सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में जब ओटोमन साम्राज्य और सफाविद साम्राज्य मध्य पूर्व पर नियन्त्रण के लिये आपस में लड रहे थे तो इस्ताम्बुल के शासक सलीम ने फारसी में अति महत्वपूर्ण कवितायें लिख कर रचनात्मकता का परिचय दिया जो कि उस समय की मध्य पूर्व की उच्च सांस्कृतिक भाषा थी। इसके तत्काल बाद इसाफान के शासक इस्माइल प्रथम ने अपनी पूर्वजों की भाषा तुर्की में कविता लिखी।
यह तुलना मन में इसलिये आयी कि एक बार फिर तुर्की और ईरान की जनसंख्या एक और परस्पर आदान प्रदान में लग गयी हैं। एक ओर जहाँ अतातुर्क द्वारा स्थापित सेक्युलर तुर्की इस्लामवाद की आँधी में लुप्त होने की ओर अग्रसर है तो वहीं खोमैनी द्वारा स्थापित इस्लामवादी राज्य सेक्युलरिज्म की ओर रुख कर रहा है। तुर्क ईरानियों की भाँति जीवन जीना चाहते हैं तो वहीं विडम्बना है कि ईरानी लोग तुर्कों की भाँति जीवन जीना चाहते हैं।
तुर्की और ईरान दोनों ही बडे, प्रभावशाली और अपेक्षाकृत विकसित मुस्लिम बहुसंख्यक देश हैं जो कि ऐतिहासिक रूप से केंद्रीय भूमिका वाले , रणनीतिक रूप से स्थित और व्यापक रूप से देखे जाने वाले हैं जिनके बारे में 1994 में मैंने भविष्यवाणी की थी कि वे परस्पर विरोधी दिशा में चल रहे हैं लेकिन उनका भाग्य केवल मध्य पूर्व के भविष्य से ही नहीं जुडा है वरन समस्त मुस्लिम विश्व के भविष्य से भी।
यह अब घटित हो रहा है तो हम प्रत्येक देश के विकास की समीक्षा करें।
तुर्की: अतातुर्क ने 1923 से 1938 के मध्य सार्वजनिक जीवन से इस्लाम को पूरी तरह समाप्त कर दिया। हालाँकि दशकों तक में इस्लामवादियों ने अपनी वापसी की और 1970 के दशक में उन्होंने एक प्रकार का गठबन्धन बना लिया । 1996-97 में तो उन्होंने एक सरकार का नेतृत्व तक किया। इस्लामावादियों ने अजीब चुनाव में 2002 में सत्ता प्राप्त कर ली जब एक तिहाई मत प्राप्त करने से उन्हें संसद की दो तिहाई सीटें प्राप्त हो गयीं। अत्यंत सतर्कता और योग्यता से शासन करते हुए 2007 में उन्होंने आधा मत प्राप्त कर लिया इसके बाद उनका असकी एजेंडा सामने आने लगा और ताकत का प्रदर्शन आरम्भ हुआ जिसके अंतर्गत मीडिया में एक आलोचक पर काफी भारी जुर्माना लगाया गया और सैन्य बल के विरुद्ध षडयंत्रकारी सिद्धांत प्रचलन में लाये गये। सितम्बर में हुए जनमत में इस्लामवादियों को 58 प्रतिशत मत प्राप्त हुए जिससे स्पष्ट है कि जून 2011 के संसद चुनाव में उन्हें विजय मिलनी तय है।
यदि इस्लामवादी चुनावों में विजयी होते हैं तो वे सत्ता में लम्बे समय तक रहने के लिये मार्ग प्रशस्त करेंग़े और इस प्रक्रिया में देश को अपने अनुसार झुकाने का प्रयास करेंगे , इस्लामी कानून शरिया को स्थापित करना और खोमेनी के आदर्श की राजनीति के आधार पर इस्लामी व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास इस प्रक्रिया में शामिल रहेंगे।
