विश्व में कौन सा धर्म विचारधारागत और जननांकिकीय दृष्टि से तेजी से विस्तार कर रहा है ईसाइयत या इस्लाम है। निश्चय ही सबका एक ही उत्तर होगा इस्लाम। एक ओर जहाँ अमेरिकी ईसाई अपने धर्म के नरम संस्करण का पालन कर रहे हैं तो वहीं मुसलमान इस्लाम के अतिवादी स्वरूप की व्याख्या कर रहे हैं। यूरोप जहाँ अब तक का सबसे निम्नतम जनसंख्या दर का सामना कर रहा है तो वहीं मुस्लिम देश अब तक का सबसे अधिक।
परन्तु फिलिप जेनकिन्स ने हाल में अटलांटिक मन्थली में आग्रह किया है कि इस्लाम गलत उत्तर है। उन्होंने दिखाया है कि ईसाई धर्म हाल में मौलिक पुनर्विचार और इसके प्रति लगाव रखने वालों की दृष्टि से तेजी से बढ़ रहा है। वह इसका मामला अच्छे ढंग से रखते हैं कि अगली शताब्दी में इसका उग्रवाद सर्वाधिक प्रभावित करने वाला है।
पेन्सिलवेनिया में इतिहास और धर्म विषय के प्रोफेसर फिलिप निश्चित कारणों से मानते हैं कि आज के समाचार पत्र ऐसी सामग्रियों से भरे पड़े हैं कि पुनरूत्थान के साथ या कुछ समय क्रोधित इस्लाम का प्रभाव बढ़ रहा है। परन्तु अपनी विभिन्नता, प्रमुखता, विश्व में अपनी पहुँच, विश्व में तेजी से बढ़ते समाज के साथ सम्बन्ध, अपनी गुरूत्व केन्द्र में बदलाव, स्थान स्थान पर इसके मूल्यों और चलन में बदलाव के चलते यह ईसाइयत है जो 21वीं शताब्दी में गहरा प्रभाव छोड़ने वाली है।
जेनकिन्स जिसे ईसाई क्रान्ति की संज्ञा देते हैं वह कम ही उल्लेखनीय है क्योंकि ईसाई दो बिलकुल अलग-अलग क्षेत्रों उत्तर ( यूरोप, उत्तरी अमेरिका, आस्ट्रेलिया) तथा दक्षिण ( दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, एशिया) में हैं तथा उत्तर में रहने वाले हम लोग दक्षिण में होने वाली गतिविधियों से कम ही परिचित हैं। सौभाग्य से जेनकिन्स इस विषय में हमारा मार्गदर्शन करने के लिये हैं।
विश्वास – दक्षिण में उत्तर में परम्परागत ईसाई सिद्धान्तों और चलन के उदारवादी हो जाने की अपेक्षा ठीक विपरीत स्थिति है। दक्षिण में प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन अधिकतर धर्मान्तरण समर्थक या पेन्टाकोस्टल है जबकि रोमन कैथोलिकवाद पूरी तरह शास्त्रीय है।
उत्तर की दृष्टि में दक्षिण का धर्मशास्त्र और नैतिक शिक्षा या तो पारम्परिक है या फिर प्रतिक्रियावादी है। उनके पुजारी के अधिकार, आध्यात्मिक करिश्मा, शैतानी शक्तियों के सम्बन्ध में उनकी धारणा और आरम्भिक ईसाइयत की प्रतिकृति के प्रति उनके लक्ष्य के लिये क्या। जैसा कि दक्षिण के ईसाई न्यूटेस्टामेन्ट को बड़ी गम्भीरता से लेते हैं और पढ़ते हैं और उत्तर के उदारवादी ईसाइयों से निरन्तर तनाव बढ़ रहा है।
जनांकिकी- “ईसाई उदारवादी पश्चिम में तेजी से घटती जनसंख्या और शेष में परम्परावाद में बढ़त का सामना कर रहे हैं। पिछली आधी शताब्दी में ईसाइयत का नाजुक केन्द्र अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया की ओर स्थानान्तरित हो गया है। अब यह सन्तुलन दुबारा नहीं लौटने वाला है।”
नाइजीरिया में किसी भी देश से अधिक ऐंग्लिकन हैं और युगाण्डा इससे अधिक दूर नहीं है। फिलीपीन्स में प्रति वर्ष जितना बपतिस्मा होता है वह फ्रांस, स्पेन, इटली और पौलैण्ड को मिलाकर भी अधिक है। 2025 तक ऐसी सम्भावना है कि सभी ईसाइयों और कैथोलिक का तीन चौथाई दक्षिण में निवास करेगा। बहुत से दक्षिणी ईसाई उत्तर के ईसाइयो का स्थान ले रहे हैं। आज लन्दन में चर्च जाने वाले आधे लोग अश्वेत हैं। वर्तमान रूझान के अनुसार 2050 तक विश्व के पाँच ईसाइयों में केवल एक गैर लैटिन श्वेत होगा।
निश्चय ही दक्षिण और उत्तर के मध्य विभाजन पूर्ण नहीं हुआ है ( एक तथ्य जिसे जेनकिन्स ने शायद ही छुआ है) उदाहरण के लिये अमेरिका में ऐसे ईसाई बड़ी मात्रा में हैं जो अश्वेत तरीके के हैं। उससे प्रतीत होता है कि रूझान स्पष्ट है-
यद्यपि विश्व में गरीब लोगों के मध्य इस्लाम एक मुख्य धर्म के रूप में उभर रहा है परन्तु ईसाइयत भी उनमें प्रवेश कर रहा है।
ईसाइयत अब मुख्य रूप से उत्तरी अमेरिका और यूरोपीय धर्म नहीं रह गया है।
उत्तरी ईसाइयों में प्रयोग और गिरावट उस मात्रा से कम है जैसी यह दिखती है।
दक्षिण में ईसाइयत साम्राज्य पुन: उभरेगा जहाँ राजनीतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत पहचान प्राथमिक रूप से धार्मिक वफादारी से तय होती है।
उत्तर और दक्षिण के मध्य एक विभाजन अवश्यंभावी है जो ईसाई चर्च में उसी प्रकार विभाजन का मार्ग प्रशस्त करेगा जैसा कि शताब्दियों पहले कैथोलिक चर्च और प्रोटेस्टेन्ट में हुआ था।
ईसाइयत और इस्लाम टकराव के मार्ग पर हैं जो धर्मान्तरण और प्रभाव के लिये प्रतिस्पर्धा में हैं। कुछ देश तो जिहाद और क्रूसेड के टकराव से नष्ट ही हो जायेंगे।
ईसाइयत के भविष्य पर नजर रखने के लिये अपनी दृष्टि दक्षिण के उन आस्थावादियों पर रखिये जो उत्तर के उदारवादी रूख को अस्वीकार करते हैं और जिनका धर्म पर प्रभाव बढ़ रहा है।