मुसलमानों के लिये जेरूसलम का धार्मिक महत्व राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है. 14 शताब्दियों में संगत और आशातीत ढंग से यह चक्र 6 बार चला जब मुसलमानों ने अपनी आवश्यकतानुसार इस शहर पर ध्यान दिया और आवश्यकता न होने पर इसकी उपेक्षा की.
यह विरोधाभास पिछली शताब्दी में भी स्पष्ट दिखा. 1917 से 1948 के बिटिश शासन काल में इस शहर में उस भाव का संचार हुआ जो 400 वर्षों के तुर्की साम्राज्य के दौरान लुप्त रहा. इसी प्रकार 1948 से 67 के मध्य जार्डन नियन्त्रण काल में अरबवासियों ने इस शहर की उपेक्षा की. उदाहरण के लिये जार्डन रेडियो ने शुक्रवार की नमाज का प्रसारण अल अक्शा मस्जिद से न करके अम्मान की सामान्य मस्जिद से किया. फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन के 1964 के स्थापना दस्तावेज और फिलीस्तीनी राष्ट्रीय सन्धि में जेरूसलम का कोई उल्लेख नहीं है.
इस शहर में मुसलमानों की रूचि 1967 में जेरूसलम पर इजरायल की विजय से उत्पन्न हुई. इसके बाद टूटे हुये तत्वों को एकजुट करने के लिये जेरूसलम अरब राजनीति का केन्द्र बिन्दु बन गया. 1968 में फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन ने अपनी संधि में संशोधन करते हुये जेरूसलम को फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन का स्थल घोषित किया. यदि इसे ईशनिन्दा न माना जाये तो सऊदी अरब के राजा ने स्वयं इसे मक्का की भाँति धार्मिक शहर घोषित किया.
1990 में जेरूसलम की ओर इस्लामी ध्यान इस कृत्रिम तीव्रता तक पहुँचा कि फिलीस्तीनियों ने इसे मनाने से परे इस शहर के ऐतिहासिक और पवित्र महत्व से यहूदियों को वंचित करने का विचार विकसित किया.
फिलीस्तीनी अरबवासियों के ढाँचे में विद्वानों, मौलवियों और राजनेताओं ने इस अनपेक्षित दावे को झूठ, गल्प, छल और कपट से पुनरूत्थानवादी आरोपण के सहारे आगे बढ़ाया. इसने इजरायल की भूमि से यहूदियों के सारे सम्पर्कों को मिटाते हुये उनके स्थान पर फिलीस्तीनी अरबवासियों के काल्पनिक सम्पर्क गढ़ लिये.
फिलीस्तीनी अरबवासियों का दावा है कि सोलोमन मन्दिर कैनाइट ने बनवाया, प्राचीन हिब्रू बेडोविन जनजातीय थे, बाइबिल अरब से आया, यहूदी मन्दिर नेबलुस या सम्भवत: बेथलेहम में था, 70 CE में फिलीस्तीन में यहूदियों की उपस्थिति समाप्त हो गई थी और आज के यहूदी खजार तुर्क के वंशज हैं. यासर अराफात ने तो काल्पनिक कैनाइट राजा का सृजन कर फिलीस्तीनी अरबवासियों के पूर्वजों की बात की.
फिलीस्तीनी मीडिया वॉच ने इस पूरी प्रक्रिया को सक्षेप में इस प्रकार बताया है- कैनाइट और इजरायलवासियों को अरबवासियों में बदलते हुये और प्राचीन अरब की यहूदियत को इस्लाम में परिवर्तित करते हुये फिलीस्तीनी अथॉरिटी ने हजारों वर्षों के अविच्छिन्न प्रामाणिक और व्यवस्थित यहूदी इतिहास के माध्यम से यहूदी शब्द को पार करते हुये इसे अरब से परिवर्तित कर दिया.
इसके राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट है- जेरूसलम पर यहूदियों का कोई अधिकार नहीं है. सड़क पर लिखे बैनरों में इसे साफ पढ़ा जा सकता है- जेरूसलम अरब है , यहूदी अनपेक्षित हैं.
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हिब्रू विश्वविद्यालय के यित्जाक रीटर का तर्क है कि तीन कार्यक्रमों से यह अशुद्ध मिथक एक आधिकारिक विचारधारा में बदल गया- अक्टूबर 1990 में टेम्पल माउण्ट स्वामिभक्ति घटना में यहूदी गुटों ने थर्ड टेम्पल माउण्ट के शिलान्यास का प्रयास किया जिसके चलते मुस्लिम दंगे हुये जिनमें 17 लोग मारे गये. इस घटना से फिलीस्तीनी अरबवासियों के मन में पवित्र इस्लामी विध्वंसों की आशंका समा गई और उन्हें यह सिद्ध करने का आन्दोलन चलाने को बल मिला कि जेरूसलम सदैव से मुस्लिम और फिलीस्तीनी अरब शहर रहा है.
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सितम्बर 1993 के ओस्लो समझौते में पहली बार जेरूसलम को समझौते की मेज पर लाया गया. प्रतिक्रिया में फिलीस्तीन अरब ने इस शहर से यहूदी सम्पर्क की प्रतिष्ठा को घटाने का प्रयास किया.
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जुलाई 2000में कैम्प डेविड शिखर वार्ता में इजरायल सरकार ने पुन: पहली बार टेम्पल माउण्ट के कुछ हिस्सों पर स्वायत्तता की माँग रखी. इस शिखर वार्ता में उपस्थित रहे अमेरिकी कूटनयिक डेनिस रोज ने कहा कि पूरी वार्ता में अराफात ने एक बार भी कोई सार्थक विचार नहीं रखा. यद्यपि उन्होंने एक नया विचार अवश्य प्रस्तुत किया कि मन्दिर का अस्तित्व जेरूसलम में नहीं वरन् नेबलुस में था. इसके साथ जेरूसलम का छद्म इतिहास फिलीस्तीनी अथॉरिटी की आधिकारिक नीति बन गई.
जेरूसलम से यहूदियों के सम्पर्कों का इन्कार करने के दो सम्भावित दीर्घकालिक परिणाम होने वाले हैं. पहला तो ऐसा प्रतीत होता है कि जेरूसलम के प्रति फिलीस्तीनियों का ध्यान इस जुनून तक पहुँच गया है कि वे 14 शताब्दियों की परिपाटी को तोड़कर राजनीति से परे भी इस विषय पर स्वयं को स्थाई रख सकते हैं. जेरूसलम के प्रति मुसलमानों ने ऐसी रूचि विकसित कर ली है कि उनमें स्वामित्व की भावना उत्पन्न हो रही है जो उपयोगितावादी प्रतिफल से कहीं भी जुड़ी नहीं है.
दूसरा इस प्रकार इन्कार से समस्या के कूटनीतिक समाधान की सम्भावनायें धूमिल पड़ रही हैं. फिलीस्तीन अरब के मनगढ़न्त इतिहास से उनके इजरायली मध्यस्थ भी अलग हो रहे हैं क्योंकि फिलीस्तीनी पूरे शहर पर अकेले अधिकार का दावा कर रहे हैं. इसके परिणामस्वरूप जेरूसलम पर होने वाला कोई भी समझौता भूतकाल की अपेक्षा अधिक भावुक, दिग्भ्रमित और कठिन होगा.