विकीलीक्स के सभी रहस्योद्घाटनों में सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करने वाला उद्घाटन यह है कि किस प्रकार अनेक अरब नेताओं ने अमेरिका की सरकार से आग्रह किया कि वह ईरान के परमाणु ठिकानों पर आक्रमण करे। सबसे कुख्यात तो यह रहा कि सऊदी अरब के राजा अब्दुल्लाह ने वाशिंगटन से कहा कि, " साँप का सर कुचल दें"। समस्त विश्व में इस विषय को लेकर आम सहमति है कि ये बयान सऊदी अरब और अन्य राजनेताओं की असल नीतियों को अनावृत करते हैं।
लेकिन क्या ऐसा है? इस पर संदेह करने के दो कारण हैं।
पहला तो जैसा कि ली स्मिथ ने स्पष्ट रूप से कहा है कि शायद अरब अमेरिका के लोगों से वह कह रहे थे जो वे सुनना चाहते थे। " हमें पता है कि अरबवाले ईरान के सम्बन्ध में कूटनयिकों और पत्रकारों से क्या कहते हैं" वे आगे लिखते हैं " लेकिन हम यह नहीं जानते कि वे वास्तव में इस फारसी पडोसी के बारे में क्या सोचते हैं"। उनकी अपील कूटनीति का अंग हो सकती है, जिसमें कि एक सहयोगी के भय और अपेक्षा को अपने जैसा मानकर चला जाता है। इसी कारण जब सऊदी दावा करते हैं कि ईरानी उनके शत्रु हैं तो अमेरिकी इसे पारस्परिक रूप से हितों को देखते हुए स्वीकार कर लेते हैं, स्मिथ इससे आगे कहते हैं , यद्यपि " सऊदी अमेरिकी कूटनयिकों के समक्ष जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं उनका उद्देश्य राजपरिवार की सोच की पारदर्शी स्थिति के बारे में जानकारी देना नहीं है वरन यह तो सऊद परिवार के हितों का पालन करने के लिये प्रयोग करने के उद्देश्य से होता है। " हम यह कैसे जान पायेंगे कि वे जो कुछ वे कह रहे हैं वह सत्य है"
दूसरा हम अरब नेताओं द्वारा पश्चिमी मध्यस्थों के सामने कही जाने वाली बात और अपने लोगों के मध्य कही जाने वाली बातों के मध्य असंगतता का पता कैसे लगायेंगे? 1930 से ही चली आ रही परिपाटी की ओर यदि हम दृष्टिपात करें तो 1993 में एक सर्वेक्षण के द्वारा पता चला था कि कानाफूसी का तेज आवाज से कहीं कम मह्त्व है। . " सार्वजनिक रूप से कही गयी बातों का अधिक मह्त्व है न कि व्यक्तिगत रूप से किये गये वार्तालाप का। हालाँकि इससे राजनेताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से या व्यक्तिगत बातचीत में बोले गये झूठ का पता तो नहीं चलता लेकिन सार्वजनिक रूप से कही गयी बात से कार्रवाई के बारे में भविष्यवाणी अवश्य हो सकती है जैसा कि व्यक्तिगत बातचीत से नहीं हो सकती।
उदाहरण के लिये अरब इजरायल संघर्ष काफी पहले समाप्त हो गया होता यदि पश्चिम के लोगों को बताये गये कुछ गोपनीय बातों पर विश्वास किया जाये। 1952 से 1970 तक मिस्र के शक्तिशाली पुरुष और मध्य पूर्व की राजनीति में इजरायल को एक मह्त्वपूर्ण तत्व बनाने वाले गमाम अब्दुल नसीर का ही उदाहरण लें।
अब्दुल नसीर के साथ मेलजोल बनाने वाले सी आई ए सदस्य माइल्स कोपलैंड के अनुसार अब्दुल नसीर ने फिलीस्तीन मसले को मह्त्वहीन बताया था। हालाँकि सार्वजनिक रूप से अब्दुल नसीर ने यहूदी विरोधी एजेंडे को लगातार आगे किया और इसी एजेंडे के आधार पर वे अपने समय के सबसे शक्तिशाली अरब नेता बन गये। कोपलैंड के साथ उनकी गोपनीय बातचीत तो पूरी तरह विषय को दिग्र्भमित करने वाली है।
