एक ऐसा भाव है कि मुसलमान गैर आनुपातिक दृष्टि से तानाशाहों, उत्पीडकों, गैर निर्वाचित राष्ट्रपतियों, राजाओं, अमीरों और अनेक प्रकार के ताकतवर लोगों के शासन से शासित होते हैं और यह सत्य भी है। मिडिल ईस्ट क्वार्टर्ली में स्वार्थमोर कालेज के फ्रेड्रिक एल प्रायोर ने अत्यंत सावधानीपूर्ण विश्लेषण में निष्कर्ष निकाला है कि, “ सभी परंतु सबसे गरीब देशों में इस्लाम अत्यंत कम राजनीतिक अधिकारों से जुडा है”
यह तथ्य कि मुस्लिम बहुल देश कम लोकतांत्रिक हैं इस निष्कर्ष पर पहुँचने को प्रेरित करता है कि इस्लाम धर्म और उसके सामान्य तत्व अपने आप में लोकतंत्र से असंगत हैं। मैं इस निष्कर्ष से असहमत हूँ। आज मुस्लिम समस्या इस्लाम के अंतर्निहित स्वभाव को प्रकट करने के स्थान पर ऐतिहासिक परिस्थितियों को प्रतिबिम्बित करती है। अन्य की भाँति इसमें भी लोकतांत्रिक दिशा के विकास की सम्भावनायें हैं।
यह विकास किसी भी धर्म के लिये सरल नहीं होता। ईसाई मामले में भी कैथोलिक चर्च की राजनीतिक भूमिका को सीमित करने की लडाई पीडादायक ढंग से काफी लम्बी चली। यदि यह संक्रमण 1324 में पाडुआ के मार्सीग्लिओ द्वारा प्रकाशित Defensor Pacis से आरम्भ हुआ तो चर्च द्वारा इसे पूरी तरह से लोकतंत्र के साथ मिलाने में छः शताब्दी लग गई । तो फिर इस्लाम का संक्रमण क्योंकर आसान और सहज होगा।
इस्लाम को लोकतांत्रिक मार्ग के अनुकूल बनाने के लिये इसकी व्याख्या में जबर्दस्त परिवर्तन करने होंगे। उदाहरण के लिये इस्लाम का अलोकतांत्रिक कानून जिसे शरियत कहते हैं वह समस्या के मूल में है। एक सहस्राब्दी पहले विकसित हुआ यह अधिनायकवादी शासकों और समर्पित प्रजा की कल्पना करता है, लोकप्रिय सम्प्रभुता के ऊपर ईश्वर की इच्छा रखता है और इस्लाम की सीमाओं को विस्तृत करने हेतु हिंसक जिहाद को प्रेरित करता है। इससे भी आगे यह अलोकतांत्रिक ढंग से गैर मुसलमानों के ऊपर मुसलमानों को, महिला के ऊपर पुरुष को और गुलामों के ऊपर स्वतंत्र व्यक्ति को विशेषाधिकार प्रदान करता है।
मुसलमानों को एक क्रियात्मक लोकतंत्र के निर्माण के लिये प्राथमिक तौर पर उन्हें शरियत के सार्वजनिक पक्ष को अस्वीकार करना होगा। अतातुर्क ने तुर्की में आगे बढकर ऐसा किया परंतु अन्य लोगों ने इस सम्बन्ध में ढीला ढाला रवैया ही अपनाया। सूडान के एक विचारक महमूद मुहम्मद तहा ने कुरान की पुनर्व्याख्या कर सार्वजनिक इस्लामी कानून को वापस कर दिया।
अतातुर्क के प्रयास और तहा के विचारों में अंतर्निहित है कि इस्लाम भी सदा सर्वदा विकासमान धर्म है और इसे अपरिवर्तनशील समझना भारी भूल होगी। या फिर कैरो विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर हसन हनाफी के रूपक के अनुसार “ कुरान एक ऐसा सुपर बाजार है जहाँ से कोई जो चाहे ले सकता है और जो चाहे छोड सकता है”।
