द वीकली स्टैण्डर्ड में डेविड ब्रुक्स ने लिखा है कि “यह भाव जाता है कि अमेरिका की सेना का उत्साह इतना अधिक है कि संघर्ष के नियम फिर से लिखे जा रहे हैं ’’।
निश्चित रूप से ऐसा है। 2001 में अफगानिस्तान युद्ध में और अब समाप्त हो रहे इराक युद्ध में युद्ध के पराम्परागत नियम नीचे आ गये हैं। परन्तु यह केवल अमेरिकी रूझान नहीं है इसी प्रकार को पुनर्लेखन फिलीस्तीनियों के विरूद्ध इजरायल के युद्ध में भी लागू होता है।
कुछ परिवर्तन इस प्रकार हैं –
कौन शत्रु है – द्वितीय विश्व युद्ध के समय युद्ध समस्त देश के विरूद्ध होता था उदाहरण के लिए समस्त जनता को दुष्ट माना जाता था। अब लोग सतर्कतापूर्वक (तालिबान, सद्दाम हुसैन का शासन, अराफात) और लोगों (अफगान , इराकी फिलीस्तीनी) के मध्य विभाजन करते हैं। पहला शत्रु है जबकि दूसरे में मित्र होने की सम्भावना है। ऐसी स्थिति में परम्परागत युद्ध से हटकर कुछ किया जाता है जैसे अफगानिस्तान में अमेरिकी जहाज एक ओर शासन समाप्त करने के लिए बम गिराते हैं तो वहीं जनता को राहत पहुँचाने के लिए भोजन देते हैं।
कौन विजयी होगा – सबसे बड़ा प्रश्न है कि युद्ध का परिणाम क्या होगा। इन दिनों जब यह पश्चिम बनाम गैर पश्चिम है तो आर्थिक, तकनीक, सामग्री, प्रारीक्षण और संगठन की असमानता के चलते पश्चिम की विजयी की अश्वास्ति है। इससे पूरा ध्यान अन्य दूसरे मामलों पर जैसे शत्रुता की अवधि और क्षति की मात्रा पर जाता है।
क्षतियाँ – पुराने दिनों में प्रत्येक पक्ष दूसरे पक्ष को अधिकतम क्षति पहुँचाना चाहता था, पश्चिमी सेनायें दूसरे पक्ष की क्षति कम करने में लगी हैं। इसके जबाब में गैर पश्चिमी शासक कभी-कभी अपनी जनता को क्षति पहुँचाते हैं।
फिलाडेल्फिया इन्क्वायरर में मार्क बाउडेन ने लिखा कि इराक में ‘रक्षा सेना अपने ही नागरिकों को खतरे में डाल रही थी जबकि आक्रमणकारी सेना उन्हें मारने या घायल करने से बच रही थी ’’। इसी प्रकार अराफात के आतंकवादी नियमित रूप से रिहायशी इलाकों के बाहर अपना अभियान चलाते हैं ताकि नागरिक क्षतियाँ हों।
लूट – अभी 1918 तक युद्ध में विजय का अर्थ होता था पराजित पक्ष को भिखारी बना देना। उसके पश्चात द्वितीय विश्व युद्ध के मार्शल योजना द्वारा अमेरिकी सरकार ने अपने पूर्व शत्रु की फिर बहाली के लिए धन देने का उदाहरण स्थापित किया। यह जल्द ही एक नियम बन गया और इस हद तक कि बहुत सी शिकायतें आई कि बुश प्रशासन ने अफगानों के लिए और शेरोन ने फिलीस्तीनियों के लिए कुछ अधिक नहीं किया। उदाहरण के लिए नेबरास्का के रिपब्लिकन सीनेटर चक हाजेल अफगानिस्तान में अमेरिका के प्रयासों से सन्तुष्ट नहीं हैं और उन्होंने वहाँ और प्रयास तथा मानवीय शक्ति की मांग की। इराक में अमेरिका के कर दाताओं को अरबों डालर खर्च करने पड़ रहे हैं।
दूसरे पक्ष को सहायता देने की लड़ाई – परम्परागत ढंग से स्पष्ट रूप से दोनों पक्ष अपने-अपने हितों के लिए लड़ते हैं। सद्दाम हुसैन के विरूद्ध गठबन्धन ने अपने अभियान का नाम ‘ आपरेशन न्यूक्स या ‘आपरेशन चीप आयल ’ नहीं रखा वरन् ‘आपरेशन इराकी फ्रीडम ’ रखा। राष्ट्रीय हितों की प्राचीन अवधारणा अब कमजोर पड़ रही है।
दूसरे पक्ष के लिए भी सहानुभूति – अब वफादारी राष्ट्रीयता का अर्थ नहीं है। 1899 – 1902 में बोअर युद्ध के समय से यह परम्परा चली जब दक्षिण अप्रीका में अफ्रीकनों से व्रिटिश सत्ता ने युद्ध किया। बड़ी संख्या में पश्चिमवासियों ने अपनी सरकार के युद्ध के उद्देश्यों का विरोध किया। इसी प्रकार की भावना अल्जीरिया में फ्रांस की और वियतनाम में अमेरिका की हार का कारण बना। सद्दाम हुसैन के विरूद्ध युद्ध में व्रिटेन और अमेरिका के अनेक लोग चाहते थे कि गठबन्धन पराजित हो। इसके विपरीत बहुत से इराकी गठबन्धन की विजय चाहते थे।
इन परिवर्तनों से युद्ध के तरीके में बदलाव आ गया है। महत्वपूर्ण ढंग से गैर-पश्चिम के विरूद्ध पश्चिम का अभियान युद्ध के बजाय पुलिस का छापा लगता है। पश्चिमी सरकारें पुलिस है, स्थानीय उत्पीड़क अपराधी और प्रजा पीड़ित है।
समानता देखिए कि गैंग के अगुआ की भाँति मुल्ला उमर और सद्दाम हुसैन अदृश्य हो गये (क्या अराफात का अगला नम्बर है) इन अभियानों का परिणाम स्पष्ट है। पीड़ितों का अधिकार भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की पुलिस की सुरक्षा। अतिशय शक्ति का प्रयोग न करना सर्वोच्च प्राथमिकता और वामपंथी अपराधियों के प्रति सहज है।
इस परिवर्तन में अन्तर्निहित है कि पश्चिम का युद्ध का तरीका परिवर्तित हो गया है और यह अलिखित राज्यक्षेत्र में प्रवेश कर रहा है। सौभाग्यवश दो लोकतन्त्र इस प्रकार के युद्ध में हैं अमेरिका और इजरायल इन दोनों देशों की मानवीय और रचनात्मक सेना चुनौतियों के लिए समर्थ है।