इराक में वर्तमान विद्रोह को एक वर्ष पहले से ही देखा जा सकता था. अप्रैल 2003 में ही मेरे ध्यान में आया था कि पवित्र शहर कर्बला की तीर्थयात्रा के दौरान हजारों इराकी शियाओं ने नारे लगाये ‘अमेरिका नहीं सद्दाम नहीं केवल इस्लाम’. इन भावनाओं के साथ सहमत होने वाले इराकियों की संख्या बढ़ती जा रही है. गठबन्धन सेना के लिये इसके अच्छे परिणाम नहीं होने वाले हैं.
हाल में हिंसा की नई लहर ने इन परिणामों को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है. दो कारणों से मैं इराकी विद्रोह की अपेक्षा कर रहा था. पहला, 2003 के तीव्र युद्ध ने एक घृणित अत्याचारी शासक को अपदस्थ करने पर जोर दिया था और जब यह युद्ध समाप्त हुआ तो इराकियों ने स्वयं को पराजित नहीं वरन् स्वतन्त्र अनुभव किया. इसी के साथ इराक के बारे में 1945 के जर्मनी और जापान का अनुमान करना गलत है. ये दोनों देश अनेक वर्षों के संहार के बाद पूरी तरह नष्ट हो चुके थे इस कारण युद्ध के बाद अपने समाज और संस्कृति के पुनर्निर्माण को उन्होंने स्वीकार कर लिया. इसके विपरीत इराक अत्यन्त संक्षिप्त शत्रुता से बिना क्षति के निकल आया और इराकियों को नहीं लगता कि उन्हें गठबन्धन सेना से दिशा निर्देश लेने की आवश्यकता है. इसके विपरीत उन्होंने तत्काल दृढ़संकल्प दिखाया कि वे अपने देश के भविष्य को आकार देने में स्वयं सक्षम हैं.
दूसरा, अधिकांश में मुस्लिम होने के कारण इराकी गैर-मुसलमान से शासित होने का विरोध करते हैं. यह विरोध इस्लाम के स्वभाव का परिणाम है जो सभी धर्मों में सर्वाधिक सार्वजनिक और राजनीतिक है.
एक परिपूर्ण मुस्लिम जीवन जीने के लिये आवश्यक है कि शरियत नामक इस्लाम के अनेक कानूनों का पालन किया जाये. शरियत में टैक्स, न्यायिक व्यवस्था और युद्धनीति के सम्बन्ध में ऐसे व्यवहार शामिल हैं जिन्हें लागू करना अत्यन्त कठिन है. इसे पूरी तरह लागू करना तभी सम्भव है जब शासक स्वयं एक शुद्ध मुसलमान हो (यद्यपि एक अशुद्ध मुसलमान ही गैर-मुसलमान की पसन्द होगा). मुसलमान के लिये गैर-मुसलमान का शासन घृणा का पात्र तथा ईश्वर के क्रियाकलाप में ईशनिन्दित हस्तक्षेप है.
इससे यह तथ्य व्याख्यायित होता है कि मुस्लिम इतिहास की चौदह शताब्दियों में गैर-मुसलमानों के शासन का विरोध क्यों होता रहा है ? यूरोपवासियों ने इस विरोध को समझ लिया था और इस कारण क्रूसेड के पश्चात अपने वैश्विक विस्तार में वे मुस्लिम बहुल राज्य क्षेत्रों से बहुत दूर रहे.
यह परिपाटी अत्यन्त महत्वपूर्ण है-1400 से 1830 तक यूरोपवासियों ने व्यापार, शासन और बस कर समस्त विश्व में विस्तार किया परन्तु ये वही क्षेत्र रहे जहाँ मुसलमान नहीं था, जैसे विश्व के पश्चिमी भाग, उप सहारा अफ्रीका, पूर्वी एशिया और आस्ट्रेलिया. मुसलमानों से दूर रहने की स्पष्ट परिपाटी के तहत ब्रिटेन, फ्रांस, हालैण्ड और रूस जैसी साम्राज्यवादी शक्तियों ने उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और केन्द्रीय एशिया के मुस्लिम पड़ोसियों से दूर रहते हुये सूदूर क्षेत्रों के राज्यक्षेत्रों पर नियन्त्रण स्थापित किया.
