एक अमेरिकी अधिकारी ने हाल में इस बात पर जोर दिया, ‘लेबनान में एक अन्तरराष्ट्रीय सेना होनी चाहिये क्योंकि सभी प्रमुख पक्ष ऐसा चाहते हैं ’. उनकी बात ठीक लगती है क्योंकि इजरायल की सरकार ने भी घोषणा की है कि यूरोपियन संघ के सदस्य राज्यों के सैनिकों को मिलाकर बनी युद्ध परीक्षित सेना के तैनात होने के प्रस्ताव पर वे विचार कर सकते हैं.
प्रमुख पक्ष निश्चय ही ऐसा चाहते हैं, परन्तु 1982-84 की भाँति ऐसी सेना निश्चित ही पुन: असफल हो जायेगी. उस समय लेबनान की अराजकता और आतंकवाद से इजरायल को बचाने के लिये अमेरिका, फ्रांस और इटली की सैन्य टुकड़ियाँ तैनात की गई थीं. हिजबुल्लाह द्वारा बहुराष्ट्रीय सैनिकों, दूतावासों तथा अन्य ठिकानों पर हमलों के बाद जनता द्वारा अमान्य बहुराष्ट्रीय सेनाओं को वहाँ से हटना पड़ा. निस्संदेह फिर वही परिपाटी दुहरायी जायेगी.
अमेरिका और अन्य लोग हिजबुल्लाह को अपना शत्रु नहीं मानते और आतंकवाद के विरूद्ध युद्ध के बाद भी आज तक ऐसा ही है. अभी हाल के एक जनमत सर्वेक्षण में 65 प्रतिशत अमेरिकी लोगों की राय थी कि इजरायल और हिजबुल्लाह के वर्तमान संघर्ष में उनकी सरकार को कोई पक्ष नहीं बनना चाहिये.
दक्षिणी लेबनान में अराजकता समाप्त करने के इसी प्रकार के और भी विचार सामने आ रहे हैं.
लेबनान में सेना की तैनाती - लेबनान राज्य की आधिकारिक सेना . हिजबुल्लाह लेबनान की सरकार में भागीदार है और सेना द्वारा दक्षिणी क्षेत्र पर नियन्त्रण के प्रस्ताव को वीटो कर देगा. इसके अतिरिक्त हिजबुल्लाह के साथ सहानुभूति रखने वाले शिया लेबनानी सेना में आधे से अधिक है. और अन्त में लेबनानी सेना हिजबुल्लाह से टक्कर लेने में सक्षम नहीं है.
सीरियाई सेना की तैनाती - लेबनान और इजरायल दोनों ही दक्षिणी लेबनान पर सीरिया के कब्जे को अस्वीकार करते हैं.
इजरायली सेना की तैनाती - 1967 और 1982 में अरब बहुसंख्यक भूमि पर कब्जे के अपने अनुभवों के बाद इजरायल ने व्यापक तौर पर इसकी पुनरावृत्ति न करने का निश्चय किया है.
कुछ निश्चित रूप से असफल होने वाले रास्तों के स्थान पर कुछ अलग करने का निश्चय करने की आवश्यकता है. मेरा सुझाव है.
लेबनान से हटकर सीरिया पर ध्यान देना चाहिये और हिजबुल्लाह की हिंसा के लिये दमिश्क को उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिये. (संयोगवश 17 मई 2006 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रस्ताव क्रमांक 1680 के अनुसार सीरिया से कहा गया है कि वह लेबनान के राज्यक्षेत्र में सशस्त्र गतिविधियों पर रोक लगाये)
ऐसा क्यों हो - इजरायल के नेता लेबनान से होने वाले हमलों को बड़े समय से रोकने में असफल रहे हैं. उन्होंने अन्य पड़ोसियों से सीमा पार आतंकवाद को कड़ाई से रोकने को कहा जिससे उन सरकारों के लिये ऐसे हमले जारी रखना काफी कष्टप्रद हो गया. परन्तु जब उन्होंने लेबनान की सरकार से ऐसी माँग की तो उन्होंने सन्तोषजनक उत्तर नहीं दिया. लेबनान में मिस्र, जार्डन और सीरिया की भाँति सेना पर केन्द्र सरकार का एकाधिकार नहीं है. लेबनान सदैव से एक कमजोर राज्य है क्योंकि इसके 18 प्रकार के धार्मिक और नस्लीय समुदाय प्राथमिक रूप से एक दूसरे के प्रति निष्ठावान हैं.इसके परिणामस्वरूप लड़ाके, गुरिल्ला और आतंकवादी सरकार से अधिक शक्तिशाली हैं.
पिछले 40 वर्षों में इजरायल की सरकार ने अनेक प्रकार की रणनीतियों से जवाब दिया. 1968 में इजरायल के जेट विमानों ने बेरूत के हवाई अड्डों पर बमवर्षा की, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ. 1978 में लिटानी आपरेशन के अन्तर्गत इजरायल की सेना बड़े पैमाने पर पहली बार लेबनान में प्रविष्ट हुई परन्तु इसका भी विशेष परिणाम नहीं हुआ. 1982 में उन्होंने देश के बहुत बड़े भाग पर कब्जा कर लिया यह आक्रमण भी दीर्घकालिक लाभ का नहीं रहा.2000 तक उन्होंने उस क्षेत्र को अपने पास रखा परन्तु अचानक एकतरफा वापसी से उसे छोड़ दिया गया. 2000 में लेबनान के राज्यक्षेत्र के प्रत्येक इंच को खाली करने के बाद भी हमले नहीं रूके.
इस समय बशर अल असद की सरकार से कहना चाहिये कि वह तत्काल हिजबुल्लाह पर लगाम लगाये और दक्षिणी लेबनान से होने वाले भविष्य के किसी भी हमले के बाद उसे वाल स्ट्रीट जर्नल के शब्दों में सैन्य प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा. जैसा कि फिलाडेल्फिया इवनिंग बुलेटिन में डेविड बेडीन ने वर्णन किया है, “ सीरिया की छद्म शक्तियों द्वारा हर आक्रमण के बाद इजरायल सीरिया के ठिकानों पर हमला करेगा.” इन ठिकानों में आतंकवादी , सेना और सरकार के आधारभूत ढाँचे निशाने पर होंगे.
इस भाव से कार्य करने का लाभ होगा क्योंकि हिजबुल्लाह का कद, ताकत और क्षमता प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ढंग से सीरिया के समर्थन पर निर्भर है. यह देखते हुये कि हिजबुल्लाह को ईरानी सहायता पहुँचने का एकमात्र मार्ग सीरिया है, दमिश्क पर ध्यान देने से इस क्षेत्र में ईरानी प्रभाव को रोका जा सकेगा.
इस योजना की अपनी कमियाँ और कठिनाईयाँ भी हैं. जैसे हाल की सीरिया-ईरान की आपसी सन्धि या सीरिया को युद्ध में खींचने का हिजबुल्लाह का विकल्प परन्तु इसकी सफलता के बेहतर अवसर हैं जो मेरे विचार में अन्य विकल्पों से बेहतर है.
1998 में इस प्रकार के भाव का लाभ हुआ था जब तुर्की सरकार ने सफलतापूर्वक दमिश्क को एक आतंकवादी नेता की मेजबानी से रोका था. इजरायल के रणनीतिकार एफ्रेम इनबार ने ठीक ही कहा है कि, “ समय आ गया है कि जब सीरिया से तुर्की में बात की जाये.”