प्रश्न – कौन सा देश बहुत समय नहीं हुए जब डेढ़ वर्ष के के लिए मध्य - पूर्व के मानचित्र से लुप्त हुआ था ?
उत्तर – कुवैत वह राज्य है जो अगस्त 1990 से फरवरी 1991 के मध्य लुप्त हुआ था और इराक का उन्नीसवाँ प्रान्त बना था। सद्दाम हुसैन द्वारा इस पर क्रूर विजय 1930 इस देश पर रूक-रूक कर किये जा रहे दावे का परिणाम था। कुवैत की सम्प्रभुता लौटाने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में पाँच लाख सेना की सैन्य कार्रवाई की आवश्यकता पड़ी।
यह इतिहास मस्तिष्क में आया क्योंकि हाल में ईरानी प्रवक्ता ने बहरीन के समबन्ध में ऐसी ही धमकी दी है। ईरान के सर्वोच्च नेता अली खोमैनी के सहयोगी तथा केहोन दैनिक समाचार पत्र के सम्पादक हुसैन शरियतमदारी ने एक जुलाई को सम्पादकीय पृष्ठ पर एक लेख में दावा किया ‘ बहरीन ईरानी भूमि का एक भाग है जिसे अमेरिका, ब्रिटेन तथा शाह(मोहम्मद रजा पहलवी) के षड्यन्त्र से अलग कर दिया गया ’’।
बहरीन की बहुसंख्यक शिया जनता हवाला देते हुए शरियतमदारी ने अपना दावा आगे बढ़ाते हुए बिना किसी प्रमाण के कहा “ बहरीन की सबसे बड़ी माँग इस प्रान्त को अपनी मातृ भूमि इस्लामी ईरान को लौटा देने की है ’’।
मिडिल ईस्ट मीडिया एण्ड रिसर्च इन्स्टीट्यूट में उन टिप्पणियों के प्रकाशित होने के उपरान्त बहरीन में भूचाल आ गया। ईरानी दूतावास के बाहर प्रदर्शन हुए, सरकार की ओर से भीषण वक्तव्य आये, संसद के दोनों सदनों में प्रस्ताव पारित हुए और यहाँ तक कि ईरानी माँग का समर्थन करने वाले बहरीन के विरूद्ध मौत का फतवा तक जारी हो गया। फारस की खाड़ी के अन्य देशों ने भी कटु वक्तव्यों के साथ बहरीन का साथ दिया।
यह विषय काफी संवेदनशील है। बहरीन पर तेहरान का दावा 1958 तक जाता है जब उसने इस प्रायद्वीप को ईरान का चौदवहाँ प्रान्त घोषित किया था। यहाँ तक कि राष्ट्रीय संसद में यहाँ से दो सीटें भी रख दी गई थीं। यद्यपि शाह ने औपचारिक रूप से 1970 में बहरीन की स्वतन्त्रता घोषित कर दी परन्तु शरियतमदारी जैसे दावे समय-समय पर उठते रहे जो 1990 से पूर्व कुवैत पर ईराकी दावे की याद दिलाते हैं।
और जैसा कि कुवैत इराक की पेट में समा गया वैसा ही कुछ बहरीन के साथ भी हो सकता है। वे अकेले नहीं हैं, तीन अन्य मध्य पूर्व के राज्य भी समाप्ति के खतरे से ग्रस्त हैं। जार्डन सदैव अधिक शक्तिशाली और बड़े तथा अधिक आक्रामक राज्यों से दबा रहा है। इस भय से सम्बन्धित एक संस्मरण कुवैत संकट के समय नवम्बर 1990 का है जब इसके राजकुमार हुसेन को चिन्ता सता रही थी कि “उनका छोटा देश समाप्त होने की कगार पर है ’’।
लेबनान की स्वतन्त्रता 1926 में उसके अस्तित्व में आने के बाद से ही प्रश्न चिन्हित है। क्योंकि सीरिया पड़ोसी लेबनान के राज्यक्षेत्र को खोना नहीं चाहता। दमिश्क ने मानचित्र के आधार पर ( इसकी सीमायें क्षेत्रीय बताई न कि अन्तरराष्ट्रीय) कूटनीति के आधार पर (बेरुत में सीरिया का दूतावास नहीं खोला) और राजनीतिक आधार पर (तान दशकों से लेबनान के घरेलू मामले में दबदबा बनाये रखा) लेबनान को अस्वीकार किया।
इजरायल के अस्तित्व को एक यहूदी राज्य के रूप में 1940 में उसकी स्वतन्त्रता की घोषणा के बाद से ही खतरा है।
अगले दशकों में अनेक चक्रों में युद्ध में विजय. प्राप्त कर इसे कुछ स्थायित्व मिला जिसे 1912 से दिशाहीन मतदाताओं और अक्षम नेतृत्व के चलते 1967 के युद्ध पहले की तुलना में अधिक खतरे का सामना करना पड़ रहा है।
मध्यपूर्व के ऐसे राज्यों के खतरे से अनेक विचार उभरते हैं – पहला, उनके कारण इस क्षेत्र की दुष्ट आस्थिर और राजनीतिक जीवन में ऊँचे दाँव की स्थिति का संकेत होता है। जहाँ तक मुझे पता है मध्य-पूर्व के बाहर कोई ऐसा देश नहीं है जिसका अस्तित्व सन्देह के घेरे में हो।
दूसरा , यह परिपाटी अनसुलझी सीमाओं के कारण फैली है। मुठ्टीभर अपवादों को छोड़ कर जिसमें इजरायल की दो अन्तर्राष्ट्रीय सीमायें है शेष मध्य पूर्व में सीमायें न तो स्पष्ट हैं और न ही उन पर सहमति है। इस निचले स्तर के पर्यवेक्षणवाद से राजनीति को समाप्त करने की आकांक्षा जगती है।
तीसरा , यह स्थिति इजरायल के उहाफोह को सही स्थिति में रखती है वैसे विश्व के बड़े पैमाने पर समाप्ति का भय व्याप्त है पर इस क्षेत्र में यह अधिक है जहाँ सैकड़ों प्रेस कवरेज और पुस्तकें सामने आयी हैं जबकि शेष चार के लिए नहीं हैं। फिर भी सभी पाँचों के सामने समान भय है इस सन्दर्भ में अन्तर्निहित है कि इजरायल का अनसुलझा स्तर लम्बे समय तक रहने वाला है।
अन्त में , समस्त मध्य-पूर्व में ऐसे अनसुलझे तनावों से एक बार फिर स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र की समस्या का मूल अरब - इजरायल संघर्ष को माना जाता है। प्रत्येक खतरे में पड़े राज्य की अपनी अभूतपूर्व परिस्थियाँ हैं परन्तु कुल मिलाकर राज्य की राजनीति को कोई संचालित नहीं करता। अरब-इजरायल संघर्ष का समाधान करने से बेहतर इस स्पष्ट संघर्ष का समाधान करना होगा ।