1992 से दो परिपाटियों ने इजरायल के इतिहास को शक्ल दी है और आज की समस्याओं को भी इनके आधार पर समझा जा सकता है. पहला, प्रत्येक प्रधानमन्त्री ने अरब के साथ कार्य व्यवहार के सम्बन्ध में अपने वादे तोड़े हैं. दूसरा, उनमें से प्रत्येक ने अनपेक्षित रूप से छूट देने की पहल की है. यहाँ सभी चार प्रधानमन्त्रियों के विश्वासघात के उदाहरण-
*जून 1992 में अपनी विजय के तत्काल बाद यित्जाक राबिन ने इजरायल की जनता से वादा किया “ पी.एल.ओ संगठन के साथ मैं कभी बातचीत नहीं करूँगा” एक वर्ष बाद उन्होंने ठीक इसके विपरीत किया. राबिन ने अराफात के साथ कार्य व्यापार को इस आधार पर न्यायसंगत ठहराया कि अराफात ने फिलीस्तीन में कोई दूसरा नेतृत्व खड़ा ही नहीं होने दिया इसलिये समाधान और शान्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिये पी.एल.ओ की ओर मुड़ना ही होगा.
*बेन्जामिन नेतनयाहू ने 1996 में अपने चुनावों से पहले वचन दिया कि इजरायल गोलन पहाड़ियों से कभी नहीं उतरेगा. जैसा कि मैंने द न्यू रिपब्लिक में 1998 में स्थापित किया बिल क्लिंटन ने अभी अपने संस्मरण में पुष्ट किया है कि 1998 में नेतनयाहू ने अपना विचार बदल दिया और शान्ति समझौते के बदले दमिश्क को समस्त गोलन दे दिया.
*येहुद बराक ने मई 1999 के अपने प्रचार कहा संयुक्त जेरूसलम सदैव हमारे शासन में रहेगा. जबकि जुलाई 2000 में कैम्प डेविड की द्वितीय शिखर वार्ता में उन्होंने फिलीस्तीनी अथारिटी को पूर्वी जेरूसलम का बड़ा हिस्सा दे दिया.
*एरियल शेरोन ने जनवरी 2003 में गाजा से रिहायश हटाने के नारे वाले अपने लेबर प्रतिद्वन्दी अमराम मित्जाना के विरूद्ध भारी विजय दर्ज की. बाद में शेरोन ने यह कहकर कि गाजा क्षेत्र से नहीं हटने से आतंकवादी केन्द्र इजरायली जनसंख्या केन्द्रों तक आ जायेंगे अपने ही रूख को हास्यास्पद बना दिया. दिसम्बर 2003 में शेरोन ने मित्जाना का एकतरफा वापसी का विचार स्वीकार कर लिया.
कुछ अवसरों पर प्रधानमन्त्री किसी दूसरे नेता द्वारा अपना वचन तोड़े जाने की शिकायत करते हैं. उदाहरण के लिये अगस्त 1995 में नेतनयाहू ने राबिन पर आरोप लगाया कि उन्होंने अपने चुनाव प्रचार में वचन दिया था कि वे पी.एल.ओ से बातचीत नहीं करेगे, अपने कार्यकाल के दौरान कोई राज्यक्षेत्र नहीं छोड़ेगें और फिलीस्तीनी राज्य स्थापित नहीं करेगे. अब वे अपने वचन एक-एक कर तोड़ रहे हैं. वास्तव में नेतनयाहू ने पदासीन होने के बाद अपने वचन एक-एक कर तोड़े भी.
आखिर वे कौन से कारण हैं जिनसे हाल के प्रधानमन्त्री अपने संकल्पित उद्देश्यों से पीछे हटकर एकतरफा छूट की नीति अपना लेते हैं. कुछ मामलों में यह आवश्यकता पर आधारित होता है, विशेषरूप से नेतनयाहू जिनका विश्वास था कि सीरिया की सरकार के साथ समझौता करने से उनके पुन: विजयी होने की सम्भावनायें बन्द हो जायेंगी. कुछ मामलों में इनमें दोहरा चरित्र भी शामिल होता है और विशेष रूप से मतदाताओं के बीच छूटों की अलोकप्रियता को जानकर उसे छिपाना.
कैम्प डेविड द्वितीय शिखर वार्ता के दौरान बराक के एक मन्त्री योसी बीलीन ने स्वीकार किया था कि उन्होंने तथा सरकार के अन्य लोगों ने जेरूसलम को विभाजित करने की अपनी इच्छा को लोगों से छुपाकर रखा था. “ हमने चुनाव अभियान में इसकी बात नहीं की थी क्योंकि हम जानते थे कि जनता इसे पसन्द नहीं करेगी”
परन्तु आवश्यकता और दोहरा चरित्र तो कहानी का एक भाग है. इसके अलावा गम्भीर महत्वाकाक्षांयें इजरायली प्रधानमन्त्रियों को मजबूत नीतियों के मुकाबले मजबूर नीतियाँ अपनाने को प्रेरित करती हैं.
चारों ओर से शत्रुओं से घिरे देश इजरायल का प्रधानमन्त्री बनना दबावपूर्ण कार्य है. किसी भी पदासीन व्यक्ति के लिये यह सोचना बहुत आसान होता है कि अरब शत्रुता की समस्या का समाधान करने के विशेष गुण उसमें उपस्थित हैं.
इस महान व्यक्ति के लिये पर्याप्त नहीं है कि वह आलसी, धीमे, महंगे और निष्क्रिय प्रतिरोधक नीति का पालन करे कि एक दिन वह अरब स्वीकार्यता प्राप्त कर लेगा. उसकी अधीरता उसे उसी दिशा में ले जाती है ताकि चीजें जल्दी घटित हों, समाधान निकाले जायें और शान्ति के लिये जोखिम उठायें जायें. यदि प्रधानमन्त्री की पहल को सफलता मिलती है तो उसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वाहवाही मिलती है और वह यहूदी इतिहास की पुस्तकों में स्थान प्राप्त करता है. यदि वह असफल होता है तो क्या प्रयास ही तो था उसके उत्तराधिकारी चीजों को संभाल लेंगे.
बड़ा बनने की इच्छा और अहंकार अन्तत: प्रधानमन्त्रियों के नरम होने की परिपाटी को बयान करता है. फ्रांसीसी राजाओं और राष्ट्रपतियों ने इतिहास में अपनी पहचान के रूप में अपने पीछे पेरिस में भव्य निर्माण रख छोड़े हैं. इसी भावना के अनुरूप 1992 स इजरायल के प्रधानमन्त्री अपने पीछे भव्य कूटनीतिक निर्माण छोड़ रहे हैं.
समस्या यह है कि ये अलोकतान्त्रिक भावनायें मतदाताओं के साथ विश्वासघात कर रही हैं. ये सरकार में आस्था कम कर रही हैं तथा इजरायल की स्थिति को क्षीण कर रही हैं. ये नकारात्मक रूझान तब तक जारी रहेगा जब तक इजरायल के लोग कोई संजीदा प्रधानमन्त्री नहीं चुनते.