यूरोप में तेजी से बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या के साथ इस महाद्वीप के साथ इसके दीर्घकालिक सम्बन्ध सर्वाधिक जटिल प्रश्न है। इस विषय में तीन रास्ते ही बचते हैं-सद्भावनापूर्वक आत्मसातीकरण, मुसलमानों को निकाला जाना या फिर यूरोप पर इनका नियन्त्रण हो जाना। इन परिस्थितियों के सर्वाधिक निकट स्थिति कौन सी है।
यूरोप का भविष्य केवल इसके निवासियों के लिये ही महत्वपूर्ण नहीं है। 1450 से 1950 तक लगभग आधी सहस्राब्दी में विश्व के 7 प्रतिशत जनसंख्या वाले इस क्षेत्र ने अपनी रचनात्मकता से आधुनिकता का आविष्कार कर समस्त विश्व का संचालन किया है। यद्यपि इस क्षेत्र का यह स्तर 60 वर्ष पहले ही इससे छिन चुका है परन्तु आर्थिक, राजनीतिक और बौद्धिक सन्दर्भ में यह अब भी महत्वपूर्ण है। यह क्षेत्र किस दिशा में जाता है इसका प्रभाव समस्त मानवता पर पड़ेगा और विशेष रूप से अमेरिका जैसे देशों पर अधिक पड़ेगा जो विचारों, लोगों और सामानों के लिये ऐतिहासिक रूप से यूरोप की ओर देखते आये हैं।
प्रत्येक परिस्थिति का चित्रण निम्नवत किया जा रहा है-
मुस्लिम शासन- स्वर्गीय ओरियाना फलासी का आकलन था कि जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा वैसे-वैसे यूरोप इस्लाम का प्रान्त और उपनिवेश बनता जायेगा। इतिहासकार बेट योर ने उपनिवेश को “ यूरेबिया” का नाम दिया। वाल्टर लाकर अपने आगामी Last days of Europe में कहते हैं कि जिस यूरोप को हम जानते हैं उसमें परिवर्तन होना स्वाभाविक है। मार्क स्टेयन ने America Alone: The End of the World As We Know It में इससे आगे बढ़कर भी कहा है पश्चिमी विश्व 21वीं शताब्दी तक बच नहीं पायेग और हमारे समय में यदि सब नहीं तो यूरोप के कुछ देश अवश्य अदृश्य हो जायेंगे। उनके अनुसार आस्था, भूजनांकिकी और विरासत के प्रति धारणा यूरोप का इस्लामीकरण करेगी।
आस्था- यूरोप में विशेष रूप से इसके कुलीन वर्ग में सेक्यूलरिज्म की धारणा बलवती है और यह इस हद तक है कि (बुश) ईसाइयों को सार्वजनिक पद धारण करने के अयोग्य और मानसिक रूप से असन्तुलित माना जाता है। 2005 में एक नामचीन इतालवी राजनेता और आस्थावान कैथोलिक ईसाई रोको बटिंगलायन को समलैंगिकता के सम्बन्ध में उनके विचारों के कारण इटली के यूरोपीय संघ के उच्चायुक्त नियुक्त करने से मना कर दिया गया। सेक्यूलरिज्म के प्रति गहरी आसक्ति के कारण ही चर्च खाली रहते हैं और एक शोधकर्ता के अनुसार लन्दन में शुक्रवार को मस्जिदों में मुसलमानों की संख्या रविवार को चर्च में आने वालों से अधिक होती है। जबकि लन्दन में ईसाइयों की संख्या मुसलमानों से 7 गुना अधिक है।
जैसे-जैसे ईसाइयत क्षीण हो रही है, इस्लाम आन्दोलन बनता जा रहा है। प्रिन्स चार्ल्स का उदाहरण हमारे समक्ष है कि किस प्रकार अनेक यूरोपवासी इस्लाम से अभिभूत हो रहे हैं। बहुत से धर्मान्तरण यूरोप की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जैसा कि जी.के.चेस्टर्टन ने बताया कि जब व्यक्ति ईश्वर में विश्वास करना छोड़ देता है तो ऐसा नहीं है कि वह किसी में विश्वास नहीं करता वरन् किसी में भी विश्वास करना आरम्भ कर देता है।