इस्लाम की समस्या यह कम है कि वह आधुनिकता विरोधी है इसकी अधिक समस्या यह है कि यहाँ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ नहीं हुई है। मुसलमान अपने धर्म को आधुनिक बना सकते हैं परंतु उसके लिये कुछ प्रमुख परिवर्तन करने होंगे- मुस्लिम शासन की स्थापना के लिये जिहाद छेड्ने का सिद्धांत त्यागना होगा, गैर मुसलमानों के लिये द्वितीय श्रेणी की नागरिकता और ईशनिन्दा या धर्मद्रोह के लिये मृत्युदण्ड भी त्यागना होगा। व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात करें, नागरिक अधिकार, राजनीतिक भागीदारी, लोकप्रिय सम्प्रभुता, विधि के समक्ष समानता और प्रतिनिधित्वकारी चुनाव।
यद्यपि इन परिवर्तनों के समक्ष दो बाधायें खडी हैं। विशेष रूप से मध्य पूर्व में जनजातीय जुडाव एक प्रमुख मह्त्व बना हुआ है। जैसा कि फिलिप कार्ल साल्जमन ने अपनी हाल की पुस्तक Culture and conflict in the Middle East में व्याख्यायित किया है कि यह सम्बन्ध जनजातीय स्वायत्तता और उत्पीडक केन्द्रीयता की जटिल पद्धति को उत्पन्न करता है जो संविधानवाद के विकास, विधि के शासन, लैंगिक समानता और लोकतांत्रिक राज्य के लिये आवश्यक शर्तों में बाधा उत्पन्न करता है। जब तक परिवार पर आधारित यह अराजक व्यवस्था मध्य पूर्व से चली नहीं जाती तब तक यहाँ लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता।
वैश्विक आधार पर शक्तिशाली और प्रेरक इस्लामवादी आन्दोलन लोकतंत्र को बाधित करता है। यह सुधार और आधुनिकता के विपरीत है और शरियत के प्रति इसकी पूरी समग्रता के साथ आग्रह रखता है। ओसामा बिन लादेन जैसा एक जिहादवादी अपने उद्देश्य के सम्बन्ध में अधिक मुखर होकर कहता है बनिस्बत एक स्थापित राजनेता जैसे तुर्की के प्रधानमंत्री रेसेप तईप एरडोगन के परंतु दोनों वृहत्तर रूप से यदि अधिनायकवादी नहीं तो लोकतंत्र विरोधी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं।
इस्लामवादी दो प्रकार से लोकतंत्र के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं। पहला वे इसे गैर इस्लामिक घोषित करते हैं। मुस्लिम ब्रदरहुड के संस्थापक हसन अल बना ने लोकतंत्र को इस्लामी मूल्यों के साथ एक विश्वासघात की संज्ञा दी। ब्रदरहुड के विचारक सैयद कुत्ब ने लोकप्रिय सम्प्रभुता को अस्वीकार किया और ऐसा ही पकिस्तान के जमात-ए-इस्लामी राजनीतिक दल के संस्थापक अबू अल अला अल मौदुदी ने किया। अल जजीरा टेलीविजन चैनल के इमाम युसुफ अल करदावी ने तर्क दिया कि चुनाव धर्मविरोधी हैं।
इस अवमानना के उपरांत भी इस्लामवादी सत्ता प्राप्ति के लिये चुनाव का उपयोग करने के लिये उत्सुक हैं और स्वयं को सक्रिय रूप से मत प्राप्त करने वाला सिद्ध किया है यहाँ तक कि एक आतंकवादी संगठन हमास ने एक चुनाव में विजय प्राप्त की है। यह रिकार्ड इस्लामवादियों को लोकतांत्रिक नहीं बनाता परंतु उनके रणनीतिक लचीलेपन और सत्ता प्राप्ति के उनके संकल्प का संकेत देता है। जैसा कि एरडोगन ने व्याख्यायित किया है, “ लोकतंत्र एक सड्क की कार की भाँति है जब आपका गंतब्य आये तो आप उतर जाईए” । कठिन परिश्रम एक दिन इस्लाम को लोकतांत्रिक बना सकता है। वैसे इस दौरान इस्लामवाद विश्व की सबसे बडी लोकतंत्र विरोधी शक्ति है।