सेमेटिक विरोधी भावना वैसे तो एक स्थिर और अपरिवर्तनीय रुझान प्रतीत होता है परंतु वास्तव में यहूदी के प्रति पागलपन के हद तक घृणा का इतिहास सहस्राब्दी का है और अब भी इसका विकास जारी है .सामूहिक नरसंहार और द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात परिस्थितियों में बहुत अच्छा तीव्र अंतर आया है .
दक्षिणपंथ से वामपंथ की ओर सदियों तक सेमेटिक विरोधी भावना दक्षिणपंथियों का चिन्ह बन चुका था और वामपंथियों में यह भावना कभी-कभी दिखाई देती थी .इस रुझान का वास्तविक उदाहरण लें तो स्टालिन का यहूदी फोबिया उसके काल्पनिक प्रकल्प का छोटा सा ही अंग था जबकि हिटलर के प्रकल्प का वह केन्द्रीय अंग था . एक दशक पहले तक भी यही परिपाटी सत्य थी . परंतु हाल के वर्षों में वैश्विक स्तर पर तीव्र परिवर्तन हुआ है जिससे मुख्यधारा के दक्षिणपंथी इजरायल और यहूदियों के प्रति सहानूभुति रखने लगे हैं जबकि उनके वामपंथी मित्र इन दोनों के प्रति उदासीन और विरुद्ध होते जा रहे हैं.
ईसाई से मुसलामान की ओर ईसाइयों ने विजय और आकांक्षा के लोभ में सेमेटिक विरोधी भावना को स्थाई गति दी तथा ऐतिहासिक रुप से यहूदियों को सबसे बड़ी संख्या में इन्होंने ही मारा.इस कारण निरंतर यहूदी ईसाई देशों से इस्लामी देशों की ओर पलायन करते रहे .1945 में यह परिपाटी पूरी तरह परिवर्तित हो गई .ईसाइ यहुदियों के साथ समझौते में आ गए जबकि मुसलमानों ने हत्या का पुराना ईसाई रवैया अख्तियार कर लिया.
आज संस्थागत सेमेटिक विरोध पूरी तरह मुस्लिम कार्य व्यापार है .इसका एक परिणाम यह हुआ कि यहूदी इस्लामी देशों से ईसाई देशों की ओर पलायन करने लगे .
धार्मिक से धर्मनिरपेक्षता की ओर –यहूदी धर्म को तिरस्कृत करने की भावना से शताब्दियों के विकास के बाद यहूदी नस्ल के विरुद्ध दुर्भावना का भाव ग्रहण कर लिया जो बाद में यहूदी विरोध के रुप में विकसित होकर यहूदी राज्य के विरुद्ध घृणा में परिवर्तित हो गया. 2003 के एक झकझोर देने वाले मतदान में यह निष्कर्ष आया कि यूरोपियन लोग इजरायल को विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं .इससे यहूदी राज्य के विरुद्ध घृणा की भावना की गहराई को समझा जा सकता है .
सेमेटिक विरोधी भाव और अमेरिका विरोधी भाव को संयुक्त करना. यहूदी अमेरिका इजरायल और अमेरिका विश्व में बहुत से लोगों के मस्तिष्क में एक हो चुके हैं इसी कारण एक के प्रति दुराग्रह की भावना में दूसरा भी अंतर्निहित होता है .दोनों के प्रति घृणा में एक बात सामान्य है कि दोनों की भावुकता तर्क के समक्ष ठहर नहीं पाती अत: इन दोनों भावनाओं को गोपनीय राजनीतिक रणनीति के बजाए मनोवैज्ञानिक बीमारी ही समझना चाहिए . इन घटनाओं का खतरनाक समन्वित प्रभाव तीन प्रमुख यहूदी समुदायों पर पड़ने वाला है.
इन सब में सबसे बड़ा खतरा इजरायल के सामने है .इजरायल उन शत्रुओं से घिरा है जिन्होंने भूतकाल में यहूदियों का ऐसे संहार किया है जो 1930 में जर्मनी में यहूदियों पर हुए अत्याचार की याद दिलाता है . दोनों ही मामलों में सरकारों ने यहूदी राज्य के पड़ोसी राज्य के साथ अभियान चलाया कि मानों यह एक क्रुर राज्य है जिससे बचने का एकमात्र रास्ता इसे नष्ट करना ही है . नाज़ी जर्मनी में इस धारणा का परिणाम मृत्यु शिविरों के रुप में सामने आया और आज अगर यह भविष्यवाणी नहीं तो संभावना अवश्य है कि इजरायल पर परमाणु बम फेका जाए जैसी कि इरानी नेता ने संभावना भी व्यक्त की है. यह एक दूसरा नरसंहार होगा जिसमें 60 लाख यहूदियों को जान से हाथ धोना पड़ेगा.
दूसरा सबसे बड़ा खतरा यूरोप के यहूदियों पर है यद्यपि यह थोड़ा हल्का है यह खतरा है राजनीतिक और सामाजिक अलगाव का.
इस्लामवादियों , फिलीस्तीनी कट्टरपंथियों तथा अन्य संगठनों द्वारा की जा रही बरबादी से ऐसी धारणा बनने लगी है कि इस महाद्वीप में यहूदियों का कोई भविष्य नहीं है. निकट भविष्य में यहां से यहूदियों का पलायन वैसे ही हो सकता है जैसा द्वितीय विश्वयुद्ध में मुस्लिम देशों से हुआ था जहां 1948 में दस लाख यहूदियों की संख्या घटकर केवल 60 हजार रह गई थी .
तीसरा बड़ा खतरा अमेरिका के यहूदियों पर है . अमेरिका के यहूदी इसे लेकर चैतन्य नहीं हैं लेकिन पिछले 60 वर्ष में उन्होंने यहूदियत का वह स्वर्णिम युग जिया है जो अंडालोशिया , अरागान , जर्मनी , हंगरी , लिथुआनिया और प्राग में भी उनके लिए संभव न था .यूरोप की तुलना में कुछ हल्का सही लेकिन वामपंथियों के तुष्टीकरण से इस्लामी अभ्युदय ने अमेरिका के जीवन में भी यहूदियों के लिए वही भाव विकसित करना आरंभ कर दिया है . अमेरिका के यहूदियों का स्वर्णिम युग समाप्त हो रहा है . अभी तो अमेरिकन यहूदियों के पास आपस में शादी , विश्व के सहधर्मियों विद्यालय की प्रार्थना और गर्भपात जैसे विषयों पर चिंतित होने का विलास है लेकिन यदि यही क्रम चलता रहा तो वे भी यूरोप की भांति व्यक्तिगत् सुरक्षा और अलग-थलग कर दिए जाने जैसे विषयों पर चिंतित होने के लिए विवश होंगे.