यह लोकतंत्रों को क्या है कि वे नाजुक क्षणों में सोचने लगते हैं या स्वयं को इस भ्रम में रखते हैं कि वे अपने अधिनायकवादी शत्रुओं को अच्छे बनकर रोक ले जायेंगे?
1930 में ब्रिटिश और फ्रेंच नेतृत्व को लगा कि वे तुष्टीकरण के सहारे एडोल्फ हिटलर के चेकोस्लोवाकिया को अपने में मिलाने के निर्णय को स्वीकार कर जर्मनी के तानाशाह की आक्रामकता को संतुष्ट कर ले जायेंगे।
1970 के दशक में अमेरिका के तीन राष्ट्रपतियों ने सोचा कि लिओनिड ब्रेझनेव को खुश करने से अमेरिका सोवियत संघ के मध्य शांति स्थापित करने में सफलता प्राप्त हो सकेगी।
1990 में इजरायल के चार प्रधानमंत्री यासर अराफात के साथ शांति प्रयासों में लिप्त हुए जिसमें उन्हें इस आशा के साथ पुरस्कृत किया गया कि फिलीस्तीनी इसके बाद इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार कर लेंगे।
इन सभी कूटनीतिक प्रयासों से लोकतांत्रिक राज्यों के हित प्रभावित हुए। 1930 के तुष्टीकरण ने जर्मन मांगों को उद्दीप्त किया, तनाव में वृद्धि की और कुछ मात्रा में द्वितीय विश्व युद्ध का कारण बना। 1970 में खुश करने के प्रयासों से सोवियत सैन्य शक्ति निर्मित हुई और क्रेमलिन का दुस्साहस सामने आया जिसका परिणाम अफगानिस्तान पर आक्रमण के रूप में सामने आया। 1990 की शांति प्रक्रिया से फिलीस्तीनियों को लगा कि इजरायल कमजोर है और इससे आत्मघाती बम का दौर चल निकला जिससे दो वर्षों तक हिंसा होती रही।
परंतु इस विनाशकारी रिकार्ड की उपेक्षा करते हुए एक और लोकतांत्रिक राज्य ( अमेरिका समर्थित दक्षिण कोरिया) एक और अधिनायकवादी शत्रु ( कम्युनिस्ट उत्तरी कोरिया) के प्रति अच्छे व्यवहार से परिणाम की अपेक्षा कर रहा है।
सद्दाम हुसैन के इराक के अपवाद को छोड्कर पृथ्वी का कोई भी शासन अपने लोगों के उत्पीडन और पडोसियों से आक्रामकता में उत्तर कोरिया का मुकाबला नहीं कर सकता। उत्तर का अपनी सैन्य शक्ति निर्मित करने की प्रबल आकांक्षा का अर्थ है कि ( एक अमेरिकी जनरल के शब्दों में) यह “ बडा, बेहतर, निकट और खतरनाक” हो रहा है।
दशकों से दक्षिण कोरिया में सार्वजनिक जीवन का केन्द्रीय तत्व उत्तर से खतरा रहा है और कैसे इससे निपटा जाये, इसके लिये तैयारी की जाये, इससे सतर्क रहा जाये और इसे परास्त किया जाये।
उसी समय शक्ति संतुलन धीरे-धीरे दक्षिण के पक्ष में घूम गया है। जहाँ एक ओर उत्तर की अर्थ व्यवस्था विनाशक से विनाशकारी हो गयी है वहीं दक्षिण औद्योगिक और सम्पन्न हो गया है। जहाँ उत्तर का नेतृत्व अराजक हुआ है वहीं दक्षिण धीरे धीरे लोकतांत्रिक और उत्तरदायित्वपूर्ण हो गया है।
इससे दक्षिण में एक प्रकार का आत्मविश्वास उत्पन्न हुआ है और दिसम्बर 1997 में हुए चुनाव में एक पूर्व विद्रोही किम डे जंग दक्षिण के आठवें राष्ट्रपति बने। उन्होंने उत्तर के साथ तनाव कम करने के लिये और उसके साथ राजनीतिक, व्यापारिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक सम्बन्ध बढाने के लिये “ सूर्योदय नीति” स्थापित की। उन्होंने उत्तर को अपना सहयोगी घोषित किया और आशवासन दिया कि अब आगे कोई युद्ध नहीं होगा।
“सूर्योदय नीति” ने बाहरी विश्व को मूर्छित कर दिया और वास्तव में तो किम को 2000 में शांति के उनके प्रयासों को स्वीकृति देते हुए नोबेल शांति पुरस्कार मिला। इसने दक्षिण कोरिया के दृष्टिकोण को भी काफी प्रभावित किया। लोगों के विचारों को लेकर किये गये एक शोध के अनुसार उत्तर के प्रति विश्वास और आशा का भाव व्याप्त हुआ है और साथ ही उत्तर से रक्षा के लिये तैनात अमेरिका की 37,000 सेना के प्रति दुर्भाव भी बढा है।
यही वह स्थान है जहाँ एबर्सदात सही ही कह्ते हैं कि दक्षिण कोरिया की नीति एक ऐसे स्थान पर आ गयी है जहाँ वह न केवल दक्षिण कोरिया के अमेरिका के साथ सैन्य गठबन्धन को क्षति पहुँचायेगी वरन इस प्रायद्वीप में अमेरिका के प्रभाव को भी कम करेगी” । यदि ऐसा होता है तो पूर्वी एशिया की स्थिरता और आर्थिक विकास को भी दीर्घगामी स्तर पर क्षति होगी।
दक्षिण कोरिया की यह शुभेच्छु सोच संक्षेप में कहें तो न केवल इसके कल्याण के लिये सम्भावित खतरा है वरन इस पूरे क्षेत्र के लिये।
इससे हम फिर इस प्रश्न पर आते हैं कि आखिर क्यों लोकतांत्रिक देश प्रायः इस सोच के भँवर में फँस जाते हैं कि वे अपने शत्रु को मुस्कान या उदारता से काबू में कर लेंगे। इसके प्रमुख कारण ये लगते हैं-
बुराई का पूर्वानुमान करने की अक्षमता- सफल राज्यों के नागरिक अपनी छवि को दूसरों में देखते हैं और कल्पना करते हैं कि दूसरा पक्ष उनसे अधिक भिन्न नहीं होगा।
थकान- बिना किसी अंत के सदैव सतर्क रहने के मुकाबले ही शुभेच्छु विचार उत्पन्न होता है।
स्वयं को अपराधी बना लेना- शत्रु के शाश्वत शत्रुवत व्यवहार के लिये स्वयं को दोष देना।
यह जानते हुए कि तुष्टीकरण के पिछ्ले मामले किस दिशा में गये हैं हम दक्षिण कोरिया को उसी गलत मार्ग पर जाते हुए देखकर केवल आशंका से काँप सकते हैं।