इस महीने डेनमार्क की पुलिस ने कर्ट वेस्टरगार्ड नामक उस कार्टूनिस्ट की हत्या से सम्बन्धित आतंकवादी षडयंत्र को निष्फल कर दिया जिसने मोहम्मद के सबसे कठोर चित्र बनाये थे और उसके बाद ही अनेक देशों के समाचारपत्रों को प्रेरणा मिली और कार्टूनिस्ट के प्रति एकजुटता दिखाते हुए उन्होंने इस कार्टून को पुनः प्रकाशित किया और साथ ही इस्लामवादियों को संकेत दिया कि उनकी धमकी और हिंसा काम करने वाली नहीं है।
यह घटना मोहम्मद के सम्बन्ध में पश्चिम की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने में इस्लामवादियों की मिश्रित सफलता की ओर संकेत करती है जरा सलमान रशदी की सेटेनिक वर्सेज या ड्यूच ओपेरा की निर्मिति मोज़ार्ट के इडोमेनो के बारे में सोचिये। यदि हिंसा का खतरा कुछ अवसरों पर काम करता है तो कुछ अवसरों पर वह भडकाता है, क्रोध दिलाता है और प्रतिरोध के लिये प्रेरित करता है। विनम्र रूप से अपनी शिकायत करने से कहीं अधिक सफलता प्राप्त की जा सकती है। इसे और व्याख्यायित करने के लिये 1955 और 1997 की तिथियों के दो समानांतर प्रसंग लिये जा सकते हैं जिसमें अमेरिका के न्यायालय कक्ष से मोहम्मद की प्रतिमाओं को हटाने के अभियान चलाये गये।
1997 में काउंसिल आन अमेरिकन इस्लामिक रिलेशंस ने माँग की कि अमेरिका में वाशिंगटन डी सी स्थित सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य कक्ष में पैगम्बर मोहम्मद की प्रतिमा को नष्ट कर दिया जाये और इसके पीछे उनका तर्क यह था कि इस्लाम में पैगम्बर की प्रतिमा को वर्जित किया गया है। सात फुट ऊँची यह प्रतिमा एडोल्फ वीनमैन ने बनाई थी जिसमें पैगम्बर को 18 ऐतिहासिक कानून प्रदाताओं के साथ स्थान दिया गया था। प्रतिमा में उनके बायें हाथ में कुरान की प्रति थी ( जो कि इस्लाम के अनुसार गलत है) और दाहिने हाथ में तलवार थी।
सर्वोच्च न्यायाधीश विलियम रेनक्विस्ट ने हालाँकि सीएआईआर की याचिका इस आधार पर निरस्त कर दी कि उस प्रतिमा के पीछे प्रमुख उद्देश्य मोहम्मद को कानून के इतिहास में एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में मान्यता देना था इसके पीछे कहीं भी मूर्ति पूजा का उद्देश्य नहीं था। रेंक्विस्ट ने केवल यह मांग मानी कि न्यायालय के साहित्य में इस बात का उल्लेख किया जाये कि यह प्रतिमा मुस्लिम भावनाओं को आहत करती है। उनके निर्णय से भारत में दंगे हुए और अनेक लोग घायल हुए।
इसके विपरीत इससे पहले 1955 में अमेरिका के एक और न्यायालय परिसर में मोहम्मद की एक प्रतिमा पर रोक लगवाने से सम्बन्धित प्रयास सफल रहा था। यह न्यूयार्क शहर स्थित अपील न्यायालय का परिसर था जो कि न्यूयार्क राज्य सर्वोच्च न्यायालय का प्रथम विभाग था। 1902 में निर्मित इस न्यायालय की छत के पास चार्ल्स अल्बर्ट लोपेज़ ने आठ फुट ऊँची मोहम्मद की एक प्रतिमा दस ऐतिहासिक कानून प्रदाताओं में से एक के रूप में निर्मित की थी। इस प्रतिमा में भी मोहम्मद को बायें हाथ में कुरान और दाहिने हाथ में तलवार धारण किये हुए प्रदर्शित किया गया था।