1830 में जाकर फ्रांस जैसी यूरोपीय शक्ति ने अल्जीरिया जैसे मुस्लिम राज्य से टक्कर लेने का आत्मविश्वास दिखाया. इसके बाद भी एक समुद्रतटीय क्षेत्र का नियन्त्रण प्राप्त करने में फ्रांस को 17 वर्ष लग गये. यूरोपीय नेताओं ने जब मुस्लिम भूमि पर विजय प्राप्त की तो उन्हें लगा कि वे इस्लाम धर्म को न तो कुचल सकते हैं और न ही सांस्कृतिक रूप से इस जनसंख्या पर नियन्त्रण प्राप्त कर सकते हैं और साथ ही राजनीतिक प्रतिरोध को भी समाप्त नहीं कर सकते. दबाये जाने के बाद भी प्रतिरोध की चिन्गारी जलती रही और समय-समय पर इसने साम्राज्यवाद विरोधी आग का रूप ले लिया और अन्तत: यूरोपवासियों को भगा दिया. अल्जीरिया में 1954-62 के मध्य आठ वर्षों के सफल प्रयास ने फ्रांस की उपनिवेशवादी शक्तियों को बाहर कर दिया.
इराक पर अमेरिका नीत विजय पहला अवसर नहीं है जब पश्चिमी देशों ने मुसलमानों को उनके अत्याचारी शासकों से मुक्त कराया है. 1798 में पहले ही नेपोलियन बोनापार्ट अपनी सेना के साथ मिस्र में प्रविष्ट हुआ और उसने स्वयं को इस्लाम का मित्र बताते हुये मिस्रवासियों को मामलुक शासकों से मुक्त कराने की बात कही. उसका उत्तराधिकारी सेनापति जे.एफ.मेनाऊ तो वास्तव में इस्लाम में धर्मान्तरित हो गया. परन्तु मिस्र के लोगों की सहानुभूति जीतने के प्रयास विफल रहे तथा मिस्र के लोगों ने आक्रमणकारियों के सद्भाव को अस्वीकार कर दिया तथा फ्रांसीसी शासन के विरूद्ध शत्रुवत् व्यवहार बनाये रखा. प्रथम विश्व युद्ध के बाद मध्य पूर्व में यूरोप द्वारा संचालित जनादेश का भी यही हेतु था परन्तु उसे भी मुसलमानों का समर्थन नहीं मिला.
यह इतिहास प्रदर्शित करता है कि इराक के प्रति गठबन्धन की भव्य महत्वाकांक्षायें सफल नहीं होंगी. लोकतन्त्र के निर्माण को लेकर इसके सद्भाव कितने ही अच्छे क्यों न हों गठबन्धन इराक के मुसलमानों का विश्वास नहीं जीत सकता और न ही अपने स्वामी के रूप में उनकी स्वीकृति प्राप्त कर सकता है. यहाँ तक कि आर्थिक विकास पर 18 बिलियन डालर का एक वर्ष का खर्च भी चीजों को नहीं सुधार सकता.
इसलिये मैं इराक में अमेरिकी सेनाओं को सलाह देता हूँ कि वे जितना शीघ्र हो सके इराकी शहरों को छोड़ दें और फिर जब सुविधा हो पूरे इराक को छोड़ दें. पिछले एक वर्ष से जो मैं कह रहा हूँ उस पर काम करते हुये लोकतान्त्रिक मस्तिष्क के इराकी ताकतवर को ढ़ँढना चाहिये जो गठबन्धन सेनाओं के साथ काम करते हुये शालीन सरकार के साथ खुली राजनीतिक व्यवस्था का विकास कर सके.
सुनने में यह सुस्त, आलसी और असन्तोषजनक लगता है परन्तु महत्वाकांक्षी और पतनोन्मुख वर्तमान प्रकल्प के विपरीत कम से कम यह काम तो करेगा.