इस्लाम के लिये की जाने वाली आतंकवादी प्रताडना से पीडित होने वाले लोग सायरन के बजने, स्निपर्स के स्थान लेने और सडकों पर नरसंहार के साथ भय, यातना, डरावनी अनुभूति और ह्त्या को अनुभव करते हैं। यही कुछ हाल में बम्बई के साथ हुआ (जिसे अब मुम्बई कहते हैं) जहाँ 195 के आसपास लोग मारे गये और 300 लोग घायल हुए। परंतु इस्लामवादी आतंकवाद के वास्तविक लक्ष्य विश्व का अनुभव पूरी तरह भावनाशून्य हो चुका है और इसके प्रति क्षमाभाव रखने वाले और इसे न्यायसंगत ठहराने वाले सन्न हैं और कुछ भी बोल नहीं पा रहे हैं।
यदि आतंकवाद सबसे क्रूर और अमानवीय युद्ध नीति है जो कि जानबूझकर पीडा पहुँचाने के लिये सामने आता है तो इस्लामवादी आतंकवाद अत्यन्त कुशलता के साथ तैयार किया गया राजनीतिक नाटक बन चुका है। कलाकार अपनी भूमिका पूर्ण करते हैं, फिर चल देते हैं और शीघ्र ही मंच से बिदा होते ही उन्हें भुला दिया जाता है।
निश्चित रूप से 11 सितम्बर 2001 के बाद पश्चिम के विरुद्ध सबसे अधिक प्रकाशित इस्लामवादी आतंकवाद बाली में आस्ट्रेलियावासियों के प्रति, मैड्रिड में स्पेनवासियो के प्रति, बेसलान में रूसियों के प्रति और लन्दन में ब्रिटिश के प्रति रहा जिसमें द्विआयामी परिपाटी का उद्भव हुआ- मुस्लिम प्रसन्नता और पश्चिमी नकार। ठीक वही दुखद घटना फिर घटित हुई केवल नाम परिवर्तित हो गये।
मुस्लिम प्रसन्नता- मुम्बई आक्रमण ने कुछ स्तरों पर निन्दा, आधिकारिक दुख और अनौपचारिक रूप से उत्साह को प्रेरित किया। जैसा कि इजरायल इंटेलिजेंस हेरिटेज एण्ड कोमेमोरेशन सेंटर ने पाया कि ईरान और सीरिया की सरकारों ने इस घटना का उपयोग , “ संयुक्त राज्य अमेरिका, इजरायल और इजरायलवादी आन्दोलन को निशाना बनाने में किया और यह प्रदर्शित किया कि यही लोग भारत में और सामान्य तौर पर विश्व में आतंकवाद के लिये उत्तरदायी हैं”। अल जजीरा की वेबसाइट ऐसी टिप्पणियों से भरी पडी थी, “ मुसलमानों के लिये अल्लाह की शानदार विजय, जिहाद की शानदार विजय” “ मुम्बई में यहूदी केन्द्र में यहूदी रबाई और उसकी पत्नी की मृत्यु ह्रदय को सुख देने वाला समाचार है”
इस प्रकार की सर्वोच्चता और संकीर्णता की भावना किसी भी प्रकार से आश्चर्यजनक नहीं है जबकि इस बात के अभिलेखित साक्ष्य हैं कि विश्व भर में मुसलमानों के मध्य आतंकवाद स्वीकार्य है। उदाहरण के लिये पिउ रिसर्च सेंटर फार द पीपुल एंड द प्रेस ने 2006 बसंत में लोगों के व्यवहार के सन्दर्भ में एक सर्वेक्षण किया था कि मुसलमान और पश्चिमी एक दूसरे को किस प्रकार देखते हैं। इस सर्वेक्षण में विश्व के दस मुस्लिम जनसंख्या वाले क्षेत्रों के एक हजार लोगों में ऐसे मुसलमानों का अनुपात अधिक था जो कुछ अवसरों पर आत्मघाती बम विस्फोट को न्यायसंगत ठहराते हैं। जर्मनी में 13 प्रतिशत, पाकिस्तान में 22 प्रतिशत, तुर्की में 26 प्रतिशत और नाइजीरया में 69 प्रतिशत।
एक चौंकाने वाली संख्या का प्रतिशत ऐसे लोगों का था जो कुछ मात्रा में ओसामा बिन लादेन में विश्वास व्यक्त कर रहे थे। तुर्की में 8 प्रतिशत, मिस्र में 68 प्रतिशत, पाकिस्तान में 48 प्रतिशत और नाइजीरिया में 72 प्रतिशत। पिउ सर्वेक्षण के निष्कर्ष में 2006 में मैने कहा था कि, “ यह संख्या सिद्ध करती है कि मुसलमानों के मध्य आतंकवाद की जडें काफी गहरी हैं और यह आने वाले वर्षों में भी खतरे के रूप में विद्यमान रहेगा” निश्चय ही निष्कर्ष है नहीं?
