आधुनिक अर्थान्वयन प्रस्तुत है . कम उदारवाद से अधिक उदारवाद की ओर चलता हुआ गैर बाध्यता का यह वाक्यांश अनेक प्रकार से देखा गया है –
इस मुहावरे को समाप्त कर दिया गया है – कुरान की बहुत सी आयतों को इससे अधिक महत्व देकर इसे समाप्त कर दिया गया . जैसे आयत 9 सुरा 73 - हे पैगंबर गैर –मतावलंबियों और ढोंगियों के विरुद्ध संघर्ष करो और उनके विरुद्ध कठोरता दिखाओ.
यह प्रतीकात्मक है – यह वाक्यांश वर्णनात्मक है न कि आज्ञासूचक .इस्लाम इस मामले में पूरी तरह स्पष्ट है कि किसी को मुसलमान बनाने के लिए कड़ाई का इस्तेमाल उसे बाध्य करना नहीं होता इसी प्रकार युद्ध में पराजय के पश्चात इस्लाम कबूल करवाना भी बाध्य करना नहीं है .
यह मुहावरा धार्मिक है व्यावहारिक नहीं – सरकारें बाहरी तौर पर आज्ञा मानने के लिए मुसलमानों को विवश कर सकती हैं लेकिन इस बात के लिए नहीं कि वे कैसा सोचें .
यह मुहावरा समय और स्थान तक सीमित है – यह मुहावरा केवल मदीना के सातवीं शताब्दी के यहूदियों के लिए प्रभावी था.
उन गैर मुस्लिमों तक सीमित जो इस्लामिक शासन स्वीकार कर उसके अधीन रहते हैं – कुछ विधिशास्रियों का मानना है कि यह केवल किताबी लोगों अर्थात् जो किताब में विश्वास करते हैं जैसे ईसाई ,यहूदी और पारसी तक सीमित है जबकि शेष का मानना है कि यह सभी काफिरों के लिए है .
कुछ गैर – मुसलमान इस मुहावरे की परिधि से बाहर हैं- जिन्होंने अपना मत छोड़ दिया है , औरत , बच्चे , युद्धबंदियों सहित अन्य लोगों को विवश किया जा सकता है .वास्तव में यही मानक व्याख्या रही है जिसे अधिकांश समय और स्थानों पर अपनाया गया है .
सभी गैर मुसलमानों तक सीमित है – मुसलमानों को इस्लाम के सिद्धांतों से आबद्ध रहना चाहिए और किसी भी प्रकार अपने मत का परित्याग नहीं करना चाहिए . मुसलमानों तक सीमित – मुसलमान अपने धर्म की व्याख्या करते हुए एक संप्रदाय से दूसरे संप्रदाय में जा सकते हैं जैसे शिया से सुन्नी लेकिन इस्लाम नहीं छोड़ सकते .
सभी व्यक्तियों पर प्रभावी – वास्तविक निष्ठा तक पहुँचने के लिए अनेक परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है और विवशता से यह प्रक्रिया बाधित हो जाती है .
एक सामान्य से मुहावरे के लिए इतना मतभेद काफी पेंचीदा है क्योंकि मतावलंबी तो सभी पवित्र पुस्तकों की सामग्री पर बहस करते हैं केवल कुरान पर नहीं. इस गैर – बाध्यता वाली आयत पर बहस के कुछ महत्वपूर्ण परिणाम भी हैं – पहला इससे प्रकट होता है कि इस्लाम भी अन्य धर्मों की भांति अनुयायियों पर निर्भर है कि वे इसे कैसा स्वरुप देते हैं . मुसलमानों के धर्म के चयन का विकल्प तालिबान शैली की अधीनता से बाल्कन शैली की उदारता तक में है . इस आयत की व्याख्या की अपनी कुछ सीमीयें हैं परंतु कोई सही या गलत व्याख्या नहीं है . 21वीं शताब्दी में मानों मुसलमानों के सामने एक साफ स्लेट रखी है कि वे इस आयत की कैसी व्याख्या लिखते हैं.
किसी भी गैर – जानकार व्यक्ति को कुरान की व्याख्या के समय सावधान रहना चाहिए क्योंकि यह बहुत अस्थिर विषयनिष्ठ है. जब एलेन रेनौल्डस लिखते हैं कि कुरान की गैर- बाध्यता वाली आयत का अर्थ धार्मिक सहिष्णुता है तो उनका आशय ठीक होते हुए भी वे पाठकों को भ्रमित करते हैं . इसी प्रकार इस्लाम के कई अन्य क्षेत्र भी इस बहस के समानांतर हैं . मुसलमानों को नए सिरे से फैसला करना है कि जिहाद का मतलब क्या है. महिलाओं का क्या अधिकार है , सरकार की क्या भूमिका है , किस प्रकार का धन या ब्याज प्रतिबंधित होना चाहिए और भी बहुत कुछ . देखना है कि वे इन मुद्दों को कैसे सुलझाते हैं जो पूरे विश्व को प्रभावित करते हैं . यद्यपि इन सबके बारे में फैसला मुसलमानों को ही करना है फिर भी पश्चिम उनकी दिशा को प्रभावित अवश्य कर सकता है . जैसे इस्लामी शक्तियों की निर्भरता तेल पर कम कर दी जाए . इस्लामवादियों के नेतृत्व वाले तुर्की के यूरोपियन संघ में प्रवेश से उदारवादी मुसलमान अलग –थलग पड़ सकते हैं .
गैर – मुसलमानों के कार्यों का भी इस बात पर प्रभाव पड़ने वाला है कि गैर – बाध्यता वाली आयत का अर्थ धार्मिक सहिष्णुता के रुप में होता है या फिर सलमान रश्दी की भांति किसी की हत्या करने के लाईसेंस के रुप में .