यूरोप का सेक्यूलरिज्म इसे अमेरिका से भिन्न आकार प्रदान करता है। Jihad.org के पूर्व उपाध्यक्ष ह्यूज फिजरगेराल्ड इस विविधता के आयाम की व्याख्या करते हुये कहते हैं-
अमेरिका के राष्ट्रपति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण वाक्य बाइबिल के उद्धरणों को मान्यतापूर्वक शामिल करना है। शक्ति का यह स्रोत इस वर्ष (फरवरी 2003) में कोलम्बिया शटल के नष्ट हो जाने पर सामने आया। यदि यह अमेरिकी शटल न होकर फ्रांसीसी शटल होता तो जैक शिराक ऐसा प्रभाव देते कि इस शटल में सात अन्तरिक्ष यात्री थे और पैगन परम्परा का नाम देते। वहीं अमेरिका ने राष्ट्रीय शोक का आरम्भ और समापन हिब्रू बाइबिल से किया। राष्ट्रपति ने अपना पाठ इसायाह 40:26 से ग्रहण किया जिसमें स्वयं सृष्टि निर्माता ने आश्चर्य से उनकी मेजबानी की। इससे अन्तरिक्ष यात्रियों के पार्थिव परिजनों को कुछ ढाँढस बँधा।
मुसलमानों की उत्साही आस्था जिहादी सक्षमता और इस्लामी सर्वोच्चता की भावना से यूरोप की क्षरित ईसाइयत से अधिक भिन्न हो सकती है।। इसी अन्तर के चलते मुसलमान यूरोप को धर्मान्तरण और नियन्त्रण के परिपक्व महाद्वीप मानते हैं। अहंकारी सर्वोच्च भाव से युक्त दावे के उदाहरण हमारे समक्ष हैं। जैसे उमर बकरी मोहम्मद ने कहा “ मैं ब्रिटेन को एक इस्लामी राज्य के रूप में देखना चाहता हूँ । मैं इस्लामी ध्वज को 10 डाउनिंग स्ट्रीट में फहराते देखना चाहता हूँ”। या फिर बेल्जियम मूल के एक इमाम की भविष्यवाणी “ जैसे ही हम इस देश पर नियन्त्रण स्थापित कर लेंगे जो हमारी आलोचना करते हैं हमसे क्षमा याचना करेंगे। उन्हें हमारी सेवा करनी होगी। तैयारी करो समय निकट है”।
जनसंख्या- जनसंख्या का पतन भी यूरोप के इस्लामीकरण की ओर संकेत करता है। आज यूरोप की कुल जन्म दर 1.4 है जबकि किसी जनसंख्या को स्थिर रहने के लिये आवश्यक है कि यह जन्म दर 2.1 प्रति युगल हो। आज यूरोप में जन्म दर आवश्यकता से एक तिहाई मात्र ही है अर्थात जनसंख्या के लिये आवश्यक उत्पत्ति ही नहीं हो रही है।
जनसंख्या की गिरावट रोकने के लिये और विशेष रूप से कर्मचारियों को उदार पेन्शन के बाद भी उनकी अनुपस्थिति रोकने के लिये यूरोप को बड़ी मात्रा में आप्रवासियों की आवश्यकता होगी। आयातित जनसंख्या का एक तिहाई मुसलमान होते हैं, क्योंकि वे इसके अत्यन्त निकट हैं। मोरक्को से स्पेन की दूरी मात्र 13 कि.मी. है और इसी प्रकार अल्बानिया या लीबिया से इटली की दूरी कोई दो सौ कि.मी. ही है।
ऐसा इसलिये भी है कि उपनिवेश के कारण दक्षिण एशिया ब्रिटेन से जुड़ता है इसी प्रकार मगरीब और फ्रांस से भी और कुछ मात्रा में आज मुस्लिम विश्व में हिंसा, उत्पीड़न और गरीबी के कारण इनके आप्रवास को प्रोत्साहन मिलता है।