पश्चिमी नकार- नहीं- इस तथ्य को पश्चिमी राजनीतिक, पत्रकारीय और अकादमिक लोग नजरअन्दाज कर रहे हैं कि आतंकवादी मछलियाँ निकट के मुस्लिम समुद्रों में मेजबान बन कर तैर रही हैं। इसे राजनीतिक रूप से सही होना कहें, बहुलतावादी संस्कृति कहें या स्वयं की अवहेलना कहें जो भी नाम इसे दिया जाये इस मानसिकता से भ्रम और संकल्पशक्ति का अभाव झलकता है।
आतंकवाद को नाम देने से बचने की भावना इस नकार का कारण है। जब एक अकेला जिहादी आक्रमण करता है तो राजनेता, कानून प्रवर्तन संस्थायें और मीडिया उन शक्तियों के साथ खडी होती हैं जो आतंकवाद के तथ्यों को भी नकार देती हैं और जब सभी इस आक्रमण के आतंकी स्वरूप को स्वीकार भी कर लेते हैं तो तकनीकी आधार पर इसके लिये आतंकवादियों को दोषी ठहराने से बचा जाता है।
इस प्रकार अप्रत्यक्ष ढंग से इस्लामवादियों को पुकारने के विषय को मैने 2004 में बेसलान में इस्लामवादियों द्वारा एक विद्यालय पर आक्रमण के मामले में अभिलेखित किया था और बीस ऐसे विशेषण बताये थे जो प्रयोग किये गये थे- कार्यकर्ता, हमलावर, आक्रमणकारी, बम विस्फोट करने वाले, बन्दी बनाने वाले, कमांडो, अपराधी, अतिवादी, लडाके, गुट, गुरिल्ला, बन्दूकधारी, अपहर्ता, उग्रवादी, अपहरण करने वाले, उग्रवादी, आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने वाले, क्रांतिकारी, विद्रोही और अलगाववादी और कुछ भी लेकिन आतंकवादी नहीं ।
और यदि आतंकवादी असभ्य हैं तो इस्लामवादी, इस्लामी और मुस्लिम का उल्लेख करने से परहेज किया जाता है। मेरे ब्लाग Not calling Islamism the Enemy में इस बात के उदाहरण दिये गये हैं कि इससे परहेज क्यों किया जाता है और इसका उद्देश्य क्या है? संक्षेप में जो लोग आतंक के विरुद्ध युद्ध को सुरक्षा और विकास के लिये वैश्विक संघर्ष के रूप में नया नाम देना चाहते हैं उन्हें कल्पना है कि इस प्रकार भाषा बदल कर वे मुस्लिम ह्रदय और मस्तिष्क को विजित कर सकेंगे।
मुम्बई की घटना के बाद विश्लेषकों जैसे स्टीवन एमर्सन, डोन फेडर, लेला गिल्बर्ट, कैरोलिन ग्लिक, टोम ग्रोस, विलियम क्रिस्टोल, डोरोठी राबिनोविज और मार्क स्टेन ने फिर से इस भाषाई व्यवहार के निरर्थक प्रयास के अनेक आयामों की चर्चा की है और एमर्सन ने काफी तल्ख लहजे में कहा है, “ 11 सितम्बर 2001 के सात वर्षों के उपरांत हम एक निर्णय दे सकते हैं कि इस्लामी आतंकवादियों ने हमारे ह्रदय और मस्तिष्क जीत लिये हैं”
आखिर कब पश्चिमी अपनी अज्ञानता से बाहर आयेंगे कि अपने शत्रु को नाम देंगे और इस युद्ध को विजय के लिये लडेंगे? एक ही चीज से यह सम्भव है कि बडे पैमाने पर लोग मरें या कहें कि एक जनसंहारक हथियारों के आक्रमण में 1 लाख लोग मारे जायें ऐसा लगता है कि इससे कम में पश्चिम अधिकाँश रूप से इन कार्यकर्ताओं( जिन्हें पश्चिम यही कहना पसन्द करते हैं) के आगे रक्षात्मक नीति अपना कर सोता ही रहेगा।