यद्यपि ये प्रतिमायें सडक से ही दिखाई देती थीं परंतु इमारत की छत से उनकी पहचान निर्धारित कर पाना काफी कठिन था। केवल फरवरी 1953 में इस प्रतिमा सहित पूरी इमारत के पुनर्निर्माण के बाद ही सामान्य लोगों को इसका पता चल पाया। मिस्र, इण्डोनेशिया और पाकिस्तान के अमेरिका स्थित राजदूतों ने अमेरिका के राज्य विभाग से अनुरोध किया कि वह अपने प्रभाव का प्रयोग कर मोहम्मद की प्रतिमा के नवीनीकरण के स्थान पर उसे वहाँ से हटा ही दे।
राज्य विभाग ने दो कर्मचारियों को न्यूयार्क शहर के लोक कार्य आयुक्त फ्रेड्रिक एच. जुर्मूहलेन के पास भेजा कि राजदूतों की बात पर गौर किया जाये। न्यायालय के प्रधान लिपिक जार्ज टी कैम्बेल ने लिखा है, ‘ उस समय मोहम्मद के मानने वालों के काफी मात्रा में पत्र मिले और सभी ने कहा कि इस प्रतिमा से छुटकारा पा लेना चाहिये ’। सभी सात अपील न्यायाधीशों ने जुर्मुहलेन को अनुशंसा की कि प्रतिमा को गिरा दिया जाना चाहिये।
यहाँ तक कि टाइम पत्रिका नें भी कहा कि, “ इस बात की सम्भावना न के बराबर थी कि न्यूयार्क के लोग इस प्रतिमा की पूजा करते’’ परंतु राजदूतों ने अपना ही रास्ता लिया। जुर्मुहलेन ने इस प्रतिमा को न्यूजर्सी, न्यूयार्क के एक स्टोरहाउस में रखा दिया। जुर्मुहलेन ने रास्ता निकाला तो जैसा कि टाइम्स ने 1955 ने इस प्रतिमा के बारे में बताया कि यह प्रतिमा अनेक महीनों तक स्टोर में पडी रही। इसकी वर्तमान स्थिति के बारे में कुछ भी पता नहीं है।
न्यायालय की इमारत की छत के खाली स्थान को भरने के लिये जुर्मुहलेन को शेष नौ प्रतिमाओं को फिर से निर्धारित करना पडा ताकि खाली स्थान को भरा जा सके। इस क्रम में जरथुस्त्र को मोहम्मद के स्थान पर लगाया गया। आधी शताब्दी के उपरांत भी न्यायालय परिसर में मामला अटका हुआ है।
1955 का यह मामला अनेक बिन्दुओं की ओर ध्यान दिलाता है। पहला, मुसलमानों का पश्चिम पर इस बात के लिये दबाव डालने की प्रवृत्ति कि वे इस्लामी चलन के अनुकूल चलें वर्तमान इस्लामवादी युग से पहले की है। दूसरा, यहाँ तक कि मामूली संख्या में भी मुसलमानों के रहते ऐसे दबाव सफल होते हैं। अंत में1955 और 1997 की समानांतर घटनाओं से अर्थ निकलता है कि पहली बार राजदूतों द्वारा विनम्र अनुरोध करना जिसके समर्थन में कठोर मांग, गुस्साई भीड, अपेक्षाकृत कम आतंकवादी षडयंत्र थे वह कहीं अधिक प्रभावी मार्ग था।
यह निष्कर्ष मेरी इस सामान्य धारणा को पुष्ट करता है और साथ ही Islamist Watch प्रकल्प की सार्थकता को भी प्रमाणित करता है कि इस्लामवादी व्यवस्था में रहते हुए धीरे-धीरे काम करके उससे अधिक सफलता प्राप्त कर रहे हैं जो वे शत्रुता या जंगली तरीके से प्राप्त कर सकते हैं। अंततः नरम इस्लामवाद हिंसक इस्लामवाद के समानांतर ही महान खतरा उत्पन्न करता है।