इसी प्रकार एक ओर स्वदेशी ईसाइयों के मुकाबले मुसलमानो में जन्म दर काफी अधिक है। यद्यपि मुसलमानों की जन्म दर घट रही है फिर भी उनकी जन्म दर स्वदेशी ईसाइयों की तुलना में अधिक है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुसलमानों की उच्च जन्म दर के पीछे यूरोप की मुस्लिम महिलाओ की आधुनिक पूर्व स्थिति भी उत्तरदायी है। ब्रुसेल्स में वर्षों तक नवजात शिशुओं को मोहम्मद नाम देने की परम्परा रही और एम्सटर्डम और रोटेरडम ऐसे रास्ते पर हैं जिससे 2015 तक यूरोप के ये दो शहर मुस्लिम बहुल हो जायेंगे। फ्रेन्च विश्लेषक माइकल गुरफिन्केल का अनुमान है कि फ्रांस के स्वदेशियों की नई पीढ़ी और आप्रवासियों की नई पीढ़ी में सड़कों पर आमने-सामने का संघर्ष होगा। वर्तमान भविष्यवाणी से लगता है कि 2015 तक रूस की सेना मुस्लिम बहुल और समस्त देश 2050 तक इसी रास्ते पर चला जायेगा।
विरासत का भाव- प्राय: जिसे राजनीतिक दृष्टि से सही होना माना जाता है वह मेरी दृष्टि में यूरोपवासियों का अपनी सभ्यता से अलग होना है और उनका सोचना कि उनकी ऐतिहासिक संस्कृति ऐसी नहीं है कि उसके लिये संघर्ष किया जाये या उसे बचाया जाये। इस विषय पर यूरोप के परस्पर मतभेद को भी देखा जा सकता है। सभ्यता के कम विलगाव से ग्रस्त देश फ्रांस है जहाँ राष्ट्रीयता अब भी विद्यमान है और फ्रांसीसी अपनी पहचान पर अभिमान रखते हैं। ब्रिटेन अपनी सभ्यता से विलगाव रखने वाला सबसे बड़ा देश है। जैसा कि ब्रिटेन सरकार के कार्यक्रम Icon- A Portrait of England के द्वारा ब्रिटिशवासियों को मूल्यों से विनी द पू और छोटे स्कर्टों के माध्यम से जोड़ा जा रहा है जो शायद ही उनमें राष्ट्रवाद की भावना जगा सके।
इन मतभेदों का मुस्लिम आप्रवासियों पर बड़ा प्रभाव पड़ने वाला है। जैसा कि आतिश तारिया ने प्रासपेक्ट पत्रिका में लिखा है,
अनेक ब्रिटिश पाकिस्तानियों के लिये ब्रिटिशपना नाम मात्र की पहचान रह गई है। यदि आप स्वयं अपनी संस्कृति को गिराते हैं तो नये आगन्तुक किसी अन्य संस्कृति की ओर देख सकते हैं। इस प्रकार इस मामले में द्वितीय पीढ़ी के पाकिस्तानियों को ब्रिटेन या महाद्वीप की संस्कृति से अधिक रेगिस्तान की अरब संस्कृति आकर्षित करती है। लम्बे समय तक तीन बार अपनी पहचान से मुक्त परा राष्ट्रवाद के लिये उत्साह पूर्ण इस्लाम द्वितीय पीढ़ी के पाकिस्तानियों के लिये सर्वाधिक सुलभ पहचान है।
आप्रवासी मुसलमानों ने पश्चिमी संस्कृति की अवहेलना की है और विशेषरूप से इसका सेक्सवाद( पोर्नोग्राफी, तलाक और समलैंगिकता) । यूरोप में कहीं भी मुसलमान आत्मसात नहीं हुआ है बड़ी मुश्किल से अन्तर्धार्मिक विवाह होते हैं। यहाँ कनाडा का एक मजेदार उदाहरण सामने है- कनाडा में पहले आतंकवादी परिवार खद्र बूड की माँ अप्रैल 2004 में अफगानिस्तान और पाकिस्तान से कनाडा लौटीं जिसके साथ उनका पुत्र था। कनाडा में शरण लेने के बाद भी उसने एक माह पहले ही इस बात को जोर देकर कहा है कि अल कायदा संचालित प्रशिक्षण शिविर उसके बच्चों के लिये सर्वाधिक उपयुक्त जगह थी, “ अभी मेरे बच्चे 12 और 13 वर्ष के हैं और क्या आप चाहेंगे कि वे कनाडा में पलें बढ़ें तथा नशीली दवाओं या समलैंगिक सम्बन्धों में लिप्त हों। क्या यह ठीक होगा। ”
( विडम्बना है कि इतिहासकार नार्मन डैनियल ने लिखा कि पिछली शताब्दियों में यूरोप के ईसाई मुसलमानों को उनकी अनेक पत्नियों और हरम के कारण अधिक यौन स्वेच्छारी मानकर स्वयं को नैतिक रूप से श्रेष्ठ मानते थे)
