पिछले सप्ताह जब अपने स्तंभ में मैंने कहा कि इजरायल अरब पर विजय प्राप्त कर सकता है ,और उसे विजय प्राप्त करनी चाहिए अनेक आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं द्वारा इसका खंडन हुआ है , कुछ तो बहुत हल्के स्वरुप की हैं( जैसे हारटेज ने एक लेख प्रकाशित कर मेरी अभिव्यक्ति को ही चुनौती दी है कि मैं ऐसे विषय पर कैसे बोल सकता हूं जब मैं इजरायल में नहीं रहता) लेकिन कुछ ने गंभीर विषय उठाए हैं जिनका उत्तर देना चाहिए.
प्राचीन चीनी रणनीतिकार सन जू का आकलन है कि युद्ध में आपका महान उद्देश्य विजय का होना चाहिए .17 वीं सदी में ऑस्ट्रिया के मोनटेबुकोली ने भी उनकी बात को प्रतिध्वनित किया . उनके फारसी उत्तराधिकारी क्लावेजे बिट्ज ने उसमें जोड़ा . युद्ध एक हिंसक कार्य है जो शत्रु को हमारी इच्छा पूर्ण करने को विवश करने के लिए किया जाता है . ये अंतर्दृष्टि आज भी प्रासांगिक है –विजय में शत्रु पर अपनी इच्छाएं थोपना निहित होता है ताकि उसे अपने युद्ध संबंधी उद्देश्यो को छोड़ने के लिए विवश किया जा सके .संघर्ष प्राय: तभी समाप्त होते हैं जब एक पक्ष की इच्छाएं नष्ट कर दी जाती हैं.
सैद्धांतिक रुप में हो सकता है ऐसा मामला न हो . आक्रामक पक्ष समझौता कर सकते हैं , वे परस्पर एक दूसरे को थका सकते हैं
या फिर वे किसी बृहत्तर शत्रु की छाया में अपने मतभेदों को सुलझा सकते हैं . ( जैसे लंबे समय तक आवश्यक और प्राकृतिक शत्रु ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी के प्रति अपनी संयुक्त चिंता के चलते 1904 में समझौता कर लिया )
जो भी हो इस प्रकार कोई विजेता नहीं कोई पराजित नहीं, प्रस्ताव आधुनिक समय में अपवाद हैं . जैसे यद्यपि ईराक और ईरान ने 1980-88 के अपने युद्ध को परस्पर थकावट के कारण समाप्त कर दिया लेकिन इस बंधन से उनके मतभेद नहीं सुलझे . सामान्य रुप से जब तक कोई पक्ष लोगों की जान गंवाने , कोष नष्ट होने , अपनी आशायें धूमिल होने के कारण पराजय की पीड़ा का अनुभव नहीं करता , युद्ध के पुन: आरंभ होने की संभावना बनी रहती है.
युद्ध स्थल पर भयानक पराजय द्वारा कोई इस पीड़ा को अनुभव कर सकता है .लेकिन 1945 से कभी ऐसा नहीं हुआ है.विमानों का गिराया जाना , टैंकों का नष्ट हो जाना , हथियारों का थकाना , सैनिकों का लुप्त हो जाना और भूमि खो देना दुर्लभ दृश्य हैं. 1948-82 तक अरब देशों द्वारा इजरायल से कई गुणा नुकसान, 1953 में उत्तरी कोरिया को नुकसान ,1991 में सद्दाम हुसैन का नुकसान , इन सभी मामलों में युद्ध स्थल की पराजय अवसाद में परिवर्तित नहीं हुई.
हाल के दशकों में वैचारिक वातावरण में मनोबल और इच्छा का अधिक महत्व है .1962 में फ्रांस अल्जीरिया में शत्रुओं को पछाड़ने के बाद भी हिम्मत हार गया . इसी प्रकार 1989 में अफगानिस्तान में सोवियत का यही हुआ .शीत युद्ध भी बिना किसी मानवीय नुकसान के समाप्त हो गया.
फिलीस्तीनी अरब के साथ इजरायल के युद्ध में इस अंतरदृष्टि के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकलते हैं.
इजरायल मुश्किल से विजय के लिए कार्य करने को स्वतंत्र है विशेषकर अपने प्रमुख सहयोगी अमेरिकी सरकार के संकोच के कारण. यही कारण है कि अमेरिकी विश्लेषक होकर भी अमेरिका, पश्चिमी देशों की नीतियों को प्रभावित करने के उद्देश्य से मैं इस विषय को सम्बोधित कर रहा हूँ.
इजरायल से आग्रह होना चाहिये कि वह फिलीस्तीनी अरबवासियों के मनोविज्ञान को प्रभावित करने के लिये उन्हें समझायें कि वे पराजित हो चुके हैं.
पश्चिमी तट से फिलीस्तीनी अरबवासियों को स्थानान्तरित करने का आक्रामक कदम इजरायल के लिये उल्टा पड़ सकता है. इससे गुस्सा और बढ़ेगा, शत्रुओं की संख्या में वृद्धि होगी तथा संघर्ष शाश्वत हो जायेगा.
इसके विपरीत इजरायल की कमजोरी की धारणा से फिलीस्तीनी अरब की पराजय की सम्भावना कम होगी. तो क्या ओस्लो वर्ष में(1993-2000)इजरायल ने गलत कदम उठाया और गाजा वापसी ने फिलीस्तीनी अरब को युद्ध के लिये प्रोत्साहित किया.
इजरायल को केवल फिलीस्तीनी अरबवासियों को पराजित करने की आवश्यकता है न कि समस्त अरब या मुस्लिम जनसंख्या को. शेष फिलीस्तीनी अरब का अनुसरण करेंगे.
मैं इजरायली नहीं हूँ इसलिये उन कदमों के बारे में सुझाव नहीं दे रहा हूँ जो कदम इजरायल को उठाने चाहिये. जब तक विजय नीति न हो रणनीति पर चर्चा अपरिपक्वता होगी. इतना कहना पर्याप्त होगा कि फिलीस्तीनी अरबवासी गैरसरकारी संगठनों, सम्पादकों, अकादमिकों और राजनेताओं के विश्वव्यापी नेटवर्क से शक्ति ग्रहण करते हैं , निर्माण की गई फिलीस्तीनी अरब शरणार्थी समस्या संघर्ष का प्रमुख विषय बन चुकी है और जेरूसलम को इजरायल की राजधानी के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता न देने से समस्या और बढ़ रही है. ये तीनों ही मुद्दे निश्चय ही प्राथमिक हैं.
विडम्बना है कि इजरायल द्वारा फिलीस्तीनी अरबवासियों के मनोबल को कुचलना सबसे अच्छी चीज होगी जो अब तक फिलीस्तीनियों के साथ नहीं हुई है. इसका अर्थ होगा अपने पड़ोसी को नष्ट करने के गलत स्वप्न को वे छोड़ देंगे और उन्हें अपनी राजनीति , अर्थव्यवस्था , समाज और संस्कृति पर ध्यान देने का अवसर मिलेगा . एक सामान्य लोग बनने की दिशा में अग्रसर होंगे जिनके अभिभावक अपने बच्चों को आत्मघाती आतकंवादी बनने को प्रेरित नहीं करते . लेकिन इसके लिए फिलीस्तीनियों को भयानक पराजय से गुजरने की आवश्यकता है .