अमेरिकी जनता सद्दाम हुसैन के इराकी शासन के प्रति दो तथ्यों से पूरी तरह सहमत हैं. पहला इसकी क्रूरता और दूसरा है इसके द्वारा पैदा किये खतरे खासकर परमाणु आक्रमण का खतरा। असहमति , अगर कोई है तो वह इससे निपटने के तरीके के ऊर है। आखिर इसके साथ किया क्या जाए ? क्या इसका तख्ता अभी पलट दिया जाए या बगदाद को एक और अवसर दिया जाए ? या संयुक्त राष्ट्र के पीछे चला जाए ?
पर अगर अमेरिकी विश्वविद्यालयों के उल्टे-पुल्टे संसार में प्रवेश करे तो वहाँ आपको अक्सर ऐसे प्राध्यापक मिल जाएँगे जो अमेरिका (न की इराक) को मुख्य समस्या मानते हैं और तेल(न कि परमाणु बम) को मुद्दा ।
पेश है उनके सोच का एक उदाहरण ।
नोम चाम्सकी , एम.आई.टी के भाषाविद् , और कट्टर वामपंथ के सितारे इस बात पर जोर देते हैं कि बुश प्रशासन और उसके सलाहकार सद्दाम हुसेन का विरोध उसके द्वारा किए गये कई अपराधों या परमाणु अस्त्र तक उसकी पहुँच के कारण नहीं करते । “ हम सभी जानते हैं कि उनका लक्ष्य क्या है ’’ चाम्सकी अपने हालिया साक्षात्कार में कहते हैं “असल कारण यह है कि इराक के पास दुनिया का सबसे बड़ा तेल कोष है। ’’
जिम रेगो , स्वार्थमोर कालेज के अतिथि अध्यापक , ने एक परिचर्चा के दौरान कहा कि सितम्बर 11 की घटना के बाद भी अमेरिकी सरकार ने महज अपनी पहचान बनाये रखने के लिए एक और दुश्मन तैयार कर दिया है। रेगो अपनी सोच को वामपंथ की शानदार विशेषता के साथ समझाते हुए कहते हैं, “मेरे ख्याल से हमें कभी-कभी ऐसे लोगों की कमी पड़ जाती है जिनसे हम लड़ाई कर सकें और हमारी कोशिश सदा रहती है कि लड़ाई अनवरत चलती रहे।”
सेरिक फोनर , कोलम्बिया विश्वविद्यालय में दक्षिणी अमेरिकी इतिहास के प्राध्यापक अमेरिका द्वारा इराक पर पूर्वघाती आक्रमण को एक ऐसा कदम मानते हैं , “जो हमें जंगल राज में वापस ले जा रहा है ” साथ ही वह यह भी मानते हैं कि “ इसके पक्ष में लगभग वही तर्क हैं जो जापान के पर्ल हार्बर पर अपने हमले को सही ठहराने के लिए दिये गये थे।”
ग्लोडा सिलमोर ,खुले विश्विविद्यालय में में दक्षिणी अमेरिका के इतिहास की सह प्राध्यापक, अपने विद्यालय के अखबार में यह कहती हैं कि इराक के साथ यह गतिरोध अमेरिकी शक्ति के विस्तार की योजना का एक उदाहरण मात्र है। वे इसे इससे कम कुछ भी मानने को तैयार नहीं है, वे आगे कहती हैं । यह बुश की उस योजना का कदम है जो हमारे देश को एक ऐसे आक्रामक राष्ट्र में बदल देगा जो विरोध सहन नहीं कर सकता वे अपने बयान को एक कार्टूनी पात्र के इस संवाद के साथ पूरा करती हैं, हम शत्रु से मिल चुके हैं और वह है एक दुख ।”