संक्षेप में पहला तर्क दर्शाता है कि मुसलमानों की सक्रियता और यूरोप की निष्क्रियता के कारण यूरोप का इस्लामीकरण होगा और अपने धिम्मी स्तर के साथ वह इस्लाम में धर्मान्तरित हो जायेगा। उच्च और निम्न धार्मिकता, उच्च और निम्न जन्म दर तथा उच्च और निम्न सास्कृतिक आत्मविश्वास के कारण यह सम्भव होगा। यूरोप एक खुला द्वार है जिसमें मुसलमान टहल रहे हैं।
मुसलमानों की अवहेलना- या फिर उनके लिये द्वार बन्द कर दिये जायें। अमेरिका के स्तम्भकार राफ पीटर्स ने पहले दृश्य को निरस्त किय है। “यूरोप में मुसलमान उधार का समय व्यतीत कर रहे हैं और बच्चों के माध्यम से यूरोप पर नियन्त्रण की बात करना यूरोप के खतरनाक इतिहास की अवहेलना करना है ”।
उन्होंने यूरोप को नरसंहार या नस्लवादी संहार वाले स्थल के रूप में चित्रित करने के बजाय भविष्यवाणी की है कि मुसलमान सौभाग्यशाली होंगे कि उन्हें वापस उनके देश भेज दिया जायेगा। Menace in Europe: Why the Continent’s Crisis is America’s Too में क्लेर बरलिम्स्को ने प्रकारान्तर से इस बात पर सहमति जताई है और यूरोप के प्राचीन संघर्ष की परिपाटी की ओर ध्यान दिलाया है।
इस दृश्य के पीछे प्रमुख कारण स्वदेशी यूरोपीय हैं जिनकी संख्या अब भी 95 प्रतिशत है और एक दिन वे उठ खड़े होंगे। वे खड़े होकर अपने ऐतिहासिक क्रम का पुन: दावा करेंगे। यह बहुत दूर नहीं है क्योंकि यूरोप के कुलीन वर्ग में नहीं तो सामान्य लोगों में इस घर्षण के दर्शन हो रहे हैं जहाँ परिवर्तनों पर विरोध का स्वर तीव्र हो रहा है। इन विरोधों की ब्याख्या के क्रम में फ्रांस में हिजाब विरोधी कानून, ईसाई प्रतीकों और राष्ट्रीय ध्वज पर रोक पर खीझ तथा राजकीय रात्रि भोजन मे शराब परोसने पर जोर देने के रूप में की जा सकती है। 2006 के आरम्भ में फ्रांस में एक स्वत: स्फूर्त आन्दोलन खड़ा हुआ है जहाँ लोगों ने अपनी इच्छा से ही मुसलमानों को अलग रखते हुये दरवाजों पर सूअर के मांस की दुकान लगाई।
वैसे तो ये छोटे मुद्दे हैं परन्तु अनेक देशों में आप्रवास विरोधी राजनीतिक दलों का उदय हो रहा है जो न केवल सीमाओं पर प्रभावी नियन्त्रण चाहते हैं वरन् अवैध आप्रवासियों को निकालने की माँग भी कर रहे हैं। हमारी आँखों के नीचे ही समस्त यूरोप में एक स्वदेशी आन्दोलन चल रहा है जिसे हम नजरअन्दाज कर रहे हैं। अभी तक रिकार्ड भले ही छोटा रहा हो परन्तु इसमें काफी सम्भावनायें छिपी हुई हैं।
आप्रवास और इस्लाम का विरोध करने वाले राजनीतिक दल प्राय: नव फासीवादी मूल के हैं परन्तु उन्होंने समय के साथ चलना सीख लिया है और सेमेटिक विरोधी मूल, आर्थिक नीतियों पर शंका को छोड़कर आस्था, भूजनांकिकी तथा पहचान पर जोर देते हुये इस्लाम तथा मुसलमानों के सम्बन्ध में अध्ययन कर रहे हैं। ब्रिटिश और बेल्जियम में ब्लामसे बेलाग ऐसे दो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिसे अभी सम्मान प्राप्त है और कल निर्वाचन प्राप्त होगा।
