पिछले सप्ताह तुर्की की संसद द्वारा देश के सैन्य बल की राजनीतिक भूमिका कम किए जाने सम्बन्धी कानून पारित किए जाने के बाद तुर्की के एक विश्लेषक का अनुमान था कि यह जनरलों के लिए दुखद स्थिति होगी। लन्दन के डेली टेलीग्राफ का आकलन था कि यह तुर्की की राजनीति के व्यवहार में क्रान्ति लायेगा ।
अफसरशाही का जबर्दस्त विवाद प्रतीत होने वाला विषय अत्यन्त महत्व का है क्योंकि काफी लम्बे समय से तुर्की का सैन्यबल तुर्की में राजनीति के नरमपंथ का मुख्य केन्दु बिन्दु रहा और साथ ही इजराइयल और अमेरिका के साथ निकट सम्बन्धों का भी। इसके अभाव में अब इस देश की यात्रा कैसी होगी ?
यह प्रश्न अत्यन्त तात्कालिक महत्व है क्योंकि पिछले सप्ताह का परिवर्तन एक विडम्बनापूर्ण गुट जस्टिस एण्ड डेवलयमेन्ट पार्टी ने किया है जिसने नवम्बर की जबर्दस्त विजय के पश्चात तुर्की की राजनीति को प्रभाव में ले लिया है। उसके बाद तुर्की के सार्वजनिक जीवन में सबसे बड़ा प्रश्न है कि एकेपी एक उग्रवादी इस्लामी पार्टी है जिसकी अधिनायकवादी प्रवृत्ति है और क्रान्तिकारी परिवर्तन का छुपा एजेन्डा है ( जैसा कि इसके विरोधियों का दावा है)
या फिर एक सेकुलर पार्टी है जो नरमपंथी विचारों के साथ परम्परावादी है। (जैसा कि ए के पी स्वयं को चित्रित करती है)
आरम्भिक लक्षण सकारात्मक थे। रिसेप तईप एरडोगन जो कि ए के पी के नेता हैं और अब तुर्की के प्रधानमंत्री हैं उन्होंने आश्वासन दिया था कि ए के पी किसी एक धर्म की पार्टी नहीं है और जोर देकर कहा कि इस्लामी कानून लागू करने का इसका कोई आशय नहीं है। पार्टी को चुनाव जीतने तक तात्विक परिवर्तन के सम्बन्ध में शान्ति बनाये रखी। इसके बजाय आर्थिक विकास, यूरोपीय संघ में शामिल को मुद्दा बनाया न कि गर्मागर्म इस्लामी मुद्दों को।
आशावादियों ने एरडोगन के रिकार्ड का सर्वेक्षण किया और तुर्की के दो अग्रणी प्रोफेसरों मोटिन हेयर और मुल टोकतस सहित निष्कर्ष निकाला कि वह राजनीतिक इस्लाम समर्थक नहीं है। कुछ तो इससे भी बढ़कर कहने लगे अमेरिका के पत्रकार राबर्ट कापलान ने प्रस्ताव रखा कि ए के पी इस्लाम में प्रोटेस्टेन्ट सुधार सिद्ध होकर मध्य - पूर्व में उदारवाद का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। कापलान ने सम्भावना व्यक्त की कि ए के पी के सत्ता में आने से अमेरिका को लाभ होगा क्योंकि यह अमेरिका के साथ गठबन्धन के लिए समर्थन बढ़ायेगा।
परन्तु निराशावादियों का मानना था कि ए के पी का मूल ऐसी दो राजनीतिक पार्टियों में हैं जो अपनी उग्रवादी इस्लामी सक्रियता के कारण अवैधानिक हो गई थी। तुर्की के एक चिन्तित अधिकारी ने कहा कि जिन लोगों का ए के पी पर नियन्त्रण है वे उससे कहीं अधिक कट्टर हैं जैसा वे कहते हैं। तुर्की के सेना प्रमुख सेना कि चिन्ता प्रकट करते हुए नव निर्वाचित संसद को चेतावनी दी, ‘ तुर्की का सैन्यबल सेकुलरिज्म की रक्षा में जुटा है
मार्च में यह आशावाद ढह गया जब एकेपी के नियन्त्रण वाली तुर्की संसद ने इराक के विरूद्ध तुर्की में अमेरिका सेना की तैनाती का विरोध करते हुए दशकों के परस्पर विश्वास को ध्वस्त कर दिया। आरम्भ में संसद की अनुभवहीनता की आड़ में छुपने का प्रयास सफल नहीं हुआ जब एरडोगन ने जोर दिया कि वोट देकर उन्होंने कोई गलती नहीं की है।
इस मत के अनेक परिणाम होने वाले हैं। इससे सेना और ए के पी के मध्य तनाव बढ़ा। इससे अमेरिका सरकार विचलित हुई, रक्षा विभाग के पाल वोल्कोविज ने इस निर्णय को बड़ी भूल करार दिया। तुर्की के अमेरिका मित्र स्थितियों का नये सिरे से आकलन करने लगे और जैसा कि न्यार्क टाइम्स में विलियम सफायर ने अत्यन्त दुख के साथ लिखा कि किस प्रकार ए के पी ने अमेरिका के एक पूर्व घोर सहयोगी को सद्दाम का सबसे अच्छा मित्र बना दिया। उससे ए के पी के अप्रत्यक्ष उग्रवादी इस्लामी एजेन्डे को लेकर नये सिरे से भय सताने लगा।
आशावादी दृष्टिकोण उस समय और भी अधिक क्षीण हुआ जब यह पता चला कि तुर्की के विदेश मंत्री और ए के पी नेता ने मिल्ली गोरस नामक एक उग्रवादी इस्लामी गुट का समर्थन करने के लिए विदेश स्थित दूतावासों से कहा है। इस संगठन को हैम्बर्ग अदालत ने जर्मनी में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। इसी प्रकार ए के पी समर्थित संसदीय समिति ने नई सरकार द्वारा मस्जिदों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता को 9 गुना अधिक कर दिया।
मई में जनरल ओजकोक ने व्यक्तिगत रूप से एरडोगन को फटकार लगाई। सार्वजनिक रूप से उन्होंने सैन्य संवेदना और ए के पी के सेकुलर विरोधी गतिविधयों में लिप्त होने पर चिन्ता प्रकट की। उन्होंने संक्षेप में ए के पी को सत्ता से लगभग बाहर करने की बात की।
इस संदर्भ में पिछले सप्ताह के मतदानों से परिलक्षित होता है कि ए के पी ने सेना की आपत्तियों को दर किनार कर चुनौती स्वीकार की है और जनरलों के राजनीतिक प्रभाव को कम करते हुए तुर्की को यूरोपीय संघ की सदस्यता के लिए तैयार करने के संदर्भ में कानून पारित कर रही है।
इस कार्यवाही से दो प्रश्न उठते हैं – क्या सेना के अधिकारी इस सीमा को स्वीकार करेंगें या फिर यह उस प्रक्रिया का आरम्भ है जहाँ से मध्य-पूर्व में पिछले 80 वर्षों से सेकुलरिज्म का आधार स्तम्भ बन कर खड़ा तुर्की एक इस्लामी गणतन्त्र में परवर्तित हो जायेगा। काफी कुछ दाँव पर लगा है बस देखते रहिए।