मादिन कुमशेया , खुले विश्वविद्यालय में जेनेटिक्स के सह प्राध्यापक और “अल कायदा- द पैलिस्टाइन राइट टू रिटर्न कोएलिशयन के सह संस्थापक , कौनेकिटकिट के एक अखबार में लिखते है “ अगर सद्दाम है ते उसे वाशिंगटन ने ही पैदा किया है ” उनका निष्कर्ष यह है कि इराक के खिलाफ अमेरिका युद्ध इजरायल के पक्षधरो और कुछ अमेरिकी अधिकारियों जो कि आदिवासी संसर्ग या कहें यहूदी मूल से प्रभावित है, द्वारा पैदा किया गया प्रत्यावर्तन मात्र है। इस युद्ध का एकमात्र उद्देश्य इजरायल द्वारा किए जा रहे , जैसा कि मार्दन कहते हैं फिलीस्तीन विरोधी गहरे अत्याचारों को एक आवरण प्रदान करना मात्र है। इन अत्याचारो का मूल उद्देश्य है फिलीस्तीनियो को गाजा पट्टी और पश्चमी तट से बेदखल करना है।
टांम नेगी, जार्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के व्यापार के सह प्राध्यापक गर्व के साथ अपने विश्वविद्यालय के अखबार को उनके द्वारा सद्दाम प्रशासन को अपनी इराक की(अवैधानिक) यात्रा के दौरान पहुँचायी गई मदद के बारे में जानकारी देते हैं। विशेष तौर पर उन्होंने यह जानकारी दी कि युद्ध के दौरान महत्वपूर्ण इमारतों और प्रतिष्ठानो को बचाने के लिए मानवीय कवच हेतु कितने असैनिक लोगो की जरूरत पड़ेगी।
दुर्भाग्य से ये विचार अमेरिकी एकेडेमी के लिए एक आम बात है।कई दशकों से अमेरिका का सबसे अलग-थलग पड़ा संभाग है। इस धारणा को 1918 में सबसे ज्यादा बिकने वाले एक उपन्यास की शीर्षक – हार्वर्ड हेट्स अमेरिका बिल्कुल सही तौर पर दर्शाता है।
यह सत्य है कि प्राध्यापकों को अपने विचार व्यक्त करने का हक है चाहे वे कितने ही कटु और दिग्भ्रमित क्यों न हों। फिर भी अपनी सरकार का निरन्तर विरोध निश्चित तौर पर कुछ सवाल पैदा करते है।
आखिर क्यों अमेरिका के शिक्षाविद् अपने देश से इतनी घृणा करते हैं कि उन्हें दमनकारी और खतरनाक शासनों का साथ देना पड़ता है ?
आखिर क्यों विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञ अपने ही समय के बड़े मुद्दों को समझने में इतने अक्षम है शुरूआत वियतनाम से होती है और मामला शीत युद्ध , कुवैत युद्ध से बढ़ता हुआ आतंक के खिलाफ युद्ध पर आ टिकता है ?। आखिर क्यों भाषाविज्ञान , रसायन शास्त्र , अमेरिकी इतिहास ,अनुवांशिकी और व्यापार के प्रशासक अपने आप को मध्य पूर्व के बारे में विशेषज्ञ मानते हैं
आखिर इस दीर्घकालिक अतिवादी असहिष्णु और अमेरिकी विरोधी वातावरण का विश्वविद्यालय के छात्रों पर क्या असर होगा ?
समय आ गया है अमेरिकी शैक्षणिक परिसरों के शिक्षकों और प्रशासको पर कड़ी निगरानी रखी जाए खासकर ऐसे समय में जब हम एक युद्ध लड़ रहे हैं, विश्वविद्यालयों का लक्ष्य अपनी नागरिक जिम्मेदारियों को पुन: निभाने का समय आ गया है।
यह लक्ष्य तभी प्राप्त किया जा सकता है जब बाहरी लोग ( पुराने छात्र विधायिका के सदस्य , गैर विश्वविद्यालयी विशेषज्ञ , छात्रों के अभिभावक आदि) राजनैतिक रूप से संतुलित वातावरण बनाने में पहल करे , समीक्षक स्कालरशिप ठुकरा दें , शिक्षक मीडिया को दिये गये अपने बयानों का स्तर ऊँचा करे और परिसर में की जा रही परिचर्चाओं के क्षेत्र को विकसित किया जाये।