2002 में फ्रांस में राष्ट्रपतीय चुनाव में संघर्ष मूल रूप में जैक शिराक और नव फासीवादी जीन मारी ली पेन के बीच था। अन्य दल भी सत्ता का स्वाद चख चुके हैं। जार्ग हैदर और फ्रीटलीच पार्टी ओस्टरिच कुछ समय के लिये सत्ता में रही। इटली में लेगा नार्ड कुच वर्षों के लिये सत्ता में गठबन्धन का हिस्सा रही। वे अपने इस्लामवाद विरोधी सन्देशों के कारण और कुछ अवसरों पर इस्लाम विरोधी सन्देशों के कारण सशक्त बनकर उभरेंगे और मुख्य धारा के दल भी उनकी बात को स्वीकार कर लेंगे। ( डेनमार्क का परम्परावादी दल इसका उदाहरण प्रस्तुत करता है जो 72 वर्षों तक नेपथ्य में रहने के उपरान्त 2001 में मूल रूप में आप्रवासियों की चिन्ता से उभरे आक्रोश के कारण सत्ता में आया)। इन दलों को निश्चय ही यूरोप में आप्रवास की अनियन्त्रित स्थिति से लाभ होगा और जैसा कि संकेत है कि आने वाले दिनों में अफ्रीका से बड़े पैमाने पर पलायन होगा।
एक बार सत्ता में आने के बाद राष्ट्रवादी दल बहुलवादी संस्कृति को निरस्त कर परम्परागत मूल्य स्थापित करने का प्रयास करेंगे। कोई भी उनके उद्देश्य और मुस्लिम प्रतिक्रिया के बारे में अनुमान लगा सकता है। पीटर्स के अनुसार इन फासीवादियों के क्रमिक विस्तार और उनमें से कुछ गुटों की हिंसक प्रवृत्ति के चलते मुस्लिम प्रतिक्रिया की अपेक्षा भी की जा सकती है। वे तो एक ऐसी स्थिति का चित्र भी खींचते हैं जहाँ अमेरिका की नौसेना के जहाज यूरोप से मुसलमानों के सुरक्षित निकास के लिये दूर-दूर तक तैनात होंगे।
वर्षों से मुसलमान ऐसी क्रूरता, घेरेबन्दी, निकाले जाने या नरसंहार को लेकर चिन्तित हैं। 1980 के अन्त में लन्दन के मुस्लिम इन्स्टीट्यूट के निदेशक कलीम सिद्दीकी ने हिटलर की शैली में मुसलमानों के लिये गैस चैम्बर के भूत की आशंका प्रकट की थी। 1989 में शब्बीर अख्तर ने अपनी पुस्तक Be careful of Mohammad में कहा कि यूरोप में अगले क्रम में गैस चैम्बर होंगे और इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसके अन्दर कौन होगा अर्थात मुसलमान। हनीफ कुरैशी के 1991 के एक उपन्यास में एक पात्र ने कहा ; “गरिल्ला युद्ध आरम्भ होगा जब अन्त में श्वेत अश्वेतों और एशिया मूल के लोगों को गैस चैम्बर में डालेंगे।”
परन्तु इस बात की अधिक सम्भावना है कि मुसलमानों के साथ इस समस्या का हल शान्तिपूर्ण ढ़ंग से हो जायेगा और विशेषकर यह देखते हुये कि हाल के आतंकवाद और डराने क्रम में शुरूआत किसकी ओर से हुई है। अनेक जनमत सर्वेक्षणों से स्पष्ट है कि ब्रिटेन के 5 प्रतिशत मुसलमान 7 जुलाई को हुये बम विस्फोट को न्यायसंगत मानते हैं। यदि यह घटित होता है तो इसी मात्रा में यूरोप से उत्तर की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
मुसलमानों का आत्मसातीकरण- सबसे सुखद दृश्य में स्वदेशी यूरोपवासियों और मुसलमानों में परस्पर सद्भावपूर्ण सम्बन्ध रहे और वे एक साथ रहने का मार्ग ढ़ूँढ़ लें। इस प्रकार का आशावादी शास्त्रीय बयान 1991 में जीन हेलेन और पीयर पैट्रिक ने अपने अध्ययन के द्वारा दिया जब इतिहास में पहली बार उन्होंने कहा; “ यूरोप ने इस्लाम को लोकतान्त्रिक, सम्पन्न और शान्तिप्रिय के रूप में स्वयं को जागृत करने का अवसर प्रदान किया।” एक नेता ने 2006 के मध्य में जोर देकर कहा; “ फिलहाल तो इस समय यूरेबिया की बात करना डर उत्पन्न करने वाली मानसिकता की प्रतीक हैं।”