कुछ विशिष्ट मामलों में भी इस परिपाटी को देखा जा सकता है। वह व्यक्तिगत बातचीत में पश्चिमी कूटनयिकों से कहते थे कि वे इजरायल के साथ बातचीत को तैयार हैं लेकिन विश्व समुदाय को सम्बोधित करते हुए वे यहूदी राज्य के मूलभूत अस्तित्व को ही अस्वीकार करते थे और इसके साथ किसी प्रकार के समझौते को भी। उदाहरण के लिये 1967 के युद्ध के बाद अब्दुल नसीर ने गोपनीय रूप से अमेरिका को संकेत किया कि वह इजरायल के साथ अशत्रु समझौता करने को तैयार हैं और उसके परिणामों के लिये भी तैयार हैं, जबकि दूसरी ओर सार्वजनिक रूप से ऐसे समझौते से इंकार करते रहे और इस बात पर जोर देते रहे , " जिसे बल पूर्वक लिया गया है उसे उसी प्रकार फिर से प्राप्त किया जाये" उनके सार्वजनिक बयानों के द्वारा ही उनकी सही मायने में नीतियाँ बनती थी।
अब्दुल नसीर के शोर से नीतियों को समझा जा सकता है न कि काना फूसी से लेकिन उन्होंने इससे आगे चुपचाप इस बात को जान एफ केनेडी के साथ बातचीत में स्वीकार किया था, " कुछ अरब नेता फिलीस्तीन के मामले में सार्वजनिक रूप से कडे बयान दे रहे हैं और फिर अमेरिका सरकार से मिलकर उस कडेपन को कम करने के लिये कहते हैं कि यह बयान स्थानीय अरब लोगों के लिये था" इस प्रकार एक तरह से अब्दुल नसीर ने अपने व्यवहार की ही पुष्टि की थी।
इसके विपरीत जब अरब नेता पश्चिमी लोगों के विपरीत अपने लोगों से व्यक्तिगत रूप से बात करते हैं तो कभी कभी सत्य बोल जाते हैं। जहाँ तक याद आता है, फिलीस्तीनी नेता यासर अराफात ने सार्वजनिक रूप से 1993 में ओस्लो समझौते पर हस्ताक्षर किये लेकिन दक्षिण अफ्रीका की एक मस्जिद में मुसलमानों को सम्बोधित किया, तो कहा, " आओ और लडें और जेरूसलम को मुक्त कराने के लिये जिहाद आरम्भ करें"
वैसे स्पष्ट रूप से कही गयी बातों पर गोपनीय बातों को प्रथमिकता देने या फिर सार्वजनिक के स्थान पर व्यक्तिगत बात को मह्त्व देना अपने विवेक पर निर्भर करता है। यद्यपि मध्य पूर्व की राजनीति बार बार इस बात की ओर संकेत करती है कि प्रेस विज्ञप्ति और भाषणों पर अधिक निर्भर रहना चाहिये बजाय कूट्नीतिक केबल के। गोपनीय भाव अधिक मार्मिक हो सकते हैं लेकिन जैसा कि रैंड कारपोरेशन के डालिया डसा काये ने कहा है, " अरब नेता अमेरिका के अधिकरियों से जो कुछ कहते हैं और जो करते हैं वह सदैव संगत नहीं होता"। लोग नीतियों को सुनते हैं जबकि उच्च अधिकार प्राप्त पश्चिमी प्रलोभन दिये जाने पर ध्यान देते हैं।
इस नियम से इस बात की व्याख्या हो जाती है कि क्यों दूर बैठे समीक्षक उन चीजों को देख लेते हैं जिन्हें निकट बैठे कूटनयिक और पत्रकार देख नहीं पाते। इससे विकीलीक्स के डाटा के इस विशाल कचरे की उपयोगिता पर भी प्रश्नचिन्ह उठता है। अंत में हम यही कह सकते हैं कि इससे हम अरब नीतियों के बारे में जितना स्पष्ट हो पाते हैं उससे अधिक भ्रमित हो जाते हैं।