ईरान - खोमेनी ने अतातुर्क से विपरीत कार्य किया उन्होंने अपने कार्यकाल 1979-89 में इस्लाम को राजनीतिक रूप से प्रमुख बनाया लेकिन इसके तत्काल बाद यह क्षीण होने लगा और गुटबाजी उभरने लगी , अर्थ व्यवस्था अस्फल होने लगी और आम जनता शासन के अतिवादी शासन से स्वयं को अलग थलग करने लगी। 1990 तक विदेशी पर्यवेक्षकों को लगने लगा कि यह शासन बहुत शीघ्र ही असफल हो जायेगा। आम जनता के मध्य तेजी से बढ्ती अलोकप्रियता के बाद भी इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड के प्रयासों के साथ ही ईरान इराक युद्ध के वरिष्ठ व्यक्ति महमूद अहमदीनेजाद के शासन में आ जाने से हवा बदल गयी।
इस्लामवादी लक्ष्यों के प्रति एक बार फिर जोर देने से शासन के प्रति लोग अलग थलग होते जा रहे हैं जिसमें कि इस्लाम के प्रति आस्था से सेक्युलरिज्म की ओर घुमाव मह्त्वपूर्ण है। देश में पैथोलोजी का बढना, नशीली दवाओं का बढना, अश्लीलता और पोर्नोग्राफी सहित वेश्यावृत्ति की वृद्धि ने इस समस्या को और बढा दिया है। जून 2009 के छलपूर्ण चुनाव के बाद शासन के विरुद्ध हुए प्रदर्शनों ने लोगों के अलग थलग होने के भाव को ही व्यक्त किया है। इस दौरान इस प्रदर्शनों को दबाने के लिये जो शक्ति प्रयोग हुआ उससे अधिकरियों के विरुद्ध और आक्रोश ही बढा।
एक दौड चल रही है सिवाय इसके कि कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है क्योंकि दोनों ही राजधानियों अंकारा और तेहरान में इस समय इस्लामवादियों का शासन है।
यदि आगे की ओर देखें तो ईरान मध्य पूर्व का सबसे बडा खतरा और इसकी सबसे बडी आशा भी है। परमाणु कार्यक्रम की ओर प्रगति , विचारधारागत आक्रामकता और " प्रतिरोध समूह" वास्तव में एक वैश्विक खतरा है जिसमें तेल और गैस की कीमतों को बढा देने के खतरे से लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका पर विद्युत चुम्बकीय हमले तक शामिल है। लेकिन यदि इन खतरों को टाला जा सके, नियन्त्रित किया जा सके और दबाया जा सके तो ईरान में इस बात की सम्भावना है कि वह मुसलमानों का नेतृत्व कर सके कि वह इन्हें इस्लामवाद के अंधेरे से आधुनिकता, नरमपंथ और इस्लाम के अच्छे पडोसी के स्वरूप की ओर ले जा सके। 1979 की भाँति यह उपलब्धि भी मुस्लिमों को दूर तक प्रभावित कर सके।
.इसके विपरीत तुर्की सरकार अभी तत्काल में कुछ ही खतरे उपस्थित कर रही है लेकिन चुपचाप इस्लामवाद के सिद्धांतों को अपनाने की इसकी प्रवृत्ति के चलते यह भविष्य के लिये खतरा उपस्थित करता है। लम्बे समय बाद जब खोमेनी और ओसामा बिन लादेन को लोग भुला देंगे तो मेरा दावा है कि लोग रिसेप तईप एरडोगन और उनके सहयोगियों को इस्लामवाद के अधिक टिकाऊ और गुप्त स्वरूप की खोज के लिये याद रखेंगे।
.हो सकता है कि आज मध्य पूर्व के लिये समस्या दिखने वाला देश कल रचनात्मकता और शालीनता का नेता बन जाये जबकि दूसरी ओर पिछले पाँच दशक से पश्चिम का मुस्लिम सहयोगी सबसे बडे शत्रु और प्रतिक्रियावादी के रूप में परिवर्तित हो जाये। भविष्य के लिये बात करना सरल नहीं है लेकिन समय का पहिया चलता रहता है और इतिहास में आश्चर्य होते रहते हैं।