बाहरी विश्व ने शायद ही ध्यान दिया हो कि बड़ी तेजी से धन का प्रबन्धन इस्लामी कानून अर्थात् शरियत के आधार पर हो रहा है। एक अध्ययन के अनुसार “2005 के अन्त तक 65 राज्य क्षेत्रों में 300 संस्थायें 700 मिलियन यू.एस. डालर से 1 अरब की सम्पात्ति का प्रबन्धन शरियत के अनुकूल कर रही थीं ’’।
इस्लामी अर्थशास्त्र धीरे-धीरे धनाढ्य तेल निर्यातकों और दुगने होते इस्लामी आर्थिक उपक्रमों (जैसे ब्याज रहित बन्धक और ब्राण्ड) के चलते प्रतिस्पर्धी शक्ति बन चुका हैं। इस सब का अभिप्राय क्या है ? क्या शरियत के अनुकूल उपक्रम वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को चुनौती दे सकते हैं ? जैसा कि एक उत्साही का दावा है कि इस्लामी आर्थिक राज्य में अन्तर्निहित है कि वह अन्याय को समाप्त कर देगा क्योंकि “लोगों के कल्याण के लिए राज्य के प्रावधान हैं ’’।
इसे समझने के लिए आरम्भ करने का का सबसे अच्छा स्थान दक्षिणी कैलीफोर्निया के इस्लामी विचार और संस्कृति के प्रोफेसर तिमुर कुरान की मेघावी पुस्तक "Islam and Mammon” है।
सम्प्रति ड्यूक विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य कर रहे कुरान ने पाया कि इस्लामी अर्थशास्त्र की परिकल्पना मोहम्मद के समय में नहीं थी और इस परम्परा का आविष्कार 1940 में भारत में हुआ। एक आर्थिक अनुशासन की अवधारणा जो कि ‘पृथक रूप में और अपने में इस्लामी हो यह अत्यन्त नई है ’। यहाँ तक कि एक शताब्दी पूर्व अत्यन्त पढ़े – लिखे मुसलमान भी इस्लामी अर्थशास्त्र पर आश्चर्य चकित थे।
यह विचार मूल रूप में एक इस्लामवादी बौद्धिक अबुल – अला मौदूदी (1903 – 79) का था जिसके द्वारा उसने इस्लामी अर्थशास्त्र के आधार पर अनेक लक्ष्य प्राप्त किये। गैर मुसलमानों के साथ सम्बन्ध कम करने , मुस्लिम पहचान की संकलित संवेदना को सशक्त करने , इस्लाम को मानवीय गतिविधि के नये युग में प्रवेश करने और बिना पश्चिमीकरण के उसका आधुनिकीकरण करने में उन्हें सफलता मिली।
एक अकादमिक क्षेत्र के रूप में इस्लामी अर्थशास्त्र ने 1960 के मध्य में ऊँचाई ग्रहण की और 1970 में तेल की उछाल के समय इसे सांस्थानिक दर्जा मिला जब सउदी तथा अन्य मुस्लिम तेल निर्यातकों ने पहली बार बड़ी मात्रा में धन अर्जित किया और प्रकल्प को बड़ी मात्रा में सहायता पहुँचाई ।
इस्लामी अर्थशास्त्र की वकालत करने वाले मूल रूप में दो दावे करते हैं कि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था असफल हो गई है और इस्लाम एक विकल्प प्रस्तुत करता है। बाद की बात का मूल्यांकन करने के लिए कुरान ने इस्लामी अर्थशास्त्र की वास्तविक कार्य पद्धति को समझने की चेष्टा की है और उसके तीन दावों पर विशेष ध्यान दिया है कि इसने धन पर ब्याज समाप्त कर दिया है , आर्थिक समानता को प्राप्त कर लिया है तथा उच्चस्तरीय व्यावसायिक नैतिकता को स्थापित किया है। उन्होंने पाया है कि इन तीनों क्षेत्रों में यह असफल रहा है।
1 आर्थिक लेन देन से ब्याज कहीं भी साफ नहीं हुआ है और कहीं भी आर्थिक इस्लामीकरण को जनता का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ है। ’’ इजरा , मुदारबा , मुराबहा और मुशारफा जैसे बाहरी और जटिल लाभ हानि में भाग प्राप्त करने की तकनीक में महीन ढंग से ब्याज के भुगतान की पद्धति है। जो बैंक इस्लामी होने का दावा करते हैं वे वास्तव में ‘ सभी अन्य आधुनिक आर्थिक संस्थानों की भाँति दिखते हैं न कि किसी इस्लामी विरासत से ’। संक्षेप में इस्लामी बैंकिंग के साथ कुछ भी इस्लामी नहीं है और इसकी व्याख्या इससे भी होती होती कि किस प्रकार सिटी बैंक तथा अन्य पश्चिमी बैंकों में इस्लामी ग्राहक अपने पैसे जमा करते हैं न कि किसी विशेष इस्लामी बैंक में।
2 कहीं भी जकात के माध्यम से असमानता कम करने का प्रयास सफल नहीं हुआ है। वास्तव में कुरान ने पाया कि यह कर जरूरी नहीं है कि गरीबों तक पहुँचे , इसके संसाधन उनके अतिरिक्त कहाँ अन्य जानते हैं। मलेशिया में जकात कर की व्यवस्था है जो कि गरीबों की सहायता की कल्पना से की गई है परन्तु उसके अलावा ऐसा प्रतीत होता है “वृहद इस्लामी उद्देश्यों की पूर्ति और धार्मिक अधिकारियों की जेबें भरने में यह सहायक है ’’।
3 आर्थिक नैतिकता की नई बात का आर्थिक व्यवहार पर प्रभाव नहीं पड़ा है। ऐसा इसलिए है कि समाजवाद के साथ समान होने पर भी इस्लामी अर्थशास्त्र के ऐजेण्डे के कुछ तत्व मानवीय प्रकृति से मेल नहीं खाते।
कुरान ने इस्लामी अर्थशास्त्र की पूरी परिकल्पना को खारिज किया है। “ जब एक जहाज बनाने , राज्य क्षेत्र की रक्षा करने , महामारी से बचाव या मौसम के पूर्वानुमान का कोई अलग इस्लामी रास्ता नहीं है तो फिर धन मामले में कैसे ? उन्होंने समापन करते हुए कहा कि इस्लामी अर्थशास्त्र का महत्व अर्थशास्त्र में नहीं वरन् पहचान और धर्म के रूप में है। इस योजना ने , “समस्त इस्लामी विश्व में पूर्व आधुनिक विचार धारा को विस्तारित किया है । इसने इस्लामी उग्रवाद के अनुकूल वातावरण को भी बढ़ाया है ’’।
वास्तव में , इस्लामी अर्थशास्त्र ने सम्भवत: वैश्विक अर्थ व्यवस्था में अस्थिरता उत्पन्न करने में योगदान दिया है और वह भी आर्थिक विकास के लिए आवश्यक सामाजिक सुधार में बाधा उत्पन्न कर ’’। विशेष रूप से यदि मुसलमानों को वास्तव में ब्याज जमा करने या ब्याज लेने रोक दिया जाये तो अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में वे अलग-थलग पड़ जायेगें।
संक्षेप में , इस्लामी अर्थव्यवस्था का आर्थिक दृष्टि से बहुत कम महत्व है परन्तु राजनीतिक दृष्टि से यह बड़ा खतरा उत्पन्न करता है।