राज्य सचिव रहते हुये कोलिन पावेल ने उत्तरी अटलांटिक सन्धि संगठन को इतिहास का सबसे महान और सफल गठबन्धन बताया था. इस वर्णन के विरूद्ध तर्क करने का कोई कारण नहीं है क्योंकि नाटो ने बिना युद्ध के सफलतापूर्वक शीत युद्ध जारी कर उसे जीता.
परन्तु यह गठबन्धन इस समय संकटकाल में है जिसे 1996 से 2004 तक स्पेन के प्रधानमन्त्री रहे जोस मारिया अजनार ने इसके अब तक के इतिहास का महानतम और सबसे गम्भीर संकट करार दिया है. उनके अनुसार शाश्वत संकट का यह मौसम संगठन में मिशन के अभाव के चलते रहने वाला है.
इस संकट के मूल का वर्णन आसानी से किया जा सकता है. 1949 में इसकी स्थापना से 1991 में सोवियत संघ के पतन तक इसने सोवियत विस्तारवाद को रोकने में महत्वपूर्ण निभाई. सोवियत खतरे के समाप्त होने के बाद इसका उद्देश्य बदल गया. 1990 के दशक में यह संगठन बोस्निया और कोसोवो जैसे क्षेत्रों में क्षेत्रीय सुरक्षा के लिये स्वेच्छा से अपनी सेनायें भेजने वाला उपकरण रह गया. और 11 सितम्बर के पश्चात क्या ?
एक संक्षिप्त, मेधावी और क्रियात्मक अधययन में अजनार के विचार समूह एफ ए ई एस ने NATO: An alliance for Freedom शीर्षक में बताया है कि सोवियत संघ को रोकना इस संगठन के निर्माण का मूल आधार नहीं था. इसके अतिरिक्त नाटो के कुछ सकारात्मक उद्देश्य भी थे, “ जिसमें कानून का शासन, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र पर आधारित सदस्य देशों की सामान्य विरासत और सभ्यता की रक्षा करते हुये स्वतन्त्रता की रक्षा करना था.”
स्पेन की सैन्य शक्ति और रणनीतिक महत्व के बाद भी फ्रांसिस्को फ्रांसो की फासीवादी सरकार के अंगूठे तले इसे गठबन्धन में शामिल न कर 1975 में उनकी मृत्यु के बाद 1981 में ही निमन्त्रण देकर नाटो ने लोकतन्त्र की रक्षा के अपने जनादेश का प्रदर्शन किया.
नाटो के नये लक्ष्य का संकेत 11 सितम्बर की घटना के एक दिन बाद सामने आया जब 52 वर्षों के अपने इतिहास में पहली बार संगठन ने अपने संविधान की धारा 5 को प्रभावी करते हुये किसी एक सदस्य पर आक्रमण को सबके विरूद्ध आक्रमण घोषित किया. एक दशक बाद नाटो ने सामाजिक कार्य करने के बाद कट्टरपंथी इस्लाम के खतरे को भांपा. नाटो और एफ ए ई एस इस नाजुक निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस्लामी आतंकवाद एक वैश्विक प्रवृत्ति का संकट है जिसके चलते नाटो सदस्यों का अस्तित्व खतरे में है.
1930 की अधिनायकवादी विचारधाराओं को याद करते हुये एफ ए ई एस ने सही ही चेतावनी दी है कि देखने में कितनी ही बेहूदी और असहज लगे परन्तु इस्लामी महत्वाकांक्षा को गम्भीरता से लेने की आवश्यकता है. वास्तविक अन्तर्दृष्टि से उन्होंने जोर देकर कहा है कि आतंकवाद उदारवादी और लोकतान्त्रिक विश्व के विरूद्ध दूरगामी परिणाम वाले युद्ध की भाँति एक आक्रामक अभियान है. इसलिये नाटो का उद्देश्य इस्लामी जिहादवाद और नरसंहारक हथियारों के प्रसार को विशेषकर इस्लामी गुटों और सरकारों तक जाने से रोकने का प्रयास होना चाहिये. इसका अर्थ है कि इस्लामी जिहादवाद के विरूद्ध युद्ध इस गठबन्धन की रणनीति का प्रमुख बिन्दु होना चाहिये जो अनेक वर्षों तक जारी रहे.
इस अध्ययन ने दूसरी प्रमुख सिफारिश की है कि उन सदस्यों को पूर्ण सदस्यता दी जाये जो उदारवादी लोकतन्त्र हैं और इस्लामी जिहादवाद के विरूद्ध युद्ध में योगदान देना चाहते हैं. इस अध्ययन में इजरायल को गठबन्धन में शामिल करना महत्वपूर्ण कदम है तथा जापान और आस्ट्रलिया को भी शामिल करने की सिफारिश की गई है. इसके अतिरिक्त मैं ताइवान, दक्षिण कोरिया और चिली की सिफारिश करता हूँ.
अध्ययन के अनुसार संघर्षरत राज्यों को प्रोत्साहन देने के लिये कोलम्बिया और भारत जैसे देशों को सहायक सदस्यता दी जाये. मेरी राय में मैक्सिको और श्रीलंका भी इस श्रेणी में आ सकते हैं.
एफ ए ई एस ने एक बिन्दु को कुछ अस्पष्ट ही रखा है परन्तु संकेत किया है कि संयुक्त राष्ट्रसघ के स्थान पर नाटो को प्रमुख विश्व संस्था का स्थान लेना चाहिये. जैसे-जैसे संयुक्त राष्ट्रसंघ नीचे स्तर से और कमजोर हो रहा है यह आवश्यक हो गया है कि अन्तरराष्ट्रीय संगठन को परिपक्व अंदाज में अपनी सदस्यता लोकतन्त्रिक देशों तक ही सीमित रखनी चाहिये.
खरोंच में से एक संगठन तो अवश्य खड़ा किया जा सकता है, परन्तु एक प्रमाणित क्षमता वाले स्थापित ढाँचे से संगठन खड़ा करना अधिक सरल, सस्ता और गतिमान होगा. नाटो ने स्वयं को एक स्वाभाविक प्रत्याशी के रूप में प्रस्तुत किया है और विशेषकर एफ ए ई एस की नई अवधारणा के बाद.
अजनार और उनकी टीम ने कट्टरपंथी इस्लाम से संघर्ष की अब तक की सबसे अच्छी योजना प्रस्तुत की है . क्या इसे राजनेता आगे बढ़ायेंगे ?