उसी समय हार्वर्ड दैवीय स्कूल में इस्लामी विषयों के सहायक प्रोफेसर जोकोल सीजर ने दावा किया कि दोनों के मध्य एक सन्तुलन की स्थिति विद्यमान है। उन्होंने दावा किया इस्लाम यूरोप को बदल रहा है और यूरोप इस्लाम को बदल रहा है। उनको लगा कि यूरोप में मुसलमान यूरोप के राज्यों को बदलने का प्रयास नहीं कर रहे हैं और उनकी अपेक्षा है कि वे स्वयं को यूरोपीय सन्दर्भ में ढाल लेंगे।
दुर्भाग्यवश ऐसे आशावाद का आधार काफी क्षीण है। यूरोप के लोग अभी भी अपनी ईसाई पहचान प्राप्त कर अधिक सन्तान उत्पन्न कर अपनी विरासत को सँभाले रख सकते हैं। वे गैर मुस्लिम आप्रवास को प्रोत्साहित कर अपने मध्य स्थित मुसलमानों को उनकी संस्कृति से दूर रख सकते हैं। परन्तु न तो ऐसे परिवर्तन हो रहे हैं और न ही उनकी सम्भावना दिखती है। इसके बजाय मुसलमान अपने पड़ोसियों से शिकायत रखते हैं और उनसे विपरीत महत्वाकांक्षायें रखते हैं। चिन्ता इस बात कि है कि प्रत्येक मुस्लिम पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी की अपेक्षा अधिक अलग-थलग पड़ती जा रही है। कनाडा के उपन्यासकार ह्यूज मैकलेनन ने टू सालीट्यूड्स में अपने देश में अंग्रेज फ्रेन्च विभाजन के माध्यम से इसी रूप को चित्रित किया था जिस पर अधिक चर्चा नहीं हुई। उदाहरण के लिये ऐसे ध्रुव पर ब्रिटिश मुसलमान अधिकांश संख्या में मुस्लिम पहचान और ब्रिटिशपने के मध्य संघर्ष देखते हैं तथा इस्लामी कानून की स्थापना चाहते हैं।
यूरोप के इतिहास की पाबन्दी को स्वीकार कर मुसलमान धीरे-धीरे इसके साथ आत्मसात होगा यह विचार कल्पना से परे है। कोटिंगगेन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जिन्होंने घोषणा की थी कि या तो इस्लाम का यूरोपीकरण होगा या फिर यूरोप का इस्लामीकरण होगा उन्होंने अन्तत: इस महाद्वीप को छोड़ दिया। वे 44 वर्षों तक जर्मनी में रहने के उपरान्त अमेरिका के कारनेल विश्वविद्यालय जा रहे हैं।
निष्कर्ष- जैसा कि अमेरिकी स्तम्भकार डेनिस प्रेजर ने निष्कर्ष निकाला है कि पश्चिमी यूरोप के इस्लामीकरण या गृहयुद्ध के अतिरिक्त इसके किसी अन्य भविष्य की कल्पना कठिन है। निश्चित रूप से यूरोप के भयानक विकल्प बचते हैं जो परस्पर विरोधी दिशाओं में जाते हैं या तो मुसलमानों का यूरोप पर नियन्त्रण हो जाये, या मुसलमानों को निरस्त किया जाये, या तो यूरोप को उत्तरी अफ्रीका का विस्तार बनने दिया जाये या फिर अर्ध गृहयुद्ध की स्थित देखी जाये।
इनमें से कौन सा विकल्प? इस समस्या का समाधान करने वाली घटना घटित होनी शेष है। इसलिये अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। निर्णय का समय तेजी से निकट आ रहा है। जो भी हो अगले दशक या उससे कुछ अधिक समय में यह अस्वाभाविक सम्बन्ध समाप्त होगा। यूरोप और इस्लाम के परस्पर सम्बन्ध कठोर होंगे और इस महाद्वीप का भविष्य स्पष्ट होगा। यह देखते हुये यह मामला ऐतिहसिक रूप से अभूतपूर्व है। कोई भी राज्यक्षेत्र जनसंख्या के पतन से इस प्रकार एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता, पहचान और आस्था में नहीं बदला और न ही कोई लोग इस प्रकार अपनी पहचान फिर से प्राप्त करने के लिये उठ खड़े हुये। यूरोप की इस प्रवृत्ति के कारण इसके बारे में भविष्यवाणी करना अत्यन्त कठिन है। यूरोप हमें पहचान निरपेक्ष मार्ग की ओर घसीट रहा है।